Thursday, December 7, 2023

'मुनिक मतिभ्रम' (नाटककार योगानन्द झा)क निहितार्थ

'मुनिक मतिभ्रम' (नाटककार योगानन्द झा)क निहितार्थ 

                  विभूति आनन्द

          योगानंद झाक नाम स्मरणमे अबैत देरी स्वतः एकटा कथाक शीर्षक समक्ष मे आबि नाचि जाइत अछि– 'आम खयबाक मुँह' ! मुदा सेहो एसगरे नहि, ओकरा संगे 'रुसल जमाय' सेहो. मुदा दुनूक रचनाकार दू. एक टाक तँ योगानंद झा, आ दोसरक उपेंद्रनाथ झा 'व्यास'. ई दुनू टा कथा हमर तरुण मोनक लेल तँ सहजहि, उक्त दुनू टा कथाकारक लेल सेहो 'आइ कार्ड' बनि गेल छनि ! ओना एहि प्रकारक 'आइकार्ड' बनबाक प्रवृत्ति आनहुँ-आन कथाकार ओ कथालेखिका सभहक संग लागल चलैत रहल अछि...
          मुदा एतय हम सीमित होइत छी योगानंद झा पर. आ से जखन कौलेजिया भेलहुँ तँ हरिमोहन झाक 'कन्यादान' आ 'खट्टर ककाक तरंग'क बाद जे कृति सभ सँ बेसी ध्यान आकर्षित कयलक, ताहि मे प्रमुख रहय 'भलमानुस' ! ई उपन्यास छल योगानंद झाक. फेर तँ पढ़लहुँ जेना तकर प्रतिक्रिया मे 'जयवार', 'बनमानुष' इत्यादि सेहो लिखल गेल. मुदा 'भलमानुस' अपन प्रसिद्धिमे यथावत रहल. आ सेहो 'पवित्रा' उपन्यास अएलाक बादो. ओना तकर एक कारण सिलेबसमे आबि जायब सेहो छल. आ सेहो तहिया जहिया 'टेक्स्टबुक' पढ़क चलन शेष छलै.
          तहिना कथा 'आम खयबाक मुँह' मे, जे तत्कालीन रोमांटिसिज्मक दौर मे लिखल गेल छलै, तरुण सहित प्रौढ़ मोन कें सेहो खूबे गुदगुदौलक. ईहो ध्यातव्य जे योगाबाबू द्वारा तकर बाद एगारह टा आर कथा लिखलाक, अर्थात अपन जीवन मे कुल बारहटा कथा लिखलाक बादो, 'आम खयबाक मुँह'क प्रभावसँ ओ मुक्त नहि भ' सकलाह ! एते धरि जे अपन कथासंग्रहक नाम 'उड़ैत बंसी' रखलाक बादो ओ चेन्ह अमिट रहलनि ! मुदा एत' फेर ईहो स्मरण कराबी जे 'आम खयबाक मुँह' सेहो सतत सिलेबस मे स्थान पबैत रहल...

          ओना आजुक समय मे ओ सभ टा स्थिति, आ स्थिति-चित्र अपन स्मृति जीबि रहल अछि. ओहुना नवीन पीढ़ी कें आम खएबाक प्रेमातुर स्थिति, कनेक कालक लेल जरूर मोनकें घेरि ल' सकैत होयतनि मुदा ओ पूर्वक भलमानुस-जयवार तरहक जिच-जिरह वला स्थिति आब कालातीत भ' चुकल अछि. मैथिलीक साहित्य ताहि तरहक छान-बान्ह सँ आब प्रायः-प्रायः मुक्त भ' गेल अछि.
          तहिना एहि ठाम महात्मा गांधीक आत्मकथाक अनुवादक सेहो चर्चा कएल जा सकैत अछि. योगा बाबू उक्त कृतिक अनुवाद, मैथिली अकादमीक निदेशक रहथि, तखन कयलनि आ प्रकाशन सेहो मैथिली अकादमी सएह कयलक. मुदा ताहि मे हुनक कोनो विशेष अनुवादकीय क्षमता ओ स्फीत दृष्टि, दृष्टिगोचर नहि होइछ.
           हम तें अपन विमर्श हुनक नाटक 'मुनिक मतिभ्रम' पर केंद्रित राखय चाहब. ओना एहू पर विस्तारमे गेलापर जिच ठाढ़ भ' सकैत अछि जे ई नाटक थिक, आकि एकांकी ! तहिना ईहो जे ई कृति इण्टर सँ एमए धरिक सिलेबस मे स्थान पबैत रहल अछि ! 
          एत' मुदा फेर शास्त्रीयविमर्श आबि जा सकैत अछि जे नाटक ओ एकांकी मे की अंतर ! तें एहि सँ बचबा लेल एत' हम नाट्य साहित्य मे प्रथम पीएच. डी. प्राप्त कयनिहार लेखनाथ मिश्रक मंतव्य कें लैत विषय-विमर्श कें आगू ल' जाय चाहब. ओ प्रकाशित शोध पुस्तक 'मैथिली नाटकक उद्भव अओर विकास' मे लिखैत छथि जे पौराणिक एकांकी कोटि मे एहन एकांकी सभ अछि जकर कथावस्तु पुराणसँ गृहीत अछि. एकर अर्थ ई नहि जे कविक कल्पनाक कोनो श्रेय एहि रूपक एकांकी मे नहि अछि. एहिमे कविक कल्पना सेहो प्रश्रय पौलक अछि, किंतु पौराणिक पात्रक अंगभूत भ'क'. एहि रूपक मैथिली एकांकीमे प्रमुख अछि 'मुनिक मतिभ्रम'...
          'मुनिक मतिभ्रम' एकगोट एकांकी नाटक अछि. किंतु एकर अस्तित्व, पूर्ण नाटकक रूपमे मानबा मे किनको आपत्ति नहि भ' सकैत छनि. अनेक दृश्यमे विभक्त रहबाक कारणें एकर कलेवर सेहो ततेक छोट नहि अछि. घटनाक वैविध्य अछि. आ एकर प्रभाव सेहो दर्शक पर एकांकी जकाँ नहि पड़ैछ.

          मुदा मैथिली साहित्यक प्रथम इतिहास लिखनिहार जयकान्त मिश्र एकरा महान नाटक नहि मानैत छथि. अंग्रेजी मे अपन मंतव्य दैत ओ लिखैत छथि जे हम सदाय अनुभव कयलहुॅं अछि जे यद्यपि 'मुनिक मतिभ्रम' साहित्यक एक नीक उदाहरण अछि, मुदा तें ई एकटा महान नाटक नहि अछि, किएक तॅं एकर मंचन नहि कएल जा सकैत अछि.
          एही तथ्य कें ध्यान मे अनैत प्रायः भीमनाथ झा 'परिचायिका'( एकरा 1978 मे मुदा छद्मनाम 'मध्यम पाण्डव' नाम सँ छपबौने रहथि )मे सेहो लिखैत छथि जे एकर कथावस्तु पौराणिक अछि. च्यवन आ सुकन्याक कथा ल' क' लेखक उच्च कोटिक साहित्यिक नाटक तैयार कयलनि अछि. मुदा एकरा मंच पर अभिनीत करब दुष्कर अछि. तें ओहि दृष्टि सँ ई दुर्बल कहल जा सकैछ, किंतु नाटकक अध्येता कें एहि मे नीक काव्यात्मक तृप्ति भेटैछ, ताहिमे संदेह नहि.
          मुदा दू पीढ़ीक एहि दुनू विद्वानक मन्तव्य पर आगू विमर्श सम्भावित अछि. किएक तॅं मंचन-संबंधी दुनू विद्वानक मत अनेक-अनेक दशक पुरान लगैत अछि. तें एखन पहिने विवेच्य एकांकी वा नाटकक कथानक जानि लेब एहि लेल आवश्यक अछि जे आगूक विमर्श कें सुविधापूर्वक बुझबा मे सहायक भ' सकैछ. ओना एकर कथानक किनको लेल प्रायः अज्ञात नहि अछि, खिस्सा रूप मे जानल-सूनल जरूर लागि सकैत अछि. एहि मे तपलीन च्यवन ऋषि आ राजा शर्यातिक पुत्री राजकुमारी सुकन्याक एकगोट अजगुत सनक घटना- कथा गुंफित अछि, आ जे सहीमे नाटकीय घटना-क्रमक दिस इंगित करैत अछि...

          अर्थात् पिता-पुत्री सपरिवार अपन लाव-लश्कर संग वन-भ्रमण लेल निकलैत आ यथास्थान पहुँचैत छथि. आ ओत' जा राजकुमारी सुकन्या, सखी लतिकाक संग घुमैत-फिरैत एकटा जलाशय लग आबि जाइत छथि, जत' एक गोट गाछक नीचा दिबड़ाक भीड़ पर नजरि पड़ैत छनि. मुदा अजगुत ई जे ओहि भीड़मे दूटा भूर रहैछ, जकर अंदरसँ एक विशेष प्रकारक ज्योति बहराइछ. ताहि दृश्य कें देखि राजकुमारी सुकन्याक कौतूहल बढ़ि जाइत छनि आ ओ ओतहि कतहु फेकल शाही-काँट उठा ओहि भूर मे भोंकि दैत छथि ! तखने एक अचरज होइत अछि. अंदर सँ आर्तनादक संग सोनितक टघार निकल' लगैत अछि ! दुनू सखी डरि जाइत छथि, आ चोट्टे ओत' सँ भागि पड़ाइत छथि...
          एतय धरि सभ किछु यथार्थपरक घटना लगैत छै. मुदा तकर बाद एहि कथा मे मोड़ अबैत छै. सम्पूर्ण राज्य, राज्यक जन-जीवन, घोर कष्ट सँ आबि छटपटाय लगैत छै. राजा धरि बेचैन– आब की हो !
          फेर ज्ञात होइछ जे सुकन्या किछु नेनपना कयलनि, आ तकर बादहिं सँ एहि तरहक अनिष्टपूर्ण परिदृश्य उपस्थित भेल छै...
          फेर परिदृश्य बदलैत अछि. ज्ञात होइछ जे ओ पीड़ित स्वर आन किनको नहि, अपितु सैकड़ो वर्ष सँ तपलीन ऋषि च्यवनक छनि, जिनकर आँखि सुकन्या द्वारा कौतूहलवश फोड़ि देल गेल छलनि, आ जकर फल भेल अछि जे पूरा तंत्र एक तरह सँ विकल-बेचैन भ' उठल अछि !
          तकर बादक परिदृश्य फेर बदलैत अछि. राजा प्रायश्चित करबाक हेतु ऋषि लग पहुँचैत छथि. महोजरो आरम्भ होइत अछि, होइते जाइत अछि...
          आकि तखनहि वृद्ध-जर्जर ऋषिक ऑंखि, जे शेष छलनि, सुकन्या पर पड़ैत छनि. आ से देखिते हुनक रूप-लावण्यपर ओ मोहित भ' उठैत छथि. आ फेर तकर बाद तँ ऋषि अपन होसमे नहि रहि जाइत छथि ! 
          एकटा बहुत प्रसिद्ध काव्यखंड, जे आब लोकोक्ति रूपमे प्रसिद्ध अछि– होय बुढ़ारी वयस तँ बुद्धि जाय भसिआय ! से अत्यधिक पीड़ा सँ पीड़ित रहितहुँ च्यवन, मुदा सुकन्या संग पत्नी रूप मे शेष जीवन बितयबा लेल जिद्द पकड़ि लैत छथि. जेना 'तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा' कें चरितार्थ करैत होथि !...
          आब एत' आबि क' ई कथा अपन क्लाइमेक्स पर पहुँचैत अछि. एक दिस षोडशीक प्रति च्यवन ऋषिक लिप्सा, तँ दोसर दिस राज्यक सकल जन-गणक पीड़ा ! मुदा राजा-रानी अपन सुकन्याक एबज मे तेहन त्याग करय लेल तैयार नहि होइत छथि. स्थिति बड़ कठिन ओ दुखद स्थिति दिस बहुत तेजी सँ बढ़ैत चलल जाइत छै. संगहि जेना-जेना समय बीतल जाइत छै, तेना-तेना आमलोकमे हाहाकार बढ़ैत जाइत अछि...
          अंततः कथानक एकटा निर्णायक मोड़ पर पहुँचैत अछि, जखन राजकुमारी सुकन्या अपन निर्णय सुनबैत शेष जीवन च्यवन ऋषिक संग बितयबाक घोषणा क' पूरा परिदृश्ये कें बदलि, सभ कें अचम्भित क' दैत छथि. ई हुनक जनहित मे लेल गेल आत्मनिर्णय, वा परिस्थितिजन्य विवशता, से लेखकीय कौशल सॅं अव्याख्येय छोड़ि देल गेल सन लगैत अछि. 
          आ हमरा जनैत इएह ओ प्रस्थान बिंदु बनैत छै जत' सॅं आब'वला काल्हि मे एहि कथानकपर पुनर्विमर्श करैत मंचनक संभावनाक आधुनिक बनबैत छै ! आ तें हमर मानब अछि जे कथा-विमर्शक द्वार वस्तुतः एतहि सॅं फुजितो छै. ओना एहि ठमकल कथानक पर, विमर्शक आरम्भ हिंदी कथालेखिका सिनीवालीक टटका उपन्यास 'हेति' मे अकानल जा सकैत अछि... 
          ओना एकर आनुषंगिक आर बहुत रास दैवीयकथा सभ सेहो नाटक मे अबैत अछि. देवताक वैद्य अश्विनी कुमार आबि अपन आयुर्वेदीय पद्धतिसॅं च्यवन ऋषिक आँखि ठीक क' दैत छथि. संगहि नाटक मे एकरो संबंध आजुक औषधि 'च्यवनप्राश' सँ जोड़बाक उल्लेख भेटैत अछि. अर्थात एहि औषधिक सेवन जे करताह-करतीह, हुनका सभ मे युवा-स्फूर्तिक स्वतः संचार  होब' लगतनि !...
          संकेत ई जे जाहि वृद्ध संग अपन सुपुत्रीक पाणिग्रहण करयबा सँ संबंधित राजा डरैत रहथि, ओ उक्त औषधि सँ पुनः यौवनावस्थाकें प्राप्त करैत छथि. फेर मुदा तकर बादक कथा एत' मौन अछि. अर्थात विवेच्य एकांकी-नाटक एत' आबि विराम ल' लैत अछि.

          एहि एकांकी-नाटक मे ओना तँ लगैत एना छै जे लेखक प्रचलित कथेक आधार ल' तकरा नाट्यरूप मे गुंफित कैने छथि, मुदा ताहि प्रसंग हुनक मंतव्य किछु भिन्न छनि. ओ लिखैत छथि जे एहि मे संदेह नहि जे नाटक तथा उपन्यास हृदय सँ, सत्यतापूर्वक मानवताक अभिव्यक्ति करैछ, जाहि सँ प्राचीनताक कर्णधार लोकनिक भावनापर आघात पहुँचि सकैत छनि. तें डराइत-डराइत हम एहि कथानक कें ओही रूपमे प्रस्तुत कयलहुँ अछि, जाहि तरहें ओ हमरा हृदय तथा कल्पनामे उपस्थित भेल. तें सुकन्या आ च्यवनक चरित्र पौराणिक आधार सँ भिन्न भेटत. सुकन्याक जीवनक निरर्थकता तथा तुच्छता कें अहाँ अधर्म नहि मानब, से विश्वास अछि. जीवनक यथार्थता एवं सार्थकता मनुष्यक वाह्य आचरण तथा चरित्र सँ नहि ज्ञात भए सकैछ...
          आ एहि तरहें नाटकक कथ्यकें ओ अपन शब्द-जाल मे ओझराबैत सन प्रतीत होइत छथि. मुदा हुनकर जे सकारात्मक मनसा वएह अछि, जकर उल्लेख पूर्व मे कएल अछि. एहि कृतिमे सुकन्याक चरित्र काफी सकारात्मक रूपसँ विस्तार पौलक अछि, मुदा कनेक आर खुलबाक जरूरति छलै...
          एकर भाषा सेहो प्रांजल अछि, आ सांकेतिक सेहो. आ जाहि बल पर विवेच्य एकांकी-नाटकक उद्देश्य, आजुक समयक अनुकूल बनि गेल अछि. 
          ध्यातव्य ई जे विवेच्य कृति, एखन अपन प्रकाशनक एकहत्तरिम वर्ष मे चलि रहल अछि. विषयान्तर होइत एतय कनेक बेसी व्यक्तिगत होइत ईहो उल्लेखनीय जे 'मुनिक मतिभ्रम'क प्रकाशन वर्ष 1953 अछि, आ संयोग एहन जे हमरो जन्म वर्ष सेहो सएह थिक ! खैर.

          मुदा एतेक तरह सँ विमर्शित होइत हमरा कतहु सँ ई बोध नहि भ' सकल जे प्रस्तुत कृति मंचन-योग्य नहि अछि. ओना जाहि समय-कालमे एकर लेखन-प्रकाशन भेलैक, ताधरि ताहि तरहें सोचब कें सही मानल जा सकैत अछि. मुदा जखन हम अपन मध्यकालीन नाटकक इतिहास कें पढ़ैत छी तथा नाटकक धारावाही मंचनक उल्लेख पबैत छी, तखन एहि रहे सोचल जायब सही नहि लगैत अछि. एकर भाषा ओ कथ्य आधुनिक ओ काव्यात्मक अछि जे एक सकारात्मक पक्ष मानल जा सकैत अछि. तहिना एहि एकांकी-नाटक मे सभ किछु स्पष्ट नहि कहितहुँ, संकेत मे सभटा बात कहि जयबाक चातुर्य भेटैत अछि, संगहि बदलैत परिदृश्य, नाटकक अक्षुण्ण मूल कथा-रूप, एकर पौराणिकता कें बेस विश्वसनीयता प्रदान करैत अछि. 
          तें जत' धरि एकरा पाठ्य-नाटकक कोटिमे राखल जयबाक प्रश्न अछि तँ एत' स्पष्ट भ' ली जे आजुक रंग-तकनीक बहुत अधिक विकसित भ' चुकल अछि. सिनेमा जकाँ, अथवा कही तँ ताहू सँ अधिक सही आ विश्वसनीय ढंग सॅं अभिप्रेत विषय कें प्रस्तुत करबामे वर्तमान रंगमंच पूर्ण सक्षम अछि. अंतर एतबे भेलैक अछि जे लेखक लोकनि द्वारा लिखल गेल नाटक कें मंच पर व्यवस्थित आ वास्तविक ढंगे प्रस्तुत करबाक लेल ओकर 'प्रदर्शन आलेख' तैयार क' लेल जाइत छै. आ तें निस्तुकी कहल जा सकैत अछि जे आइ रंगमंचक लेल किछुओ टा असंभव नहि रहि गेल छै...
          एहि संदर्भ मे अपना कें कने-मने विस्तारित करैत कहय चाहब जे हिंदीक सुप्रसिद्ध लेखक जयशंकर प्रसादकें हुनक समय मे जतेक नाटक रहनि, तकरा एहि तर्कक संग कात क' देल गेल रहै जे ई सभ पाठ्य-नाटक थिक. ई मंचनक योग्य नहि अछि. एकरा पढ़ू आ आनंद लिअ ! मुदा ओही सभ नाटक कें अस्सी-नब्बेक दशक मे आबि क' सुप्रसिद्ध निदेशक ब ब कारंत निदेशन कयलनि, से 'ध्रुवस्वामिनी' सँ ल' क' 'स्कंदगुप्त' धरिक !...
          आ ओ जे परंपरा आरम्भ भेल, जे कोनो कृतिक मंचन असंभव नहि अछि, आइ तकरे परिणति अछि जे कोनो एहन साहित्यिक-गैर साहित्यिक विधा शेष नहि रहल, जकर मंचन नहि भ' रहलय. आ से ओ आत्मकथा होइ, आकि रपट-समीक्षा ! बिहार 'इप्टा'क द्वारा अभिनीत आ चर्चित नाटक 'मैं बिहार हूँ' तँ एकगोट अखबारक कतरन मात्र थिक ! तहिना ई पंक्ति लेखक स्वयं साक्षी रहल अछि, जखन सुचर्चित सिने ओ रंग अभिनेता टॉम अल्टर (आब दिवंगत) भोपालक भारत भवन मे एकटा विशेष अवसरपर चचा गालिबक चरित्रक अभिनय, हुनके कविताक आधारपर कैने रहथि ! आ मराठीक रंगमंच तँ अपन नित नवीन प्रयोगक बल पर हिंदी सिनेमाक हृदयस्थली मे ओकर समान्तर चलि रहल अछि. बंगला थियेटरक सेहो सएह त्वरा अछि...
          तखन प्रश्न उठि सकैत अछि जे मैथिली रंगमंचक स्थिति एहि सभ सँ भिन्न अछि. मुदा हम कहब, कोनो टा भिन्नता नहि अछि ! रंगमंचक अपन एकटा अलग व्याकरण होइत छै, जे सभ ठाँ यथासंभव अपन स्थान बना लैत छै. 
          आ ताही संदर्भमे एत' उल्लेख कर' चाहब जे एही मैथिली रंगमंचपर ललितक उपन्यास 'पृथ्वीपुत्र', मणिपद्मक 'फुटपाथ' आ अनिल कुमार ठाकुरक 'आब मानि जाउ'क सफल मंचन भ' चुकल छै. तहिना महेंद्र मलंगिया लिखित 'गोनूक गवाह' खिस्साक संगहि हरिमोहन झाक कथा 'मर्यादा भंग' 'पाँच पत्र', 'कन्याक जीवन' (तित्तिरदाइ), 'पंडितक गप्प', 'मिथिलाक संस्कृति', वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'क 'हीरक जयंती', पं. गोविंद झाक 'पातक मनुक्ख', राजकमल चौधरीक 'ललका पाग', मलाहक टोल, 'कमलमुखी कनियाँ', 'ननदि-भाउज', 'साँझक गाछ', आ सुधांशु शेखर चौधरीक 'भारती', धूमकेतुक 'अगुरवान', सुभाषचन्द्र यादवक 'डर', प्रदीप बिहारीक 'काॅंट' सहित श्याम दरिहरेक 'रक्तसंबंध' आदि कें मैथिली रंगमंच अपन प्रयोग-परिधिमे आनि चुकल अछि. प्रयोग तॅं एकटा कथा लेखकक अनेक कथाक गुलदस्ता बना क' सेहो मंचन भेल अछि, यथा : 'मैथिल नारि : चारि रंग', 'कथा रंग', 'कथा पौती', 'एकादशी', 'घाट पर जाति', 'दुखहि जनम भेल' आदि.
          एतबहि नहि, मैथिली कविताक मंचनक सेहो एकटा सूची अछि, जे मंचित भ' चुकल अछि. तत्काल किछु स्मरण भ' रहल अछि– यात्री-नागार्जुनक 'विलाप', 'गाछ लगाउ', तंत्रनाथ झाक 'उपनयनक भोज, 'सिमरिया डूब' (मुसरी झा) आदि. 
          तहिना स्मरण करी, लोकमहागाथा सभ सेहो मैथिली रंगमंचपर अपन प्रभाकें पसारि चुकल अछि. तावत 'लोरिकाइन' आ 'सलहेस'कें हम स्मारित क' सकैत छी. आ ताही क्रम मे चर्चित लोक-गीत-नृत्य 'सामा-चकेबा', 'जटा-जटिन' कें सेहो ल' सकैत छी. तहिना पारंपरिक गीत-नृत्य 'झरनी', 'डोमकछ' सेहो...

          किंतु एखन तँ हम पौराणिक कथा सभक मंचन-प्रसंग विमर्श क' रहल छलहुँ जे ओहन सभ विषयक नाटक, पाठ्य टा भ' सकैत अछि ! तें एतय हम पुनः विषय विस्तारित करैत सूचित कर' चाहैत छी जे मैथिली रंगमंच एते धरि साहस क' चुकल अछि जे ज्योतिरीश्वरक 'धूर्त्त समागम' आ विद्यापतिक 'मणिमंजरी', 'गोरक्ष विजय'क मंचन तँ कैये चुकल छै, हुनके कथा संग्रह 'पुरुष परीक्षा'क कथा सभ मे सँ लगभग चालीस-चौवालीस कथाकें आकाशवाणी पटना प्रसारित सेहो क' चुकल अछि. आ जकर नाट्यरूपांतरण कयलनि योगानन्द सिंह झा, ओ प्रस्तुति छत्रानन्द सिंह झाक छलनि...
          पौराणिक कथाक मंचन पर जत' धरि प्रश्न उठैत अछि तँ पं. गोविन्द झाक 'रुक्मिणी हरण'क दर्जनो प्रस्तुति एखन धरि भ' चुकल अछि. तहिना उमापतिक 'पारिजातहरण'क लगभग आधा दर्जन सँ बेसी बेर मंचन भ' चुकल छै. एही परिधिमे पारम्परिक 'जानकी परिणय' कें सेहो हम ल' सकैत छी.
          तहिना प्रसंगवश उल्लेख करी जे कथ्यक स्तर पर कनेक अधिक कठिन आ टेढ़ नाटक अछि नचिकेताक– 'नो एण्ट्री : मा प्रविश' ! मुदा तकरहु मंचन क' मैथिली रंगमंच एक तरह सँ असंभव कें संभव क' चुकल अछि. 

          ... आ एतेक रास जे मंचन, आ से कठिन मंचन सभ भेलैक, भ' रहलै अछि, ताहि मे अहर्निश लागल पटनाक 'अरिपन' ओ 'भंगिमा' तथा दिल्लीक 'मैलोरंग'क अविस्मरणीय योगदान रहल अछि. ओना तॅं कलकत्ता, दरभंगा, बेगूसराय, जनकपुर धामक योगदान सेहो कम नहि छैक, आ जकर सभक संपूर्ण गतिविधि ज्ञात नहि रहबाक कारणें उल्लेख नहि कएल.

          अस्तु, एहना स्थिति मे आ आजुक परिप्रेक्ष्य मे रंगमंच लेल एक पंक्ति मे कही तँ 'असंभव' सनक किछुओ शेष नहि रहि गेल अछि. आ तें विवेच्य 'मुनिक मतिभ्रम' एकांकी-नाटकक संदर्भ मे हमर निहितार्थ एतबे अछि जे एकरहु आब' वला समय मे मंचन असंभव नहि छै.
          के जनैत छल जे भारतक 'चंद्रयान' चंद्रलोकक यात्रा करत ! ओहुना, भनहि तॅं भवभूति लिखि गेल छथि– 'कालोऽह्ययं निरवधि विपुला च पृथ्वी'. मने काल अनंत आ पृथ्वी बहुत पैघ. आ तें कतहु-ने-कतहु कहियो-ने-कहियो, हमर समानधर्मा जन्म लेत...

Friday, October 13, 2023

मैथिली नाट्याकाशमे पसरल भफाइत चाहक जिनगी


आलेख

मैथिली नाट्याकाशमे पसरल भफाइत चाहक जिनगी

प्रदीप बिहारी

      (नाटककार : सुधांशु शेखर चौधरी)

सुधांशु शेखर चौधरी मैथिलीक बहुविधावादी रचनाकार रहलाह अछि। मैथिली साहित्यक प्रायः सभ विधा हिनक लेखनीसँ परिपूरित भेल अछि। सभ विधाक सांगह कयलनि अछि।
मैथिलीक सुप्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका ‘मिथिला मिहिर’क बाइस बर्ख (1960 सँ 1982) धरि सम्पादन कयलनि। मिथिला मिहिरक हिनक सम्पादन-काल कतोक दृष्टिएँ उत्कृष्ट रहल अछि। पत्रिकाक स्तरकें अक्षुण्ण रखबाक संगहि मैथिली साहित्यक नवीनतम पीढ़ीक कतोक प्रतिभाशाली साहित्यकारकें प्रकाशमे अनलनि।

मिथिला मिहिरक स्तरीयताकें अक्षुण्ण रखबाक हेतु वा ओकर स्तरीयताकें आर उत्कृष्ट बनयबाक हेतु हिनका जाहि-जाहि विधाक प्रयोजन बुझयलनि, ताहि विधा सभमे स्वयं मूल आ कतोक छद्म नामसँ लिखलनि आ आन-आन रचनाकार सभसँ सेहो सृजन करौलनि।

उपन्यास, कथा, कविता, नाटक, एकांकी, रेडियो रूपक, निबन्ध, समालोचना आदि विधा सभमे साहित्य सृजन कयलनि। ‘तर पट्टा ऊपर पट्टा’, ‘ई बतहा संसार’, ‘दरिद्र छिम्मड़ि’ आ ‘निवेदिता’ हिनक उपन्यास थिक। ई उपन्यास सभ मिथिला मिहिरमे धारावाहिक छपल छल, जाहिमे ‘ई बतहा संसार’ 1979 मे पुस्तकाकार भेल आ 1980 मे साहित्य अकादेमी पुरस्कारसँ सम्मानित कयल गेल। हिनक समीक्षात्मक निबंध संग्रह ‘सन्दर्भ’ 1981 मे प्रकाशित भेल। हिनक नाट्य कृति ‘भफाइत चाहक जिनगी’ (1975), ‘लेटाइत आँचर’ (1976), ‘पहिल साँझ’ (1982) आ ‘लगक दूरी’ प्रकाशित अछि। एकर अतिरिक्त हिनक कृति सभ विभिन्न पत्र-पत्रिकामे प्रकाशित अछि, जे अपन मूल नाम आ ‘पराशर’ ओ ‘कामरूप’क छद्म नामसँ रचित अछि।
दरभंगाक मिश्रटोलामे 3 नवम्बर 1922 कऽ हिनक जन्म भेलनि। विभिन्न जीविकाक संदर्भमे कलकत्ता आ जमशेदपुरमे रहलाह। किछु दिन उच्च विद्यालयक शिक्षक सेहो रहलाह आ तकर बाद मात्र रचनाकार आ सम्पादकक रूपमे बाँचब आ रचब स्वीकारलनि।

मिथिला मिहिरक किछु निबन्ध संग्रह आ एकांकी-संग्रहक सम्पादन स्वतंत्र आ सहयोगीक रूपमे कयने छथि।

मैथिलीसँ पहिने हिन्दीमे लिखैत छलाह। हिन्दी नाटकक एकटा अनिवार्य रचनाकार छलाह सुधांशु शेखर चैधरी। हिन्दीएक लेखन हुनक रोजी-रोटी छलनि। प्रो. सुरेन्द्र झा ‘सुमन’क प्रेरणासँ मैथिलीमे लिखब प्रारंभ कयलनि आ तकर बाद मैथिलीयोक अनिवार्य रचनाकार बनि गेलाह। जखन रोजी-रोटी मैथिली देलकनि तँ हिन्दी दिस घुरियो कऽ नहि तकलनि।

प्रायः सभ विधामे रचनाकर्म करैत रहलाक बादो सुधांशु शेखर चैधरी स्वयंकें मूलतः नाटककार मानैत छलाह। मुदा मैथिली नाटक लिखलनि अपन जीवनक उत्तरार्द्धमे। मैथिलीमे हिनक पहिल नाटक प्रकाशित भेलनि- ‘भफाइत चाहक जिनगी’।

सुधांशु शेखर चैधरी मैथिलीमे ताहि समयमे नाटक लिखब शुरुह कयलनि जखनि ओ अपन जीवन आ लेखनक उत्तरार्द्धमे छलाह, मुदा आधुनिक मैथिली नाटकक आ रंगमंचक विकासक दृष्टिएँ ओ समय उठानक छलैक। आने भाषा जकाँ मैथिलीमे सेहो मनोरंजनक लेल आ देवी-देवताक आख्यान वर्णनक स्वरूप कतोक नाटक लिखल गेल। ओहि नाटक सभक साहित्यिक महत्वक बात स्वीकारल/अस्वीकारल गेल। मुदा कतोक नाटक लोकरंजक नहि भऽ सकल। तकर एक कारण इहो मानल जा सकैत अछि जे रंगमंचक दृष्टिसँ अधिकांश नाटक असमर्थ होइत रहल। अधिकांश नाटककार मंचक तकनीक आ ओकर सीमाकें बुझबामे चेष्टगर नहि छलाह।

नाटक लिखबाक लेल मंचक सीमाक परिज्ञान आवश्यक होइछ। मंच आ दर्शककें ध्यानमे राखि नाटक लिखक चाही। मैथिलीमे ई काज तखन शुरुह भेलैक जखन आन-आन भाषाक नाटक आ रंगमंच विकासक क्रममे दौगबाक स्थितिमे छल वा ई कहल जा सकैछ जे दौगि रहल छल। दोसर रूपें इहो कहल जा सकैछ जे जखन आन-आन भाषाक रंगमंच दौगि रहल छल तखन मैथिली नाटक अपन नव भावबोध, आधुनिक रंग तकनीक, मंचक सीमा आ दर्शकक मनोविज्ञानक संगहि नाटकक आन तत्व सभ पर गंभीरतापूर्वक विचार करैत डेगाडेगी देवऽ लागल। एहि क्रममे आ कालमे सेहो तीन गोट नाटककार सर्वथा उल्लेखनीय छथि जे मैथिली नाटकमे कथ्य आ शिल्प दुनूक स्तर पर नवीनता अनलनि। ओ सभ थिकाह- मुंशी रघुनन्दन दास (मिथिला नाटक), ईशनाथ झा (चीनीक लड्डू) आ गोविन्द झा (बसात)। एहि तीनू नाटकक कथा तत्व समाजक स्थिति परिस्थितिसँ निर्मित अछि। सामाजिक जागरण, इष्र्या, द्वेष, कुरीति आ वैवाहिक असंतुष्टि जनित समस्या सभक चित्रण कौशलपूर्वक कयलनि अछि तीनू नाटककार। जेना किसान रस्सी बाँटलाक बाद पोआर लऽ कऽ रस्सीकें रगड़ि-रगड़ि कऽ माँजैत अछि जे अनावश्यक पटुआ सभ झड़ि जाइक आ रस्सी मोलायम आ गप्स भऽ जाय, तहिना ई तीनू नाटककार अपन-अपन नाटकक कथा तत्वकें माँजलनि, से मंच पर अपन शिल्प आ प्राणतत्वक अक्षुण्णताक चमकसँ दर्शककें आकर्षित कयलक।

तकर बादहिं नाट्य-लेखन आ रंगमंचक विुपल अनुभव लऽ कऽ अयलाह सुधांशु शेखर चैधरी। मैथिलीमे ओ पहिल नाटक लिखलनि-‘भफाइत चाहक जिनगी’ आ तकर बाद ‘लेटाइत आँचर’, ‘पहिल साँझ’ आ ‘लगक दूरी’। ओना चैधरीजीसँ पहिने महेन्द्र मलंगिया अपन प्रयोगधर्मी एकांकी सभक संग प्रवेश कऽ चुकल छलाह। मुदा, जेना कि चैधरी जी सेहो कतोक ठाम वक्तव्य देने छथि जे ओ महेन्द्र मलंगियाके नाटककार नहि मानैत छथि। विभूति आनन्द अपन ‘स्मरणक संग’ नामक पोथीमे लिखैत छथि- ‘‘महेन्द्र मलंगियाक ‘जाइन्ट इन्ट्री’सँ संपादकजी भीतरसँ सहमल रहथि, तें पहिने तँ महेन्द्र मलंगियाकें नाटककार मानऽ लेल तैयारे नहि रहथि। बादमे मोनकें मना कऽ कहुना एकांकीकारक रूपमे स्वीकार कयलनि। मुदा एहि बात पर अंत धरि अडिग रहलाह जे मैथिलीमे प्रयोगधर्मी नाटक सभसँ पहिने हमहीं आनल।’’ जें महेन्द्र मलंगियाक नाटक ‘एक कमल नोरमे’, ‘लक्ष्मण रेखा खंडित’, ‘जुआयल कनकनी’ आ कतोक एकांकी ‘भफाइत चाहक जिनगी’सँ पूर्वहिं आयल आ अपन प्रयोगधर्मकें स्थापित कऽ स्वतंत्र पहिचान बनौलक तें स्वीकारबा योग्य बात ई जे सुधांशु शेखर चैधरी मैथिलीमे अधुनातन रुपें महेन्द्र मलंगियाक बाद अयलाह।

मुदा प्रश्न ई नहि जेे पहिने के अयलाह? पहिने आ बादमे आयब महज एकटा संयोगक रूपमे लेल जा सकैछ। विचार करबा योग्य बात ई जे कोनो लेखक अपन लेखनक विकासक ग्राफकें कतऽ धरि बढ़ौलनि? ताहि दृष्टिएँ एहि दुनू नाटककारक ग्राफ मैथिली नाटकक विकासमे रेखांकित करबा योग्य प्रगति कयलक। दुनू गोटेक प्रयोगधर्मी नाटक सभ मैथिली नाटकक परिचितिकें आन-आन भाषा सभक समक्ष ठाढ़ कयलक।

सुधांशु शेखर चैधरी स्वयंकें मूलतः नाटककार मानैत छलाह, तकर मूल कारण इहो स्वीकारल जा सकैछ जे नाटकक तकनीकक हिनका खूब व्यावहारिक अनुभव छलनि आ तकर प्रयोग हिनक नाटककारकें सफल आ लोकप्रिय बनौलकनि। ‘भफाइत चाहक जिनगी’क आत्मकथ्यमेे ओ कहैत छथि- ‘‘नाटक क्षेत्रमे हमर किछु मोजर अछि, से एहि उक्तिक आधार पर अछि जे हिन्दीमे कैक-कैक संस्करणमे प्रकाशित दर्जनक करीब ओहि नाटक सभक प्रचार आ मंचीकरण जे केवल मिथिला किंवा बिहारक सीमामे आबद्ध नहि रहल, अपितु देशक सुदूर जनपदमे, हिन्दी बहुल क्षेत्रमे जा कऽ अपन नीक स्थान बना लेलक। किन्तु ई हम अपन दुर्भाग्ये मानैत छी जे इच्छा अछैत हम अपन मातृभाषामे गोटेको सम्पूर्ण नाटक नहि लिखि पौने छलहुँ। ताहि लेल हमरा हृदयमे कचोटो कम नहि छल। हम कृतज्ञ छियनि आकाशवाणी, पटनाक बटुक भाइक, चेतना समितिक वर्तमान सचिव गजेन्द्र नारायण चैधरीक जे ठोंठ मोकि हमरासँ ‘भफाइत चाहक जिनगी’ लिखा लेलनि आ हम मैथिलीक नाटककारक रूपमे चीन्हल आ जानल जा सकलहुँ। हमरा सन जड़ आ रोगग्रस्त व्यक्तिसँ मैथिली रंगमंचक पूजामे गोटेको फल चढ़बा लेल गेल, हम अपन जीवनक महत्वपूर्ण घटना मानैत छी।’’

आगाँ ओ फेर कहैत छथि- ‘‘हम रंगमंच पर स्वयं अभिनेताक रूपमे प्रायः 25 बर्ख धरि कार्य कऽ चुकल छी, स्वतंत्र रूपसँ निर्देशन आ मंच निर्देशनक अवसर सेहो दीर्घ काल धरि भेटैत रहल अछि आ तें हम आधुनिक मंचक क्रिया-प्रक्रिया ओ कठिनता-बाधासँ परिचित छी। हमरा भय छल जे ‘भफाइत चाहक जिनगी’ जँ मंच पर असफल भेल तँ मैथिलीभाषी समाज हमरा कहियो क्षमा नहि करत। कहत, जे व्यक्ति हिन्दीमे एतेक अर्थ आ यश कमायल अछि से जानि-बूझि कऽ मातृभाषाक ठाढ़ होइत मंचकें दूरि कऽ देलक। हमरा संतोष अछि जे अपेक्षित ध्वनि-प्रकाश ओ उपयुक्त प्रेक्षागृहक अभावोमे चेतना समिति द्वारा चुनल कलाकारक टीम ने हमर यश ओ गौरवक सुरक्षा प्रदान कयलक, अपितु हमरा पुनः मैथिली नाटक लिखबा लेल प्रेरणा देलक।’’
‘भफाइत चाहक जिनगी’क पहिल मंचन सन् 1974क विद्यापति पर्वक अवसर पर भेल छल। 1975 मे पहिल बेर पुस्तकाकार प्रकाशित भेल। ई एकटा एहन समय छल जखन देशक सामाजिक आ राजनैतिक स्थिति करोट फेरलक। चर्चित छात्र आन्दोलन आ जय प्रकाश नारायणक सक्रिय नेतृत्वसँ ई कालावधि रेखांकित करबा योग्य रहल अछि। एहन समयमे ‘भफाइत चाहक जिनगी’क कथातत्वक सामाजिक परिवेश, बेरोजगारी आ समकालीन कतोक विषमता दर्शककें नितान्त अप्पन सन लागब स्वाभाविके छल। दर्शक एहि ‘अप्पन’ वस्तुकें मोनसँ स्व्ीकारलक आ एहि नाटककें लोकप्रिय बनौलक। एहि हेतु नाटककारक दृष्टि अबस्से प्रशंसा योग्य कहल जा सकैछ जे ओ देश आ कालक नाड़ीकें चिन्हलनि, टोलनि आ बड़ सहजतापूर्वक पाठक वा दर्शकक मानसपटल पर चिरकाल धरि अंकित रहबा योग्य रचना कयलनि।

मैथिलीमे मौलिक रूपसँ नाट्य-लेखनक आरंभ 1904 ई. मे जीवन झाक ‘सुन्दर संयोग’सँ भेल अछि। आ सुधांशु शेखर  चैधरीक पहिल नाटक ‘भफाइत चाहक जिनगी’क पहिल मंचन 1974 ई. मे भेल। एहि कालावधि पर विचार कयने ई बात स्पष्ट रुपें सोझाँ अबैत अछि जे मैथिलीमे प्रयोगधर्मी नाटकक डेगा-डेगी बड़ विलम्बसँ शुरुह भेल अछि। मुदा एतेक धरि अबस्से कहल जा सकैछ जे विलम्बेसँ हो मुदा समधानल डेग उठौलक मैथिली नाटक आ तकरा सम्पुष्ट करबाक प्रयास आ प्रयोग अनवरत भऽ रहल अछि। मैथिली नाटकक आ देशक कालखंड, सामाजिक-राजनैतिक स्वरूप, शिल्प आ तकनीकक प्रायोगिक ‘टर्निंग प्वाइंट’ पर ‘भफाइत चाहक जिनगी’ अपन सुदृढ़ उपस्थिति बनौलक।
‘भफाइत चाहक जिनगी’ मध्यवर्गीय जीवन, अनुभव आ परिवेशसँ सोझाँ-सोझी साक्षात्कार करऽ बला एकटा सार्थक नाटक थिक। वर्तमान मैथिल समाज, ओना ई कहल जाय जे वर्तमान भारतीय परिवारक तँ कोनो हर्ज नहि, केर सामाजिक, आर्थिक आ राजनैतिक विडम्बनाक किछु सघन विन्दु सभक संग स्त्री-पुरुष सम्बन्धक संगति/विसंगतिक जीवन्त रेखांकन करैत अछि ई नाटक। एहि नाटकक यथार्थपरक कथ्यकें बुझबाक लेल भारतीय परिप्रेक्ष्यमे मध्यवर्गक अवधारणाकें मोन पाड़ब समीचीन बुझना जाइछ।

मनुक्ख एकटा सामाजिक प्राणी अछि। सामाजिक, आर्थिक आ मनोवैज्ञानिक दृष्टिसँ समाज व्यक्ति-समूहक कतोक वर्गमे विभक्त भऽ जाइत अछि। कोनो व्यक्तिकें वर्ग विशेषमे राखबाक लेल ओकर आमदनी, सम्पति, वंश-परम्परा, आर्थिक दृष्टिकोण, जीबाक स्तर आ शिक्षाकें ध्यानमे राखल जाइछ। आदिम कबीला सभक आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था मानव जातिक वर्ग विहीन समाजक संकैत दैत अछि। मुदा, तकर बादक समाज आ विशेषतः मध्ययुगमे उत्पादन-वृद्धि आ व्यक्तिगत सम्पत्तिक लिलसा समाजकें मुख्यतः दू वर्गमे बाँटि देलक- उच्च (शोषक) आ निम्न (शोषित)। वैज्ञानिक प्रगति, औद्योगिक क्रांति आ पूंजीवादी व्यवस्था विश्वक आर्थिक-सामाजिक आ बौद्धिक अवस्थाकें एहि तरहें प्रभावित कयलक जे अठारहम शताब्दीक अंतिम चरणमे उच्च आ निम्न वर्गक बीच एकटा तेसरे वर्ग जन्म लेलक, जकर मध्यवर्ग कहल गेलैक। किछु आर्थिक-सामाजिक चिंतक आ टिप्पणीकारक अनुसार 1812 ई. सँ पहिने कोनो वर्गक लेल ‘मध्यवर्ग’ शब्दक प्रयोग नहि कयल गेल छलैक। एकर माने ई जे उनैसम शताब्दीक शुरुहमे मध्यवर्ग उभरल आ पूंजवादी औद्योगिक व्यवस्थाक संग बढ़ैत चलि गेल। वर्ग-संघर्षक एहि ऐतिहासिक विकासक विवेचना करैत मार्क्स उच्च, निम्न आ मध्यवर्गकें क्रमशः ‘बुर्जुआ’, ‘प्रोलेतेरियत’ आ ‘पैटी बुर्जुआ’ कहलनि अछि।
भारतीय परिप्रेक्ष्यमे जँ देखल जाय तँ आदिम वर्गविहीन समाजक बाद एहिठाम प्रचलित वर्ण-व्यवस्था एक तरहें वर्ग-व्यवस्थाक सामाजिक रूप अछि। अंग्रेजसँ पहिने भारतमे संयुक्त परिवार, कृषि-व्यवस्था आ घरैया उद्योग पर आधारित व्यवस्था स्वयंमे एकटा पूर्ण इकाई छल। सोलहम शताब्दीमे किछु पाश्चात्य देशक सम्पर्कक कारणें भारतीय जीवन आ समाजमे एकटा सुगबुगाहटि अनुभव कयल गेलैक। मुगल शासनक पतनक बाद शासन तंत्र अंग्रेजक हाथमे चलि गेलैक। अंग्रेजी साम्राज्यवादक कारणें भारतमे मध्यवर्गक विकासमे अंग्रेजी शिक्षाक अतिरिक्त औद्योगिक विकास, शहरीकरण, अर्द्धविकसित पूंजीवादी व्यवस्था, व्यापार, बैंकिंग प्रणाली, प्रेस, संचार आ यातायातक साधनक महत्वपूर्ण भूमिका भेलैक। देशक आजादीक संग भेल विभाजनक आ आजादीक बाद भेल बहुआयामी विकास आ बढ़ैत गेल भ्रष्टाचारक कारणें मध्यवर्गक असंतुलित विकास भेल, जकर कारणें मध्यवर्गक तीनटा स्पष्ट स्तर उभरि कऽ आयल- उच्चवर्ग, मध्यवर्ग आ निम्न-मध्यवर्ग।
मध्यवर्ग मूलतः पढ़ल-लिखल लोक सभक वर्ग थिक। ब्रिटिश शासनमे ओकर नोकरशाहीकें चलाबऽ बला आ ओकर विरोध कऽ स्वतंत्रताक लड़ाइ लड़ऽ बला बुद्धिजीवी एही वर्गसँ आयल छल। अपन महात्वाकांक्षाक कारणें अपन वर्गसँ, किछुओ कऽ कऽ, अपनासँ उपरका वर्गमे जयबा लेल अपस्याँत आ प्रयत्नशील ई वर्ग परिस्थितिक डांगसँ आहत भऽ लगातार निचला वर्गमे पहुँचि जाइत अछि। एकर कारणें एहि वर्गमे सतत तनाओ आ.  अंतरद्वंद्वक   स्थिति पाओल जाइछ। अपन सुरक्षा आ सुविधाक लेल ई वर्ग प्रायः कोनो प्रकारक समझौता आ अवसरवादिताक लेल तैयार रहैछ। सोचब, कहब आ करब सनक खाधि आ आत्म-प्रदर्शनक भावना एहि वर्गक विशेषता छैक। एहने कतोक परिस्थितिक कारणें एहि वर्गक उदयक संगहि संयुक्त परिवारक व्यवस्था टुटैत गेल। भारतीय समाजमे परम्परागत मूल्यमे परिवर्तनक प्रक्रिया छठम-सातम दशकमे महानगरसँ शुरुह भेल आ क्रमशः छोट-छोट शहर दिस पसरल आ गाम दिस सेहो गेल। मनोवैज्ञानिक स्तर पर मध्यवर्ग असंतुष्ट, अनिश्चित, आत्म-प्रदर्शनकारी, खौंझायल, निराश आ कुंठित होइत गेल।

‘भफाइत चाहक जिनगी’क कथावस्तु एहने मध्यवर्गक, वा ई कही जे निम्न मध्यवर्गक तँ बेसी नीक, कथा थिक। नाटकक कथावस्तु विद्यापति पर्व समारोह परिसरक एकटा कातक चाह आ पान दोकान पर शुरुह होइछ आ ओत्तहि समाप्त होइछ। नाटकक नायक महेश मिथिलाक कोनो गामसँ पटना आयल अछि। बेरोजगारीसँ संघर्ष करैत, सामान्य मैथिल युवक सन मात्र नोकरीएटाकें विकल्प बुझबाक अवधारणाकें छोड़ि, ओ पटनामे चाहक दोकान करैत अछि। ई गप्प गाममे ओकर पिताकें नहि  बूझल छनि। उच्च जातिक मैथिल चाहक दोकान करय, ई ककरो सोहाओन होमऽ बला नहि छैक आ तें पर्व परिसरमे ओकर स्टाॅलकें चाहक आर्डर तँ भेटैत छैक मुदा स्वयं ओकरा प्रति पर्व समारोहक कार्यकर्तालोकनिक व्यवहार अवडेरल सन छैक। दर्शक आ श्रोताक आवाजाहीसँ चाह-पानक दोकानक बिक्री शुरुह होइत छैक। लोकक आवाजाहीक क्रममे महेशक ग्रामीण दिगम्बर अभरैत छैक।

दिगम्बर सेहो नोकरीक ताकाहेरीमे पटना आयल अछि। बेकारीक डांग सहैत ओ नोकरीएटाकें विकल्प बूझि बहिनोइक डेरा पर रहि रहल अछि। ओ एखनो एही मान्यतामे जीबि रहल अछि जे उच्च जातिक लेल वणिकक काज अनुचित थिक। मुदा महेश संगक वार्तालाप ओकर मोनकें डोलबैत सन लगैत छैक।

दोसर दृश्य परिवर्तनमे नाटककार मैथिलक कतोक प्रकारक चरित्र स्थापित कयलनि अछि। दिगम्बरक प्रस्थानक बादहिं एकटा दम्पति- उमानाथ आ चन्द्रमा चाहक दोकान पर अबैत अछि। चेतना समितिक पर्व समारोहमे आयल उमानाथ हिन्दीमे महेशसँ संभाषण शुरुह करैछ। ई एकटा सत्य थिक। सत्ये नहि, विद्यापति पर्व समारोहमे आयल उमानाथ सनक इंजीनियर सभक स्वाभाविक भाषा-चरित्र सेहो। महेशक भाषा-प्रेम ओकरा टोकैत छैक आ दुनूमे पहिने टंटे-घंट शुरुह होइत छैक।

जखन ओ दुनू दम्पति चाह पीबाक लेल सुभ्यस्त होइछ, तँ चाहक दाम आ चाहमे चीनी बला संदर्भ एकटा रोचकता उत्पन्न करैत छैक। महेशक मानब छैक जे मैथिल चाह नहि, मीठ पीबैत अछि, तें ओ चीनीक हिसाबसँ चाहक दाम रखने अछि। ई ओहि समयक गप थिक जखन चीनीक बिक्री पर सरकारी आँकुस रहैक। कोटामे भेटैक चीनी तें ब्लैक मार्केटिंग बेसी होइक। ओना ई कहल जाय जे ब्लैकेसँ चीनी भेटैक तँ अतिशयोक्ति नहि।

महेश चाह बनबऽ लगैत अछि तँ माइक पर कवि सम्मेलनक शुरुआतक घोषणा होइत छैक। चन्द्रमा साकांक्ष होइत अछि आ पति उमानाथकें उद्घोषणा दिस ध्यानाकर्षित करैछ, मुदा उमानाथ लेल धन सन। आम मैथिल जकाँ कविता पाठकें कविलोकनिक मेमिअयनी सन बुझैछ ओ। पतिक सांस्कृतिक मान्यतासँ चन्द्रमा आहत होइत अछि। उमानाथ एहन अवसर पर पत्नीक कारणें आ किछु परिचित सभसँ भेंट भऽ जयबाक लोभें अबैत अछि। चन्द्रमा स्वीकारैत अछि जे ओ एकसरि नहि आबि सकैत अछि तें उमानाथ ओकरा संग अबैत छैक।

उमानाथक नजरि ककरो पर पड़ैत छैक आ ओ चाह पीब छोड़ि मंच परसँ बहरा जाइछ, तँ चन्द्रमा महेशकें उमानाथक परिचय छैत छैक- एक हजार पाबऽ बला इंजीनियरक रूपमे। पाइ आ पदक सोझाँ मैथिलत्वक रक्षार्थ अपन चिन्ता आ अवधारणाकें कहैत अछि महेश। तखनहिं पुनः माइक पर उद्घोषणा होइत छैक - ‘‘महेश जी जतऽ कतहु होथि, काव्य पाठक लेल मंच पर चल आबथि। एकर बाद हुनके कविता पढ़बाक छनि।’’

महेश चन्द्रमाकें दोकान देखैत रहबाक बात कहि हड़बड़ायल बिदा होइछ।

महेशकें जइतहिं कार्यकर्ता गोपालजी पान लेबाक लेल मंच पर अबैत अछि। गेनासँ पानक पतौड़ा लेलाक बाद ओ चाहक दोकान पर महेशकें नहि पाबि चिन्तित होइत अछि आ चन्द्रमासँ महेशक मादे पुछैत अछि। संगहि तुरते चाह नहि भेटने बेज्जति भऽ जयबाक बात सेहो कहैत अछि। चन्द्रमा टहला सभसँ चाह बनयबाक लूरि दऽ पुछैत अछि आ अंततः ई सुनि जे गोपालजीकें संगहि चाह लऽ कऽ जयबाक छैक, ओ चाह बनाबऽ लगैत अछि। गोपाल जीकें अचरज होइत छैक। ओ चन्द्रमा आ महेशक सरोकारी बूझऽ चाहैत अछि। चन्द्रमा मुस्किआइत कहैत अछि-‘‘पत्नी नहि, अपन लोक...विश्वासक आधर परक अपन लोक...।’’

गोपालजीकें गेलाक बाद मंच पर एकटा वयस्क आ युवकक प्रवेश होइत अछि। दुनूमे पहिने तँ वैचारिक दुटप्पी होइछ। वयस्क कहैत छथि जे नाटक आ नाच-गानमे बड़का-बड़का जाति आ हाकिमक बहु-बेटी भाग लैत छैक, से हुनका छगुन्ता होइत छनि। एहि बातकें भ्रष्टतासँ जोड़ि कऽ देखैत वयस्क समाजक दिशा पर चिन्तित होइत छथि। मुदा एकर बादो नाच-गान हुनका नीके लगैत छनि। ओलोकनि सेहो चाहक स्टाॅल दिस अबैत छथि। चाहक दोकान पर एकटा भद्र स्त्रीकें देखि फरमाइसक हिम्मति नहि होइत छनि दुनूकें। एहिठाम नाटककार बड़ कौशलसँ गमैया वयस्क आ गामसँ आयल शहरी होइत युवकक मनःस्थितिक प्रतिस्थापन कयलनि अछि। ई मनोवैज्ञानिक स्थिति दर्शककें गुदगुदी लगयबाक प्रयासमे सेहो सफल होइछ। अंततः वयस्के फरमाइस करैते छथि आ हुनक फरमाइसकें पूरा करबाक क्रममे उमानाथ अबैत अछि। चन्द्रमाकें दोकान चलबैत देखि ओ तामसे माहुर भऽ जाइछ। देखार होयबाक कारणें अपन परिचितकें नुका लैछ आ बेंच पर बैसि जाइछ। ओत्तहिसँ चन्द्रमाकें संकेतसँ चलबाक लेल कहैत अछि, मुदा चन्द्रमा सेहो गहिंकीसँ नजरि बचा कऽ महेशक अनुपस्थितिक कारणें अपन असमर्थता व्यक्त करैछ।

उमानाथक संग चन्द्रमा गहिंकीए सन व्यवहार करऽ लगैछ, मुदा ओ व्यवहार कने स्नेहासिक्त होइछ। मुदा ओही अनुपातमे उमानाथक पारा आर गर्म होमऽ लगैत छैक। ओ तामसकें घोंटैतो अछि आ बोकरितो अछि। एही वार्तालापमें वयस्कक टिप्पणी सभ जे प्रयुक्त भेल अछि, से दर्शककें फेरसँ गुदगुदी लगबैत छैक। अंततः उमानाथ धमकी दैत ओतऽसँ बहार भऽ जाइछ आ चन्द्रमा लोकक आँखि बचा कऽ अपन कपार ठोकैत अछि। एकटा आशंका आ उद्विग्नताक कारणें मोनहि मोन डोलऽ लगैत अछि।
तकर बाद दू टा व्यक्ति गंगानाथ आ दयानन्द पंडालसँ बहरा कऽ दोकान दिस अबैत अछि। दुनू पनखौक अछि आ पीक फेकबाक असुविधाक कारणें बेसीकाल पंडालमे रहि नहि पबैत अछि, तें एम्हर आयल अछि। ओकरा दुनूकें समारोह समितिक प्रक्रियासँ असंतोष छैक आ मैथिली भाषा-साहित्यक प्रति आम मैथिलक उदासीनतासँ तामस सेहो। महेश सन चाहबलाकें काव्य पाठक अवसर देबाक कारणें ओ दुनू समितिक खिधांस करैत अछि आ मैथिलीक पोथी आ पत्र-पत्रिका किनबाक नाम पर जऽर लगैत मैथिलक चरित्र विशेषक प्रति तमसाइत अछि। चाहक संग आर-आर कथूक फरमाइसक क्रममे महेशक प्रवेश होइत छैक आ ओकरा देखितहिं मंच परक कविक रूपमे चिन्हबाक प्रयास करैछ।
महेश विलम्बक लेल चन्द्रमासँ क्षमा मंगैछ आ ओकरा प्रति कृतज्ञता सेहो ज्ञापित करैछ। माइक परक उद्घोषणाक बात स्मरण रखैत चन्द्रमा कहैत छैक जे ओ महेशक मादे बूझि गेल छलि जे ओकर चाहक दोकान मात्र जीवकोपार्जन लेल छैक, पहिने ओ मूलतः कवि अछि। एते कालक दोकानक हिसाब-किताब महेशकें दैछ।

एक-दोसराक संग वार्तालापक संगहि महेश दोकानक काज करऽ लगैत अछि आ चन्द्रमा स्टाॅलक भीतरमे कुर्सी लगा कऽ बैसैत अछि। हरिकान्त आ शिवानन्द नामक दू गोट पात्र आबि कऽ बैसैत अछि बेंच पर। ई दुनू बहरिया लोक अछि, जे पटनाक विद्यापति पर्व समारोह देखऽ आयल अछि आ सिनेमाक गीतक भास पर विद्यापति गीत सुनि कऽ क्षुब्ध अछि। एहिमे एकटा पात्र हरिकान्त संस्कृतिकें भसिया जयबाक चिन्तासँ ग्रसित सेहो अछि।

दुनू पात्रक बीच संस्कृतिक पुरातन आ अधुनातन स्वरूप पर चर्च शुरुह होइत छैक जे राजनीति पर अबैत छैक। दयानन्द आ गंगानाथ एहि गप्पमे सम्मिलित होइत अछि। कांग्रेस आ विरोधी दलक शासनक समयमे मिथिलाक स्थिति पर बहस होमऽ लगैत छैक जकरा पर पानि ढ़ारल जाइत अछि गोपालजीक प्रवेशसँ। गोपालजी समिति द्वारा प्रकाशित पोथी सभ लऽ कऽ अबैत अछि आ हिनकालोकनिसँ पोथी किनबाक लेल आग्रह करैत अछि। पोथी किनबा लेल ओलोकनि एक-दोसराकें उकसाबैत छथि। मात्र शिवानन्द एकटा पातर सन पोथी कीनैत अछि। मुदा महेश आ चन्द्रमा प्रकाशित सभटा पोथीक एक-एक प्रति कीनैत अछि। दुनू सेट पोथीक दाम चन्द्रमा दैत अछि, मुदा महेश अपन कीनल पोथीक दाम स्वयं दैत अछि। चन्द्रमाक अनुनय जे ओ उपहारमे पोथी दऽ रहलि अछि, कें नहि स्वीकारैछ महेश। ओ कहैत अछि जे मैथिलीक पोथी कीनियेटा कऽ पढ़ि सकैत अछि। ओकर संकल्प छैक जे मैथिलीक पोथी उपहारमे वा मंगनीमे नहि पढ़त। अंततः दुनू लालटेमक इजोतमे पोथी उनटाबऽ लगैत अछि।

ताबते महेशक सहपाठिनी सरिता धड़फड़ायलि मंच पर अबैत अछि। ओ महेेशेक नोट्ससँ पढ़ि कऽ एम.ए. मे फस्र्ट क्लास फस्र्ट भेल छलि आ आब एकटा आइ. ए. एस.क पत्नी अछि। संगमे नोकर छैक- एकटा गुलथुल नेनाकें कोरामे नेने। पति नहि छैक संगमे। ओ कार्यक्रम देखबाक हड़बड़ीमे अछि, मुदा चाह पीबा लेल बैसबाक उद्यत होइतहिं महेशकें चिन्हि जाइत अछि। महेश ओकरासँ अपन परिचिति नुकयबाक बात कहैत अछि। ओ एतेक धरि कहैत अछि जे ई स्टाॅल चन्द्रमाक छैक आ ओ नोकर अछि, मुदा चन्द्रमा ओकर बातकें कटैत अछि। तकर बाद दुनू स्त्री अपन-अपन विवशताक बखान करैत अछि। सरिताक पतिकें पलखति नहि छैक जे ओ आकरा संग घुमय। ओकरा टूरे-टूर रहैत छैक। चन्द्रमाक पति संग आयल छलैक, तमसा कऽ चलि गेलैक, तें ओतऽ लटकलि अछि। सरिताक आग्रह जे ताबत पंडालमे जा कऽ किछु देखय-सुनय, कें सेहो पतिक डरें स्वीकारि नहि पबैछ चन्द्रमा।

महेश आ सरिताक बीच अतीत आ वर्तमानक चर्च सभ होमऽ लगैत छैक। एही बीच दिगम्बर अबैत अछि आ महेशकें काव्य पाठक लेल बधाइ दैत छैक आ कहैत छैक-‘‘आब अहाँक दिन घुरि जायत। सभ चिन्हिये गेल। कतहु-ने-कतहु नोकरी लागिए जायत।’’ मुदा महेश नोकरीकें अपन अभीष्ट नहि होयबाक बात बेर-बेर मोन पाड़ैत छैक दिगम्बरकें। ओकर अभिप्राय इहो छैक जे जें लोक नोकरीकें अभीष्ट बुझैए तें बेकारी छैक। जीविकाक संदर्भमे महेशक ई संवाद (पृष्ठ-6) एकटा प्रतिमान ठाढ़ करैछ- ‘‘जें आइ सभ नवयुवकक लक्ष्य नोकरिये भऽ गेलैए, तें सभतरि निराशाक वातावरण बनि गेल छै। चाही ई जे नोकरियोकें  एक साधन बुझल जाय। जेना ई संसार अनन्त अछि, तहिना साधनो असीमित छैक। मोनकें एके खुट्टासँ बन्हने रहब मनुक्खक मर्यादाकें आ ओकर सामथ्र्यक अपमान करब थिक।’’

दिगम्बरकें गेलाक बाद तुरते सरोष उमानाथक प्रवेश होइत छैक। ओ महेशक हाथसँ चाहक कप-प्लेट छीनि नीचाँमे पटकि दैछ आ ओकर गट्टा पकड़ि कुरसी दिस लऽ जाइछ। उमानाथकें एहिबातक तामस छैक जे महेश ओकर पत्नीसँ बहिकिरनीक काज करौलक अछि। लगैत छैक जे उमानाथ बुतें कोनो नमहर घटना भऽ जयतैक। तखने चन्द्रमा अपन पतिकें टोकैत अछि। सरिता सभ किछु अपरतिभ भऽ देखैत रहैछ। चन्द्रमा पतिकें कहैत छैक जे चाह बना कऽ पिऔने लोक छोट नहि भऽ जाइछ। ओहो घरमे चाह बनबैत अछि। उमानाथ महेशकें छोड़ि तँ दैत अछि मुदा एक्कहु क्षण ओतऽ ठाढ़ होमऽ नहि चाहैत अछि। चन्द्रमाकें चलबाक लेल कहैत अछि। सरिताक आग्रह होइत छैक जे चलि कऽ प्रोग्राम देखल जाय, मुदा ओ नाटकक प्रति अपन इंटरेस्ट नहि होयबाक बात कहैत अछि। ताबते महेश एक कप चाह उमानाथ आ दोसर चन्द्रमा दिस बढ़बैत अछि। उमानाथ चाह पीबऽ नहि चाहैछ। चन्द्रमा कहैत छैक जे प्रेमसँ दैत छथि, पीबि लियौ। सरिता सेहो अनुरोध करैछ। महेश सरिताक मादे कहैछ जे ई दोकान हिनके छनि, मुदा सरिता बातक खंडन करैछ जे दोकान महेशक छैक आ महेश ओकर काॅलेजक सहपाठी छैक। उमानाथकें अचरज होइत छैक। ओकरा मुँहसँ बहराइत छैक्- ‘‘पढ़ल-लिखल युवक आ चाहक दोकान....।’’

ताबते नेपथ्यसँ उद्घोषणा होइत छैक- ‘‘आब अपनेलोकनिक समक्ष प्रस्तुत अछि श्री सुधांशु शेखर चैधरीक लिखल मैथिली नाटक- भफाइत चाहक जिनगी।’’

सरिता हड़बड़ायलि जाइत-जाइत महेशकें कहैछ जे ओ घुरति तँ पाइ दऽ देति आ महेश ओकरा दिससँ सेहो चाह पीबि लिअय।

महेशकें छोड़ि सभ गोटें मंच दिस जाइत अछि। नाटक एतहि समाप्त होइछ।

एहि तरहें यैह कहल जा सकैछ जे ‘भफाइत चाहक जिनगी’क कथावस्तु एकटा आम मध्यवर्गक जीवनक कथावस्तु थिक। एहिमे जीवन संघर्ष, सांस्कृतिक संघर्ष आ सामाजिक-राजनीतिक संघर्षकें बड़ कौशलसँ स्थापित कयलनि अछि नाटककार। ई कथावस्तु सोझाँ-सोझी बड़ सहज आ सरल लगैछ, मुदा अपन अन्तर्निहित व्यंग्यकें सेहो धरगर बनौने अछि। भफाइत चाह पर जीबाक लेल अहुरिया कटैत जनक भीतरमे बैसल लोककें चिन्हबाक लेल बाध्य करैछ ई नाटक। आजुक सभसँ पैघ सामाजिक संकट थिक- मनावताकें जोगा कऽ राखब आ एहू परिप्रेक्ष्यमे ‘भफाइत चाहक जिनगी’ आइयो प्रासंगिक अछि।

स्त्री पात्र आइयो मैथिली रंगमंचक एकटा चैलेंज अछि। आइयो मैथिली रंगमंचकें स्त्री पात्रक ओहिना अभाव छैक जेना पहिने रहैक। पटना सन शहरक किछु स्थापित नाट्य-संस्थाकें स्त्री पात्रक अभावमे नाट्य-प्रस्तुति बन्न करऽ पड़ैत छैक। कलकत्ता सन महानगरमे एखनहुँ बंगाली स्त्रीक खगता होइते छैक मैथिली रंगमंचकें। एहना स्थितिमे आइसँ करीब बत्तीस-तैंतीस बर्ख पहिने जखन 1974 ई. मे ‘भफाइत चाहक जिनगी’क मंचन भेल आ लेखक एहि नाटकक रचना कयलनि, तखन निश्चये हुनका सोझाँ स्त्री पात्रक अकालक बात रहल होयतनि। मुदा एहि मानेमे शेखरजी कोनो समझौता नहि कयलनि अछि एहि नाटकमे। कथानकक अनुसार दूटा स्त्री पात्रक सृजन कयलनि अछि। आइयो जे नाटक लिखल जा रहल अछि, ताहिमे स्त्री पात्रक संख्या औसत दू या तीनटा होइछ। ई सृजन आइयो महिला कलाकारक अभावकें ध्यानमे रखैत होइत अछि।
‘भफाइत चाहक जिनगी’मे दू गोट नारी चरित्र आयल अछि- चन्द्रमा आ सरिता। चन्द्रमा एहि नाटकक मुख्य पात्री अछि। चन्द्रमा एकटा इंजीनियरक पत्नी अछि आ मैथिली भाषा-साहित्य पढ़ने अछि। तें ओकरा मैथिलीक सांस्कृतिक कार्यक्रम आ कवि सम्मेलन आदिसँ रुचि छैक। मैथिलीक पोथी पढ़बामे सेहो रुचि छैक। चन्द्रमाक चरित्रकें गढ़बामे लगैछ जे नाटककार अपन दूरदर्शिताक परिचय देलनि अछि। कारण, जाहि कालखंडक ई नाटक थिक, ओहि समयक मैथिलानी चन्द्रमा सनक चरित्र कनेक अस्वाभाविक लगैछ। जेना - ओ एतेक बोल्ड नहि अछि जे एकसरि विद्यापति पर्व देखऽ आबि सकैत अछि, मुदा एकटा अपरिचित चाहक दोकानदार महेशक अनुपस्थितिमे ओकर स्टाॅल पर चाह बनाबऽ लगैछ...दोकान चलाबऽ लगैछ। अनचोके एतेक बोल्ड भऽ जायब अस्वाभाविक सन लगैछ। नाटकक अंतिम चरणमे चन्द्रमाक एकटा संवाद, जे ओ सरिताकें कहैछ, एहि अस्वाभाविकताक पुष्टि करैछ - ‘‘अहाँ नहि चिन्है छियनि हुनका। हुनकर इच्छाक विपरीत जँ हम किछु कऽ ली तँ ताहि दिन अनर्थे बुझू।’’
पाठक/दर्शकक सोझाँ एकटा प्रश्न ठाढ़ भऽ जाइत छैक- जाहि स्त्रीकें अपन पतिक इच्छाक विरुद्ध जयबाक एतेक भय छैक ओ एकटा अपरिचितक चाहक दोकान चलयबाक साधंस कोना कयलकि? जँ ई मानि लेल जाय जे महेशक ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ वा मैथिलत्व चन्द्रमाकें प्रभावित कयने होइक वा महेशकें कविता पढ़बाक आमंत्रणक ध्वनि माइक पर सुनब आ महेशक आकस्मिकताक संग प्रस्थान करबसँ चन्द्रमा प्रायः बूझि गेलि जे महेश कवि अछि, जकर खुलासा ओ नाटकक पृष्ठ 19-20 पर कयलकि अछि वा महेशक व्यक्तित्वक इहो भाग जँ चन्द्रमाकें प्रभावित कयने होइक, तैयो चन्द्रमा द्वारा चाहक दोकान चलायब सनक साधंस अस्वाभाविक लगैछ।

जँ नाटककार चन्द्रमाक एहि कार्य-व्यापारकें कतोक बर्खक बादक मैथिलानीक रूपमे प्रस्तुत कयलनि अछि वा नाटकक कथातत्वक उत्प्रेरकक रूपमे गढ़लनि अछि, जाहिसँ वयस्क आ युवकक चरित्र...गंगानाथ आ दयानन्दक चरित्र चमकि सकैक, तँ दोसर बात।
नाटकक दोसर स्त्री पात्र सरिता एकटा आइ.ए.एस.क पत्नी अछि आ नायक महेशक सहपाठिनी सेहो। महेशेक नोट्ससँ पढ़ि ओ टाॅपर भेलीह अछि। महेशक स्थितिसँ आहत होइछ सरिता। मुदा ओकर अपनो आन्तरिक दुख कम नहि छैक। एहि पात्रक गढ़नि बड़ स्वाभाविक रूपसँ भेल अछि।

स्त्री-विमर्शक दृष्टिएँ देखने लगैछ जे ‘भफाइत चाहक जिनगी’क दुनू नारी पात्र एक्के दंशमे जीबि रहल अछि। दुनू सुशिक्षिता आ सम्पन्न परिवारक होइतहुँ पति परमेश्वर रूपी लक्ष्मण रेखामे सिसकैत रहबाक लेल अभिशप्त अछि। चन्द्रमाक चाह दोकान परक क्रिया-कलापकें एहि लक्ष्मण रेखासँ बहरयबाक मनोवैज्ञानिक प्रतीकक रूपमे लेल जा सकैछ, मुदा आगाँ जा कऽ इहो भ्रम बनि जाइत अछि।

प्रस्तुत नाटकमे पात्रक परिवेशगत आम जनक भाषाक प्रयोग कयल गेल अछि। भाषाक प्रयोगमे नाटककार सुधांशु शेखर चैधरी निष्णात छलाह आ नाटकहुमे हुनक ई विशेषता परिलक्षित होइत अछि। छोट-छोट आ सटीक संवाद एहि नाटकक गुणवत्ताकें बढ़बैत अछि। ओहुना शेखर जीक सम्पूर्ण नाट्य-लेखनकें बदलैत सामाजिक, राजनैतिक आ मानवीय सम्बन्धक संदर्भमे उचित नाट्य-भाषाक खोज कहल जा सकैछ। हिनक नाटक सभमे उचित नाटकीय शब्द आ संवादमे ओकर उचित आ सार्थक स्थान ताकबाक छटपटाहटि आ प्रयोगशीलता देखल जाइछ।
‘भफाइत चाहक जिनगी’मे आजुक मध्यवर्गीय मैथिल जीवनक सूक्ष्म आ जटिल अनुभव, अनुभूत आ अर्द्ध अनुभूत संवेदना आ बहुआयामी वैविध्यपूर्ण परिस्थितिमे जीबैत पात्र सभक मनःस्थितिकें मुहाबरा आ आमलोकक सृजनात्मक भाषामे सफल नाटकीय अभिव्यक्ति भेटलैक अछि। यथा- पोथीक पृष्ठ 2 पर महेशक संवाद- ‘‘एखनि तँ बियनिक मारि लगलौए, मारि लातसँ पटहा कऽ देबौ।’’ पृष्ठ 16 पर गंगानाथक संवाद- ‘‘हमरा तँ देह जरऽ लगैए, जखन लोककें दिन-राति मैथिली-मैथिली रटैत देखैत छिऐ आ जखन मैथिलक काजक असली बेर भेलै कि सटक सीताराम।’’ पृष्ठ 18 पर दयानन्दक ई संवाद देखल जा सकैछ- ‘‘देखियौ ने, केहन घुट्ठीसोहार भऽ रहल छै।’’

‘भफाइत चाहक जिनगी’क भाषाक एकटा विशेषता इहो छैक जे एहिमे प्रचलित आ पारंपरिक पैघ-पैघ प्रतीकक प्रयोग नहि कऽ आम जिनगीक दैनन्दिनीमे प्रयुक्त साधारण वस्तु सभकें गहींर आ नव अर्थ दऽ प्रतीकक गरिमा प्रदान कयल गेल अछि। जेना चन्द्रमाकें चाहक दोकान पर देखि वयस्क आ युवक द्वारा फरमाइस करबामे असोकर्य। ई एकटा छगुन्ताक संग ‘इनफेरिटी’क गप्प सेहो कहैत अछि। एहने सनक स्थितिक प्रयोग ओत्तहु जतऽ गंगानाथ आ दयानन्द चाहक स्टाॅल दिस अबैत अछि। चन्द्रमाकें देखि आनन्द मेलाक भ्रम होइत छैक आ वयस्ककें चाहक दोकान पर बैसल देखि दयानन्दक संवाद- ‘‘नः। देखै नै छियनि बूढ़कें चाह सुरकैत। चलू एकदम निडर भऽ कऽ।’’
शब्द स्वयंमे महत्वपूर्ण नहि होइछ, ओकर अपन पड़ोसिया शब्दक संग सम्बन्ध, संदर्भ आ प्रयोग ओकरा अर्थपूर्ण बनबैत छैक। तें नव-नव शब्द आ वाक्यांशसँ संवाद गढ़बाक अपेक्षा ओकर संदर्भ-लय आ नाटकक चरित्रक आंतरिकतासँ उपजैत लयक अनुसार भाषा सृजन आ संवाद लेखन सेहो नाटककें महत्वपूर्ण बनबैत छैक आ नाटककारकें भीड़सँ फराक ठाढ़ कऽ ओकर महत्ताकें स्थापित करैत छैक।

‘भफाइत चाहक जिनगी’क बहुलांश संवाद सहज, साधारण आ अभिधात्मक लगैछ, मुदा ओकर व्यंग्यात्मक अर्थ बड़ गहींर आ तिक्ख अछि। किछु संवादक बानगी लेल जा सकैछ। महेशक संवाद - ‘‘काल्हि भाषणक फेंट-फाँट छलैक, आइ एकछाहे नाच-गान छियै। गीत-नाद लेल लोक आफन तोड़ने फिरैए।’’ (पृष्ठ 2)।
‘‘अहाँ तँ जुलूम चाह बनबै छी।’’ दिगम्बरक संवाद (पृष्ठ 6)।
‘‘मैथिल चाह तँ नै पिबैए, मीठ पिबैए। कतबो चाहमे चीनी देने रहबै...ऊपरसँ एक वा दू चम्मच आर चाही।’’ महेशक संवाद (पृष्ठ 9)।
‘‘आ धौत्! कविता पाठ। जमा भेल होयता कविकाठीलोकनि...। एखनिसँ मेमिअयता घंटा भरि।’’ उमानाथक संवाद (पृष्ठ -10)।
पृष्ठ 15 पर दयानन्दक संवाद - ‘‘औ जी, एकटा बात बुझलिएै-अए। कहाँदन एकटा चाहो बला आइ कविता पढ़लकै-अए। कहू, मैथिली ने भेल, खेल भऽ गेल...हरही-सुरही सभ कवि भऽ गेल छै।’’ कें देखल जा सकैछ।

नाटकमे संवादक वास्तविक अर्थ चरित्र द्वारा उच्चारित शब्द या वाक्येटासँ नहि होइत छैक। अपितु मौनमे सेहो एकटा संवाद होइत छैक। चरित्र द्वारा ओकर मुख-मुद्रा, भंगिमा आ रंग-चर्यासँ मंच पर बनैत दृश्य बिम्ब सेहो ओकर शाब्दिक संवादक पर्याय होइत छैक। ‘भफाइत चाहक जिनगी-मे मौन भाषाक प्रयोग नहि देखल जाइछ मुदा दृश्य बिम्बक संवादात्मकता बड़ सफलतापूर्वक उकेरल गेल अछि जे एहि कृतिकें महत्वपूर्ण बनबैत अछि।

संरचना माने ओ बनौट जाहिमे नाटककार अपन विषय-वस्तुकें गढ़ैत अछि वा बुनैत अछि। नाट्य शास्त्रक भारतीय आ पाश्चात्य मतक अनुसार नाट्य-संरचनाक एकटा नियम आ सिद्धान्त अछि। नाटकमे कतेक अंक होअय? ओकरा दृश्य सभमे बाँटल जाय वा नहि? जँ बाँटल जाय तँ दृश्य कतेक आ केहन हो? नाटकक आरंभ, मध्य आ अंत केहन हो? कार्य-व्यापारकें कोना संयोजित कयल जाय जे समपूर्ण नाटक धरि पाठक/दर्शकक जिज्ञासा बनल रहैक? तत्व आ अवयव सभक ई अनुपात आ औचित्य कोना राखल जाय जाहिसँ नाटकक उद्देश्य आ प्रभाव खंडित नहि होअय? एहिमे वर्जित दृश्य राखल जाय वा नहि? संकलन-त्रयक केहन आ कतेक महत्वकें स्वीकारल जाय? ओकरा स्वीकारलो जाय वा नहि? एहन बहुत रास प्रश्न सभ छैक जाहिसँ मैथिलीए नहि हिन्दी आ आनो भाषाक प्रत्येक गंभीर आधुनिक नाटककार फिरीसान रहलाह अछि। विभिन्न प्रयोग कऽ अपन रचनाक माध्यमे एकर संगत उतारा ताकबाक प्रयास करैत रहलाह अछि। सुधांशु शेखर चैधरी सेहो एहने प्रयोगधर्मी नाटककार छथि। ओन मैथिलीक अपन एहि पहिल कृति ‘भफाइत चाहक जिनगी’मे ओ स्पष्ट रूपें एहि प्रश्नक उतारा ताकि लेलनि अछि। तकर एकटा इहो कारण भऽ सकैछ जे ओ अपन पर्याप्त रंगमंचीय अनुभव हिन्दी आ बांग्लासँ लऽ कऽ अयलाह आ मैथिलीमे ई नाटक लिखलनि।

मंच पर पात्रक प्रवेश-प्रस्थानक विशेष महत्व होइछ। ओकर प्रवेश-प्रस्थान आ अन्य मंचीय क्रिया-कलाप अतिनाटकीय नहि भऽ कऽ स्वाभाविक आ संप्रयोजनीय होमक चाही। ‘भफाइत चाहक जिनगी’मे प्रवेश-प्रस्थान कलात्मक, नाटकीय आ स्वाभाविक रूपें समायोजित कयल गेल अछि। नाटकमे साफ-साफ दृश्य बन्धक प्रावधान नहि रखलनि अछि नाटककार। तें प्रकाश आ पात्रक आयब-जायबसँ दृश्य आ कथावस्तुक संदर्भकें बदलबाक बात पाठक/दर्शकक सोझाँ अबैत छैक आ नाटक आगाँ बढ़ैत छैक। नाटककार एक बेरमे मंच पर बेसी पात्रक भीड़ जमा करबासँ परहेज कयलनि अछि। कम-सँ-कम पात्रक माध्यमे अपन गप कहबाक नाटककारक प्रयोग सफल भेल अछि। समय, स्थान आ कार्य-व्यापारक एकता ‘भफाइत चाहक जिनगी’क कथ्यकें विश्वसनीय आ प्रभावशाली बनबैत अछि।

विभिन्न प्रकारक ध्वनि आ रंग-चर्याक अर्थपूर्ण आ नाटकीय प्रयोगमे सेहो दूरदर्शिताक परिचय देलनि अछि नाटककार। एहि हेतु स्वयं बहुत निर्देश नहि दऽ निर्देशकक लेल बहुत ठाम सृजित कयलनि अछि जतऽ एकर प्रयोग कऽ नाटककें आओर प्रभावशाली बनाओल जा सकैछ। एक्कहि वस्तु आ चर्याकें विभिन्न प्रकारक प्रयोग कयने सृजित ध्वनिसँ भिन्न-भिन्न अर्थ आ प्रभाव उपजयबाक कतोक ठाम अवसर देल गेल छैक। यथा- कप-प्लेटक ध्वनि, चम्मचसँ चीनी घोंटबाक ध्वनि। कथावस्तुक प्रकृति अनुसार महेश द्वारा चाहमे चीनी मिलायब आ चन्द्रमा द्वारा चीनी मिलयबाक ध्वनिमे परिवर्तन कऽ निर्देशककें नव-नव भावबोधक उपस्थापनाक अवसर भेटि सकैत छैक। कप-प्लेटकें गहिंकी द्वारा बेंचक नीचाँमे रखबाक आ नाटकक अंतमे उमानाथ द्वारा महेशक हाथसँ नीचाँमे रखबाक ध्वनि आ नाटकक प्रारंभमे नेना सभक द्वारा कप-प्लेटक खनखनयबाक ध्वनि फराक-फराक प्रभाव आ अर्थ उत्पादित कऽ सकैछ। ध्वनिक संदभमे तेहने प्रयोग बाल्टीनक पानिसँ मग लऽ कऽ प्लेट धोयबाक आ पानक दोकान बला द्वारा सरोतासँ सुपारी काटबाक सेहो कयल जा सकैछ। संक्षेपमे, ई कहल जा सकैछ जे ध्वनि आ रंग-चर्या सभक सेहो बहुत रास अवसर छैक जकर उपयोगसँ निर्देशक प्रस्तुतिकें उत्कृष्ट बना सकैत अछि।
सार्थक आ महत्वपूर्ण नाटकमे दृश्य-बंध आ मंच-उपकरण मात्र सजयबा लेल नहि होइत अछि। ओ चरित्रक अपेक्षित देश-काल आ विश्वसनीय परिवेशक संग नाटकक मूल मंतव्य आ चरित्रक प्रमुख विशेषताकें सेहो स्थापित करैत अछि। ‘भफाइत चाहक जिनगी’क मंच-उपकरण यथा- चाहक स्टाॅल परक बोइयाम, कप-प्लेट, केटली, चाहक छन्ना, पथरकोइलाक चूल्हि, पान दोकानक आगाँ लटकल एकरंगा, कथ-चूनक बासन, रंग-बिरंगी डिब्बामे कथ-चून-जर्दा, बीड़ी, सिकरेट आ सिकरेट सुनगएबा लेल बरैत डिबिया नाटकक परिवेश आ नाट्य-भाषाक प्रभावी अंग बनि गेल अछि।

वेशभूषा नाटकक रंग-शिल्पक एकटा आवश्यक आ महत्वपूर्ण तत्व होइछ। जेना नाटकक एक-एक शब्द नाटकक सम्पूर्ण कथ्यक लेल अर्थपूर्ण होमक चाही, तहिना वेशभूषाक प्रत्येक भागकें नाटकक अर्थ आ पात्रक चरित्रकें उभारबाक लेल सहयोगी होमक चाही। आ ई तखने भऽ सकैछ, जँ वेशभूषा पात्रक स्वभाव, वर्ग, बयस, सामाजिक स्थिति, व्यक्तिगत पसिनक वस्तु, मनोदशा आ ओकर चरित्रकें ध्यानमे राखि परिकल्पित कयल जाय, संगहि ओहि चरित्रक कोनो-ने-कोनो खास विशेषताकें उभारय। वेशभूषाक परिकल्पना करबा काल रंगक मादे सेहो सोचल जयबाक चाही। रंगक गुण आ ओकर स्थायी भावक संग चरित्रक स्वभाव, मनोदशा आ विशेषता आदि मेल खाइत होमक चाही। ‘भफाइत चाहक जिनगी’मे नाटककार स्वयं ई काज कऽ देलनि अछि, कहबामे बेसी असोकर्य नहि होयत। नाटककार पात्रक वेशभूषाक मादे सेहो कहलनि अछि। जेना- ‘‘पानक दोकानदार थिक गेना जे लुंगी पर खाली गंजी पहिरने रहैत अछि। गोपालजी धोती-कुरता पहिरने अछि आ ओकर कुरता पर समारोहक बैज पिन कयल छैक। दिगम्बर धोती पर बुश-शर्ट पहिरने अछि। धोती तरक ओकर धारीबला अण्डरवेयर ओहिना देखाइत दैत छैक।’’ चन्द्रमा आ उमानाथक वेशभूषाक मादे सेहो लिखैत छथि- ‘‘26-27 वर्षक एक युवती आ 33-34 वर्षक एक युवकक प्रवेश। युवती नील साड़ी, नील ब्लाउज पहिरने आधुनिका सन सजावटिमे अछि आ युवक सूट पर टाइ चढ़ौने।’’

एहिठाम एकटा देखबा योग्य बात ई जे नील रंग प्रारंभिक रंग थिक आ एहि रंगकें ‘कूल कलर’ कहल जाइत छैक। एहि रंगक कतोक स्थायी भावमे एकटा थिक शान्ति। चन्द्रमाक पात्रक स्वभावसँ एहि रंगक स्थायी भाव मेल खाइत छैक तें नाटककार ओकरा ओही रंगक परिधान पहिरौलनि अछि। नाटकमे वयस्क आ युवकक प्रवेशक समय नाटककार परिचय दैत छथि जे वयस्क ग्रामीण छथि आ युवक कालेजक छात्र। गंगानाथ आ दयानन्दक बयस 30-32 वर्षक। गंगानाथ धोती आ कमीज पहिरने अछि आ दयानन्द पैण्ट-बुशशर्ट। हरिकान्त खादीक धोती-कुरता आ शिवानन्द पैण्ट-बुशशर्ट पहिरने। हरिकान्तक बयस 40 वर्षक आ शिवानन्द तीसक करीब। तहिना सरिताक मादे नाटककार लिखैत छथि- एकटा सम्पन्न महिला। जें कि नाटकमे समय, स्थान आ कार्य-व्यापारमे कोनो परिवर्तन नहि होइत छैक, तें पात्रे वेशभूषाक परिवर्तनक खगता नहि लगैछ।

कहबाक तात्पर्य ई जे ‘भफाइत चाहक जिनगी’मे वेशभूषा सम्बन्धी विचार हेतु बेसी काज जे निर्देशकक भागक होमक चाही से नाटककार स्वयं कऽ देलनि अछि। तकर अतिरिक्तो निर्देशकक लेल बहुत रास स्थान छोड़ने छथि, जतऽ ओ अपन कौशलक परिचय दऽ सकय। तकर कारण एकटा इहो कहल जा सकैछ जे शेखर जीकें मैथिली रंगमंचक सीमा बुझल छलनि।

‘भफाइत चाहक जिनगी’मे शेखर जी प्रकाश-व्यवस्था सम्बन्धी रंग-निर्देश मात्र नाटकक अंतमे दैत छथि- ‘‘मंच पर क्रमिक अन्हार होइत अछि।’’ जेना कि कहल गेल अछि जे मैथिली रंगमंचक सीमा बुझल छलनि शेखरजीकें, तें प्रायः नाटकक पूरा छायालोकक परिकल्पना निर्देशकक लेल छोड़ि देलनि अछि। एकर माने इहो भऽ सकैछ जे एकर नाट्य-मंचन सरल भऽ सकय। गामघरमे पेट्रोमैक्स पर सेहो एकर मंचन भऽ सकय आ अधुनातन शहरी रंगमंच पर सेहो एकर मंचनमे छायालोकक पूरा-पूरा प्रयोग कयल जा सकय। नाटकमे बहुत ठाम प्रकाश-वृत्त (स्पाॅटलाइट्स)क प्रयोगक संगहि आन-आन छायालोकीय प्रयोगक संभावना छैक। प्रकाशक संग रंग-संयोजनसँ नाटकक चारित्रिक गुण आ कथावस्तुक ग्राफकें प्रस्तुत कयल जा सकैछ...पात्रक मनोदशाकें उभारल जा सकैछ।

छायालोकक परिकल्पने जकाँ नाट्य-संगीतक मादे सेहो नाटककार चुप छथि। इहो काज ओ निर्देशकेक लेल छोड़ि देने छथि। मुदा पूरा नाटकमे नाट्य-संगीतक प्रयोग हेतु बहुत रास अवसर देलनि अछि नाटककार।

अन्तमे ई कहल जा सकैछ जे ‘भफाइत चाहक जिनगी’ मैथिली नाटक आ रंगमंचक विकासक मोड़ पर अपन सार्थक योगदान देलक अछि, संगहि ग्रामीण आ शहरी रंगमंच पर सेहो एकर सफलतम प्रस्तुति हेतु ठोकि-ठठा कऽ नाट्य-तत्व सभक प्रयोग कयलनि अछि नाटककार सुधांशु शेखर चौधरी ú
     बेगूसराय/19/02/2007

Saturday, September 23, 2023

जल प्रबंधनक चिन्ता आ मैथिली साहित्य




जल प्रबंधनक चिन्ता आ मैथिली साहित्य

प्रदीप बिहारी
(ई आलेख 'मैसाम' दिल्लीक वार्षिक कार्यक्रम 2018 ई मे पढ़ल गेल छल।)

एकटा अद्भुत विषय पर बाजबाक लेल ठाढ़ भेल छी। जल प्रबंधनक चिन्ता एखनि ग्लोबल विषय अछि। एकरा मैथिली साहित्यमे ताकब उत्साहबर्द्धक लगैत अछि। उत्साहबर्द्धक एहि दुआरें जे जतेक चिन्ता आ चिन्तन एहि बात लेल मैथिली साहित्यमे कएल गेल छैक आ जतेक नहि छैक, से करबाक खगता आबि गेल छैक। तें,
एखनि एहिठाम ठाढ़ छी, तँ सभसँ पहिने आदरणीय सोमदेवक ई पाँति मोन पड़ैत अछि-

पग-पग पोखरि माछ मखान
सरस बोल मुस्की मुख पान
विद्या वारिधि शान्ति प्रतीक
सरितांचल श्री मिथिला थीक

आजुक परिदृश्यमे एखनि ई सोचबा लेल वाध्य भेल छी जे की मिथिला सरितांचल रहि गेल अछि? संभवतः नहि। पोखरि सूखि रहल अछि। सूखि कऽ वासडीह बनि रहल अछि। माछ आब आंध्रप्रदेश बला भेटैत अछि। आ मखान जे किछु होइए, से खट्टी (बेपारी) लऽ जाइत अछि। मूल रूपें ई कही जे पोखरिए नहि, तँ ई सभ कतऽ?
पोखरि नहि माने, ई नहि जे पोखरि उकनि गेल मिथिलासँ। मुदा वर्तमानमे जे पोखरि बाँचल अछि, तकर संख्या गनल-गुथल अछि। तकरा नहिए सन मानल जा सकैत अछि। जे अछियो, से सुखयबा लेल वाध्य अछि। बरखा कम होइत छैक। गाछ-बिरिछक संख्या कमल जाइत छैक। पोखरि डबरा बनल जाइत अछि। आब गामघरमे घनगर बंसबिट्टी आ घनगर गाछी कम्मे रहि गेल अछि। लोक रोजगार लेल गाम छोड़ि रहल अछि। पोखरि आ इनार अनाथ भऽ गेल अछि।
मैथिली लोकगीत सभमे सुनैत रहैत छलहुँ- ‘फल्लाँ बाबा पोखरि खुनौलनि...’ से आ अभिलेखक बात भऽ गेल अछि। अपन बेटा-बेटी आ पोता-पोती सभकें खिस्सा सन सुनयबा योग्य। जँ ओ पूछि देलक जे फल्लाँ बाबा बला पोखरि कतऽ छैक, से किछु बरखक बाद किनसाइत मानचित्रो पर नहि भेटत।

इनार। पहिने गाम सभमे जलक मूल स्रोत इनार छल। जेना-जेना गामक लोक सभ सामर्थ्यवान होइत गेलाह, गाममे कऽल गराय लागल आ इनारक उपेक्षा शुरुह होमऽ लाग। नहूँ-नहूँ इनार गामक ‘डस्टबिन’ बनैत गेल आ ओकर भत्थन होइत गेलैक। गामघरमे एखनो जे इनार बाँचल अछि, से प्रायः मृतप्राय अछि। बर्खो-बर्खसँ उड़ाहल नहि गेल अछि।

विकासक संग लोक सुकमार होइत गेल अछि। पाचन तंत्र कमजोर होइत जाइत छैक। कतोक प्रकारक प्रदूषणमे जीबाक लेल वाध्य अछि। जीअब जरूरी छैक। प्राण-रक्षा जरूरी छैक। इनारसँ कऽल आ आब डिब्बा आ बन्न बोतल बला पानिक चलन गामोमे भेल जा रहल छैक। गामक लोेक लेल कऽलक पानि सेहो प्रदूषित भेल जा रहल छैक। ओना गामघरमे देखाउँसे सेहो कऽलक पानि प्रदूषित कएल जा रहल छैक। गाममे कृषिसँ आय घटलैक अछि आ नगदीक आमदनी बढ़लैक अछि। घर-घरमे टी.वी. होइत जा रहल छैक। टी.वी. परक विज्ञापन लोककें आकर्षित करैत छैक। प्रायः तें, कऽलक पानि प्रदूषित भऽ रहल छैक।

गाम प्रगति कयलक अछि। गामक स्वरूप शहरी भेल जाइत छैक। शहरक सभटा लाभ-हानिकें स्वीकारबा लेल मिथिलाक गाम मानसिक रूपें तैयार भेल जा रहल अछि।

कविवर चन्दा झाक ई पाँति हम उल्लेख करऽ चाहैत छी-
गंगा बहथि जनिक दच्छिन दिस, पूर्व कौशिकी धारा।
पश्चिम बहथि गण्डकी, उत्तर हिमावत विस्तारा।।
कमला, त्रियुगा, अमृता, धेमुरा, वागमती कृत सारा।
मध्य बहथि लक्ष्मणा, से मिथिला विद्याधारा।।

कविवर चन्दा झा एहि तरहें मिथिलाक चैहद्दी बतबैत छथि। माने मिथिला चारूदिस नदीसँ घेरायल अछि। से साँचे हमरालोकनि नदीक संस्कृतिमे जीबैत छी। आ मरितो छी। मिथिलाक नदी सभ एक-दोसरासँ जुड़ल छैक। मैथिलीक लब्धप्रतिष्ठ रचनाकार मणिपद्म एकठाम (उपन्यास ‘दुलरा दयाल’ मे) लिखने छथि जे जेना मनुक्खक देहमे नसक प्रणाली होइत छैक, तहिना कोनो देशमे नदीक। तें नदीकें निर्वाध होयब आवश्यक। हुनक उपन्यास ‘दुलरा दयाल’मे एकटा संदर्भ अछि- मानसिंह कमलाक धारकें अवरूद्ध करऽ चाहैत छल। ओ बखरीक डाइन बहुरा गोढ़िनक बेटी अमरावतीसँ बियाह कऽ बखरी पर अपन आधिपत्यक सपना देखि रहल छल। मुदा, अमरावती भरौड़ाक दुलरा दयालकें मोने मोन वरण कऽ चुकलि छलि। ओ चाहलक जे कमलाक धारकें अवरूद्ध कऽ देल जाए जाहिसँ जल-व्यापार आ अर्थ व्यवस्था प्रभावित भऽ जाइक। आ तें ओ पिच्छड़ पहलमानकें पटिऔलक। पिच्छड़ पशुवध कऽ ओकर रक्त-मासु अपन देहमे लेपि लैत छल आ हाड़कें कमलाक धारमे फेकि दैत छल। गाछ सभ उखाड़ि कऽ धारमे फेकि दैत छल। ओकरा देहक दुर्गन्धक कारणें कोनो मल्ल ओकरासँ युद्ध नहि करैत छल। जखन धार अवरूद्ध होमऽ लगलैक, तँ दुलरा दयालक मदतिसँ ओकर पित्ती पिच्छड़क वध कयलक।

कथा बहुत छैक। मुदा, उल्लेख करबाक उद्देश्य ई जे जल प्रबन्धनक चिन्ता मणिपद्मक एहि उपन्यासमे एहि तरहें आयल अछि।
हमरा जनैत उपलब्ध संसाधनक कुशलता आ प्रभावपूर्वक उपभोग कऽ कयल जाइ बला काज, जाहिसँ लक्ष्यक प्राप्ति भऽ सकय, प्रबंधन थिक। जल प्रबंधनक अभिप्राय सेहो सैह थिक। आ ई प्रबंधन जँ ठीकसँ नहि भऽ सकल, तकर कतोक दुष्परिणाम बहराइत अछि। नदीक जलक संदर्भमे एहन दुष्परिणाम मिथिला खूबे भोगलक अछि आ भोगि रहल अछि। आ एकर चिन्ता मैथिली साहित्यमे जतेक अयलैक अछि, से यथेष्ट नहि अछि।

मैथिली साहित्यमे यातना आ यंत्रणा सहैत लोक आ बान्ह पर जीवन बितबैत लोकक वेदना प्रमुखतासँ आयल अछि।

तटबन्धसँ कमलोकें बान्हल गेलनि अछि आ कोसीकें सेहो। मुदा, स्थिति ई छैक जे दुनू क्षेत्रक लोक एहिसँ सुखी नहि भऽ दुखिए छथि। बागमती-गंडक क्षेत्रमे सेहो तटबन्धसँ खतरा बढ़लैक। तकर इहो कारण जे समय-समय पर बान्हक यथोचित आ इमानदार मरम्मति नहि भऽ पौलैक। रखरखाब दरिद्राह रहलैक।

कोसी बताहि भेल साले-साल धार बदलैत छथि आ गामक गाम पोछि लैत छथि। कहल जाइत अछि जे मैथिली-हिन्दीक रचनाकार मायानन्द मिश्रक गाम ‘बनैनिया’ आब कतहु अछिए नहि। कोसीक पेटमे विलीन भऽ गेल अछि। एहन कतोक गाम ओहि क्षेत्रक अछि।

मैथिलीमे कमला, कोसी आ आन-आन नदी पर बड़ थोड़ काज भेल अछि। मैथिलीमे जतेक लिखल गेल अछि, ओतेक वा कने बेसीए हिन्दीमे लिखल गेल अछि, सेहो मिथिलेमे रहनिहार लेखक सभ द्वारा। विभूति भूषण मुखोपाध्याय बांग्लामे लिखलनि- ‘कुसी प्रांगणेर चिठी’, जकर अनुवाद मणिपद्म ‘कोसी प्रांगणक चिट्टी’क नामसँ कयने छथि। डाॅ. धीरेन्द्रक उपन्यास ‘ठुमुकि बहू कमला’ आ राजकमल चौधरी कथा ‘अपराजिता’मे एहि दर्द आ चिन्ताकें देखल जा सकैत अछि। रामकृष्ण झा ‘किसुन’क कविता ‘कोसीक बाढ़ि’, सुभाष चन्द्र यादवक कथा ‘परलय’, नारायणजीक कथा ‘कोसी’, एहि पाँतिक लेखकक कथा ‘औतीह कमला जयतीह कमला’ , साकेतानन्दक उपन्यास ‘सर्वस्वाँत’, पंकज पराशरक उपन्यास ‘जल प्रांतर’, सुरेन्द्रनाथक उपन्यास ‘उसरगल लोक’ प्रभृति रचना सभमे चिन्ता आ चिन्तनकें तकने पाठक निराश नहि होयताह। एहि विषय पर नरेन्द्र झा जीक सेहो महत्वपूर्ण काज मैथिलीमे छनि।

हिन्दीमे मायानन्द मिश्रक उपन्यास ‘माटी के लोग सोने की नैया’, कोसी क्षेत्रक मलाहक जीवन पर केन्द्रित नागार्जुनक उपन्यास ‘वरुण के बेटे’, हेमन्त-रणजीवक ‘जब नदी बंधी’, डाॅ ओम प्रकाश भारतीक ‘नदियाँ गाती हैं’, पुष्य मित्रक ‘रेडियो कोसी’, तेज नारायण खेड़वारक ‘धेमुरा दाइ को किसने मारा?’ आ ‘कौशिकी कछार पर’ आदि पोथी सभमे सेहो जल प्रबन्धक चिन्ता देखल जा सकैछ।

एकर अतिरिक्त आर छिटफुट रचना सभ भेल अछि, जे विभिन्न पत्र-पत्रिकाक माध्यमे आयल अछि। मुदा, ताहूमे रचनाक मूलमे बाढ़िक विभीषिका, बाढ़िसँ प्रभावित लोकक दुख, विपत्ति आ करुणा मुखर भेल अछि। सरकारक प्रति आक्रोश मुखर भेल अछि।

रचनाकार जखन कोनो रचना करैत छथि तँ पहिने विषय आ परिस्थिति हुनका मथैत छनि, तकर बाद ओहो ओकरा मथैत छथि। एकटा स्वाभाविक चिन्ता हुनका मोनमे उपजैत छनि। तेहन चिन्ता उपरोक्त रचना सभमे वर्णित अछि, मुदा ओ चिन्ता मूल नहि बनि सकल अछि। हँ, किछु पोथी चर्च हम करऽ चाहब। जेना, साकेतानन्दक उपन्यास ‘सर्वस्वांत’ आ पंकज पराशरक ‘जल प्रांतर’। एहि दुनू उपन्यासमे जल प्रबंधनक चिन्ताकें मुखर करबाक प्रयास कयल गेल अछि। ‘जल प्रांतर’मे पंकज पराशर ‘पढुआ कका’ नामक एकटा पात्र गढ़लनि अछि, जे एहि चिन्तासँ साकांक्ष करबा लेल लेख लिखैत छथि। देशक हिन्दी-अंग्रेजी पत्र-पत्रिकामे हुनक लेख छपैत छनि। मुदा, हुनक बात सरकार धरि जाइत छनि वा नहि से स्पष्ट रूपें उपन्यासमे वर्णित नहि अछि। मुदा, हुनका दू गोट धमकी देबऽ अबैत छनि जे ओ एहन लेख नहि लिखथि। ओहि दुनूक परिचय उपन्यासकार स्पष्ट नहि कयलनि अछि। ओ तात्कालीन सरकारक लोक सेहो भऽ सकैत अछि वा ठीकेदारक लोक सेहो भऽ सकैत अछि। अंततः ओहो ओही बेरक बाढ़िमे मरि जाइत छथि।

हँ, कवि-कथाकार रमेशक कविता संग्रह ‘कोसी घाटीक सभ्यता’ एहि दृष्टिएँ रेखांकित करबा योग्य कृति अबस्से अछि, जाहिमे जल प्रबंधनक चिन्ता मुखर भेल अछि। एहि पोथीक अपन वक्तव्यमे ओ कोसीकें दरिद्राक देवी कहैत छथि, कारण हिनका खजानामे बालुएटा छनि आ कोसी-क्षेत्रक गीतकार रवीन्द्रक एकटा गीतक पाँति उद्धरित करैत छथि- ‘हमर देसक (मिथिला-देस) छुतहरी गरीबी, तों उढ़रियो तऽ जो...’ कोसी मिथिलासँ उढ़रियो जाथि तऽ ककरो कोनो दुख नहि हेतै।
ओना ई वक्तव्य एकटा संवाद सेहो आमंत्रित करैत अछि। मुदा, कोसीक ताण्डवसँ आहत लोकक मनोदशाकें गीतकार आ कवि रमेश जे दर्द व्यक्त करैत छथि, हम ताहि दिस इंगित कयलहुँ अछि।

मैथिली नाटकोमे एहि प्रकारक चिन्ता कमे देखबामे अबैत अछि। प्रायः नहिए सन। मैथिली रंगमंच एहि मादे उदास अछि। हँ, हेबनिमे मैलोरंग द्वारा प्रदर्शित नाटक ‘जल डमरू बाजे’मे एहि चिन्ताकें देखल जा सकैत अछि।

जखन जल प्रबंधनक गप करैत छी, तँ एकर चिन्ता मात्र बाढ़िएटासँ नहि, रौदी सेहो एकटा स्थिति अछि जाहि लेल चिन्ता कयल जा सकैत अछि। मैथिली साहित्यमे रौदीक स्थिति आ ओकर दुख-दर्दकें अकानल गेल अछि।

मैथिली साहित्य गामसँ शहरमे अयलैक। नागरीय जीवन मैथिली साहित्यमे अयलैक आ आब धुरझार आबि रहल छैक। मुदा, साहित्यमे एहि नागरीय जीवनमे जल प्रबन्धनक चिन्ता कमे देखल जा रहल छैक। ग्रामीणो जीवनक चिन्तासँ कम। जखनि कि ई चिन्ता एखनहुँ गामसँ बेसी शहरक छैक।

हम नाटकक चर्च कयलहुँ अछि। संचारक एकटा महत्त्वपूर्ण माध्ययम थिक नाटक। मैथिलीमे नाटक कम लिखल जा रहल अछि। कम मंचन भऽ रहल अछि। जल प्रबंधनक चिन्ता करैत नाटकक लेखन आ मंचनक खगता छैक। लोककें ओकर दायित्व बुझाएब आवश्यक छैक। एहि माध्यमें ई बात समाज लग राखल जा सकैत अछि। एहूमे बाल नाटक आ रंगचंक खगता आर बेसी। हम सभ सचेत होइ, से आवश्यक तँ अछिए, ओहूसँ बेसी आवश्यक जे अपन अगिला पीढ़ीकें सचेत करी आ ताहि लेल नाटक आ रंगमंच एकटा महत्त्वपूर्ण विधा अछि। रचनाकारलोकनिकें, नाटकक संदर्भमे कही तँ नाटककार आ निदेशकलोकनिकें एहि मादे विचार करबाक चाहियनि।

संचार माध्यमक एकटा आर बात मोन पड़ैत अछि। आइ-काल्हि नेना सभ विडियो देखऽमे परिकल अछि। स्थिति ई छैक जे दूधमुहों नेना सभ विडियो देखैत अछि तखने खाइत अछि। संयुक्त परिवारक अवधारणा आ उपाय नहि रहने छोट-छोट नेना सभक लेल ई समस्या आबि गेल छैक। ‘न्युक्लियर फैमिली’क अवधारणा आ बदलैत समय-सालक कारणें संभव नहि भऽ पबैत छैक, जे कोनो नेनाक बाबा-बाबी ओकरा संग रहि पाबथि। एकसरि माय की करतीह? आ विडियो देखैत-देखैत खायब नेना सभक हिस्सक भऽ जाइत छैक। ई हिस्सक नेना सभकें नमहर धरि लागल रहैत छैक। कने चेष्टगर भेलाक बाद कमे नेना एहि हिस्सकसँ उबरि पबैत अछि। एहना स्थितिमे ओकरा ओही माध्यमसँ अपन मातृभाषामे ई बात सभ बुझयबाक काज होमक चाही।

एखनो ई स्थिति अछि जे नेना जँ पानि हेरा दैत अछि वा ओकरा हाथसँ लोटा वा गिलास खसि पड़ैत छैक, तँ माता-पिता एहिलेल डँटैत छथि जे हुनका फर्श पोछऽ पड़तनि। एहि लेल नहि डँटैत छथि जे पानि दूरि भऽ रहल छैक। ओ नेनाकें डाँटि कऽ वा स्नेहे ई नहि बुझबैत छथि जे पानिकें जोगयबाक चाही।

ई बात स्पष्ट जे प्रबन्धनक काज साहित्यकारक नहि होइत अछि। साहित्यकार चिन्ता कऽ सकैत छथि, चिन्तन कऽ सकैत छथि। प्रबन्धन हेतु व्यक्तिगत, सामाजिक आ सरकारी स्तर पर इमानदार प्रयासक खगता छैक। मैथिली साहित्यमे एहि मादे जतेक चिन्ता आ चिन्तन भेल अछि, से थोड़ अवश्य अछि, मुदा हतोत्साह करबा योग्य नहि अछि। लेखकक काज वीजारोपण करब छैक। ई एहिबात पर निर्भर करैत छैक जे जमीन कतेक उर्वर छैक आ गाछके जनमबा लेल...बढ़बाक लेल खाद-पानि केहन छैक।
अन्तमे, हम यैह कहऽ चाहब जे कोनो अभियानक सफलता आ असफलतामे सभ कारकक योगदान होइत छैक। तें हमरालोकनिकें अपन दायित्वकें सदिखन मोन राखक चाही। जल प्रबंधनक चिन्ता आ जलक संरक्षण आजुक ज्वलंत समस्या थिक। ई कोटि-कोटिक यज्ञ थिक, जे व्यक्तिगत रूपें सभसँ एक-एको अरघा घी माँगि रहल अछि।
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रचना : पटना / 05 सितम्बर 2019


Tuesday, September 12, 2023

नारी स्वावलम्बनक बाट बनबैत चानो दाइ : प्रदीप बिहारी


नारी स्वावलम्बनक बाट बनबैत चानो दाइ


प्रदीप बिहारी


सोमदेवक दूटा उपन्यास मैथिली साहित्यकें भेटलैक अछि। ओ थिक चानो दाइ आ होटल अनारकली। होटल अनारकली एकटा जासूसी उपन्यास अछि। प्रकाशनक बाद ई उपन्यास खूबे चर्चित भेल छल। ओहुना मैथिलीमे जासूसी उपन्यासक चलन नहि छलैक, एखनो नहिये सन छैक। होटल अनारकली ओहि समय प्रकाशित भेल छल, जाहि समय जासूसी उपन्यासक बहुत रास पाठक वर्ग हिन्दीमे छलैक। मिथिला क्षेत्राक पाठकलोेकनि सेहो हिन्दीक जासूसी उपन्यासमे रुचि लैत छलाह। होटल अनारकली लिखबाक उद्देश्य प्रायः इहो रहल होयतनि जे मिथिलाक पाठककें अपन मातृभाषामे ओहन वस्तु भेटनि जाहि लेल ओ दोसर भाषामे पड़कबा लेल वाध्य होइत छथि। मैथिलीमे जासूसी उपन्यास लिखब एकटा रिस्क सेहो छल, मुदा ताहि रिस्ककें सोमदेव स्वीकारलनि। मैथिलीक एकटा वृहत् पाठक तैयार करबाक सेहन्ता सेहो एहि उपन्यास-सृजनक ध्येय रहल होयतनि। सोमदेवक भाषाक प्रवीणता, शिल्पक विविधता आ कथा कहबाक कौशलक कारणें होटल अनारकली स्तरीय अछि। ताहि समय हिन्दीमे लिखल जाइत बहुत रास जासूसी उपन्यास सभसँ आगाँ...बहुत आगाँ...।

हिनक दोसर उपन्यास ‘चानो दाइ’ पर हम एहिठाम एहि प्रकारें गप करऽ चाहैत छी-

1959 ई. मे छपल ई उपन्यास ‘चानो दाइ’ मैथिली साहित्यिक जगतमे खूबे प्रशंसित भेल छल। उपन्यास एकटा ग्रामीण स्त्रीक कथा कहैत अछि, जकर बियाह ठकि कऽ एकटा अनपढ़ आ भैंसवाहक संग कऽ देल जाइत छैक। ओकर पिताकें सेहो नहि बुझल रहैत छैक जे वर अनपढ़ आ भैंसवाह छैक। दुरागमन करा कऽ आनलाक बाद ओही राति पति आत्मग्लानिक कारणें चुपचाप घर छोड़ि पड़ा जाइत छैक। नवकनियाँ नीक जकाँ वरक मुँह धरि नहि देखि पबैछ आ परित्यक्ताक जीवन अंगेजऽ पड़ैत छैक। तकर बाद ओ अपन जीवन-संघर्षमे जुटैत अछि आ विपत्तिक धार सभकें पार करैत समाज-सुधारक काजमे लागि जाइछ।

नायिका प्रधान एहि उपन्यासमे जे नायक गौण-पात्र सन उपस्थित होइछ, ओ थिक किसुन...किसुनमा। एकटा एहन परिवारक सदस्य जे अपन पित्ती, माने लालककाक संरक्षणमे अछि। ओ छओ बर्खक छल तँ पिता ओकर मायकें छोड़ि पड़ा गेलाह जे अंततः नहिए घुरलाह। नोकरी करऽ दिनाजपुर गेलाह आ ओम्हरे हेरा गेलाह। ओकर माय किसुनकें देखि संतोष कयलनि।

मुदा दुरागमनक राति किसुन ने मायक संतोष बनि सकल आ ने पत्नीक सम्बल। अपराध भाव सेहो अएलैक मोनमे। चानो सन गुणवतीक बियाह एहि घरमे ठकि कऽ कऽ देल गेलैक। लालककाक मायाजालमे ओझरायल किसुन गाम-घर छोड़ि पड़ा जाइत अछि।

तीन चरणमे बाँटल उपन्यासक कथा-वस्तुमे पहिल भूमिकाक रूपमे किसुनक गाम छोड़ब धरि वर्णित अछि। दोसर चरण माने उत्थान आ तेसर चरण उपसंहारक रूपमे वर्णित अछि। दोसर चरणक उत्थानमे उत्थान-पतनक चक्र चलैत रहैत छैक।

किसुनक पिताक अनुपस्थितिमे लालकका ओहि घरक गार्जियन होइत छथि। मुदा, लालककाक अभीष्ट भैयारीक सम्पति हँसोथबासँ बेसीक नहि बुझना जाइछ। लालककाकें एकटा बेटीएटा छनि। तें ओ एकदिस किसुनकें अपन बेटा जकाँ मानैत छथि, मुदा सम्पतिक लोभ आ गामघरक मुँहपुरुष बनबाक लिलसा हुनक मोन-प्राणमे रचैत बसैत जाइत छनि। आ तकर पहिल प्रयोग किसुनक मायकें रजिस्ट्री आॅफिस लऽ जा कऽ जग्गह-जत्था अपना नामे करएबाक रूपमे होइत अछि। लालककाक प्रयोग सफल होइत छनि। एक्कहिटा तर्क जे दुनू भाइकें आब आगू नाथ ने पाछू पगहा। एकटा बेटो छल, से आब कतऽ अछि, के जानए? कहिया घूरत से के जानए? घुरबो करत वा नहि? जँ घुरियो गेल तँ ओकरे होयतैक सभ कथू। ओकरा बेटे सन मानैत छथि ओ। बेटीकें तँ बियाहि देलनि। अपन घर पठा देलनि। तें भविष्यमे बाँट-बखराक झंझटि किएक? तें सभ कथू एक्केठाम रहय, सैह नीक। आ सोझमतिया किसुनक मायसँ सभ जग्गह-जत्था बहेड़ाक रजिस्ट्री आॅफिसमे अपना नामे करएबामे सफल होइत छथि।

उपन्यासमे नायिका चानो दाइक पहिल संवाद तखन होइत छैक, जखन हुनक सासु माने किसुनक माय अस्वस्थ भऽ जाइत छथि आ देयादिनी हुनका काज-धंधा करबा लेल बाध्य करैत रहैत छथिन...बात-कथा कहऽ लगैत छथिन। तखने पहिल बेर बजैत छथि चानो दाइ- ‘हम सभ काज कइए दइत छी तँ कथी लेल मायकें...’

रजिस्ट्री ऑफिसक काज सम्पन्न भेलाक बादे घरक वातावरण बदलऽ लगैत छैक। लालककाक एकमात्र जमाय आबि जाइत छथि। बेटी सेहो अबैत छनि। ओ सभ ओत्तहि रहबा सन भऽ कऽ अबैत छथि। हुनका चानो सन जुआन परित्यक्ताक सुगंधि दलमलित करऽ लगैत छनि। फिरीसान सेहो। आ ओ चानोक संग अपन पारिवारिक सम्बन्धक बहन्ने कतोक प्रकारक सपना देखब शुरुह कऽ दैत छथि।

लालकका गामक मुखिया बनैत छथि। तकर बाद लालकाकी वैद्यनाथधाम जाइत छथि। संगमे बेटी-जमाय सेहो रहैत छथिन। चानो सेहो। लालकका गामे पर रहैत छथि। सिमरिया घाटमे गंगा-स्नानक बाद जहाजसँ ओहिपार जयबा लेल बिदा होइत छथि। जहाज पर चढ़बासँ पहिने जमाय कहैत छनि जे थोड़ेक खएबा-पीबाक समान आ गंगाजल लऽ लेल जाए। सभकें जहाज पर छोड़ि ओ चानोक संग घुरैत छथि। जाबत ओ खएबा-पीबाक समान लेताह, चानो गंगाजल भरि औतीह। ओ दुनू अबैत छथि। ओझाकें अपन अभीष्ट सिद्ध होइत लगैत छनि। जहाज तेसर भोम्हा बजबैत खुजि जाइत अछि, मुदा चानो दाइ सिमरिया घाटक अन्हारमे बन्हा जाइत छथि। हुनक प्रतिवाद असफल होइत छनि। मुँहमे नूआ ठूसि दैत छथिन ओझा। हाथ-पएर बान्हि दैत छथिन। मुदा...

दोसर दिन एकटा बस्तीमे गंगाक धारसँ छानि कऽ आनल जाइत छथि चानो दाइ। होस अएलनि तँ एकटा परिवारक संग देखलनि स्वयंकें। ओ परिवार हिनक उपचार करैत छनि। आ, एकटा समाजसेवी शेखर समैयारक संग पटनाक ‘मदनलाल-अवलाश्रम’मे पठा दैत छनि। चानो सोचैत छथि जे ओही अवलाश्रममे रहि पढ़ि-लिखि कऽ कतहु मास्टरी करतीह आ किसुनक प्रतीक्षा करैत रहतीह। मुदा, ओ अवलाश्रम मात्र साइनबोर्डेटामे छल। पटनाक ओहि आश्रममे अनर्गले काज सभ होइत छलैक। चानोकें सेहो ओही घूरमे डाहि देबाक लेल अवलाश्रमक मैनेजर प्रयास कयलक मुदा चानो अपन कौशलसँ आ ओहिठामक एकटा स्त्री, कमलाक सहयोगसँ दुनू गोटें पड़ा जाइत छथि।

ओतऽसँ पड़यलाक बाद दुनू गोटें माने चानो आ कमलाकें दानापुरक एकटा बालिका विद्यालयक प्रधानाघ्यापिकाक मदतिसँ एकटा कोठरी भेटैत छनि। ओतहि रहि दुनू गोटें स्वेटर आदि बीनब आ चर्खा काटब शुरुह करैत छथि। चानोकें किछु ट्युसनो भेटऽ लगैत छनि। तकर बाद ओ दुनू दानापुरक भारती सेवाश्रमक सदस्य होइत छथि। ओतहि स्त्रीगण सभक लेल निरक्षरता-निवारण पाठशाला शुरुह करैत छथि। आ, भारती सेवाश्रमक उद्देश्यकें प्रतिफलित करैत चानो दाइ लोकप्रिय समाज-सेविका बनि जाइत छथि।
उपन्यासक तेसर चरण, उपसंहारमे देखाओल गेल अछि जे चानो अपन सासुरमे आयोजित भारती समाजक पाँचम वार्षिकोत्सवमे अबैत छथि। हुनका अपन परिवारक मादे बुझबाक जिज्ञासा रहैत छनि, मुदा तकरा ओ अपना मोनहिंमे रखैत छथि। गपेक क्रममे सासुरक एकटा स्त्राी हुनक परिवारक मादे कहैत छनि। वैह कहैत छनि जे हुनका गंगामे भसि गेलाक बाद सासुरक लोक उड़ौने रहनि जे ककरो संग पड़ा गेलीह। ओझा ताकि कऽ थाकि गेलाह, मुदा ओ नहि भेटलखिन। ओ स्त्री चानोकें चिन्हैत नहि छनि। चानो दाइ ओहिठाम चन्द्रावतीक नामे उपस्थित छथि।

आ ओत्तहि एकटा नवागन्तुककें सोझाँमे ठाढ़ देखैत छथि चानोदाइ। खादीक कुर्ता, पैजामा आ बंडी, आँखि पर चश्मा आ हाथमे बेग लटकौने ओहि युवकसँ किछु पुछितथि, ताहिसँ पहिनहिं हुनक नजरि बेग पर लिखल परिचय पर पड़ैत छनि- श्रीकिसुनचन्द्र, एम.ए. रिसर्च स्काॅलर, कलकत्ता विश्वविद्यालय।

दुनूक भेंटक संग उपन्यासक सुखान्त अंत होइछ।
उपन्यास कतोक रास प्रश्न ठाढ़ करैत अछि आ किछु प्रश्नक उतारा सेहो दैत अछि। स्त्रीक आत्मनिर्भरताक एकटा रेखा सेहो खिचाइत छैक उपन्यासमे।

उपन्यासक भाषा पाठककें बान्हबामे सफल भेल अछि। कथा आ उपकथाक बाद पाठकक उत्सुकता बनल रहैत छैक, जे पूरा पोथी पढ़बा लेल बाध्य करैत छैक। यैह कोनो लेखकक सफलता सेहो मानल जाइत अछि। उपन्यासमे वातावरणक सृजन सेहो समधानि कऽ कएल गेल अछि। छोट-सँ-छोट गप, पात्र आ परिस्थितिकें गंभीरतापूर्वक उकेरल गेल अछि। जेना, जखन किसुनक मायकें बरद गाड़ी पर रजिस्ट्री ऑफिस  लऽ गेल जाइत छनि, तँ बहलमान हुनका ठाम-ठामक परिचय दैत रहैत छनि। एकरा उपन्यासकार एहि तरहें लिखैत छथि- ‘अपन ज्ञानक कैंचा बूढ़ी पर बजारबा लेल बहलमनमा बाजल- उएह छइ बड़का डागदरक अस्पताल। बीस रुपइया फीसे छइ तऽ जादू जकाँ इलाजो करइ छइ आ ऊ खपड़ावाला घर छइ बरमा डागदरक। दुःख तऽ छोड़ा दइ छइ इहो आ बोलियो बड़ मधुर छइ एकर, मुदा पाइ लेत कम आ सब बेरामी के एके पुरियामे चाटऽ लए दइ छइ। से किदन अंगरेजी दवाइ नहि, हींग-पत्ती बाला औषध कहइ छइ लोक सभ आ डागदरो। सुनइ छिअइ ‘कएबो’ करइ छइ बरमा डागदर।’ बरमा डागदर माने लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार मणिपद्म।

एकठाम (पृष्ठ सात) ताहि समयक देहाती स्कूल आ मास्टरक चित्रण सेहो तात्कालीन शिक्षा-व्यवस्थाक स्थितिकें उकेरैत अछि। ओना सरकारी स्कूलक स्थिति एखनो बेसी नीक नहि भेलैक अछि। मात्रा स्वरूप बदललैक अछि। आब पहिने जकाँ चटियाकें छड़ीसँ ‘होंकल’ नहि जाइत छैक। होंकबाक स्वरूप बदलि गेल छैक, जे पहिनेसँ बेसी भयाओन छैक।

उपन्यासकार ठाम-ठाम व्यंग्य करबासँ सेहो नहि चुकल छथि। तात्कालीन रेलक स्थिति पर लिखैत छथि- ‘समस्तीपुरसँ आगाँ वैह छोटकी इंजिन आ खुरखुरही चालि। दरभंगाक माटि कोमल छइक, से कतएसँ एतेक लौह-भार सहन करओ?’
उपन्यासमे एकठाम सस्पेंस सेहो अछि। चानो भोरे-भोर बासन माँजैत रहैत छथि आ डाकपीन चिट्ठी खसा जाइत अछि। चिट्ठी चानोदाइक नामे छैक। आखर चीन्हि नहि पबैत छथि। तखनहिं ओझा आबि जाइत छथि। ओझाक आहटि बूझि ओ चिट्ठी नुका लैत छथि। ओझा अपन कोनो रभसक गप लेल क्षमा माँगैत छथि। चानो ओझाक प्रति सहज भाव देखबैत छथि। हँसी करैत बजैत छथि- चलू कतहु भागि जाइ। ठक्क भेल ओझा बजैत छथि- से हमर भाग्य। से सुनि चानो फुलाएल कमल जकाँ हँसि दैत छथि आ फेर मुँह पर हाथ दैत जीहकें दाँतसँ काटि लैत छथि। से एहि आशंकासँ, जे काकी ने सुनि लेने होथि। ओझा चलि जाइत छथि आ तखन चानो चिट्टी पढ़ैत छथि- ‘प्रिय रानी! स्नेह।’ मुदा तखनहिं काकीक स्वर सुनाइत छनि। काकी उठि गेलीह मने। चानो चिट्टीकें समेटि डाँड़मे खोंसि लैत छथि। एहिठाम पाठक भ्रमित होइछ। चानोक लेल ककर चिट्टी? ओझाक तँ नहि! मुदा, ओझा सद्यः छथि, तँ डाकसँ चिट्टी किएक आओत? तखन ई ककर चिट्टी? आ पाठकक ई भ्रम टुटैत छैक वैद्यनाथधाम जएबाकाल टेनमे चानो द्वारा चिट्टीक स्मरण करबाकाल। ओ चिट्टी किसुनक लिखल छैक, जाहिमे किसुन ई तँ लिखने छथि जे ओ कलकत्तामे छोट-छीन नोकरी करैत छथि आ पढ़ितो छथि। मुदा, किसुन अपन ठेकान नहि लिखने छथि। चानोक लेल एकटा प्रसन्नताक संग वैह बड़ीटा प्रतीक्षा। औनाहटि।

उपन्यासमे किछु बात अखरितो छैक। जेना, किसुनकें गेलाक बाद चानोक कोनो प्रतिक्रिया पाठककें देखबामे नहि अबैत छैक। कोनो युवतीक जिनगीमे ओकर पति मात्र एकाध दिनक लेल अबैक, जे नीक जकाँ पतिकें देखियो ने सकल रहए आ ओकर पति अनचोके घर छोड़ि पड़ा जाइक, तेहन युवतीक मोनक पीड़ाक आकलन सेहो अपेक्षित छैक। पाठक चानोक ताहि समयक मनोदशाक चित्रण सेहो तकैत रहैत अछि। मुदा, से भेटैत नहि छैक।

उपन्यासक कथा चानोक संग-संग चलैत छैक। चानोकें गंगामे भासि गेलाक बाद लालकका, काकी आ ओझा सभक की भेलनि, से उपन्यासक अंतमे चानपुरावालीक मुँहें पाठक एतबे बुझैत अछि जे बारह बर्ख पहिने हुनक पुतौहु सिमरियासँ कतहु भागि गेलि। लालककाक मादे लेखक मात्र एकटा वाक्य लिखैत छथि- ‘पुरान मोकदमाबाज लालककाकें रस्ता पर लाबएमे कतेक परेशानी भेल अछि।’ लालकका रस्ता पर आबि गेलाह, गामक भारती समाजक पाँचम वार्षिकोत्सव छैक, ताहिठाम पाठक लालककाक वा हुनक परिवारकें सहजे ताकऽ लगैत अछि। एकटा उत्सुकता पाठकक मोनमे उठैत छैक, जकरा लेल उपन्यासकार मात्रा एकेटा वाक्य गढ़ैत छथि। लगैत छैक जे अंतमे उपन्यासकार हड़बड़ीमे छथि। अपन बातकें गंतव्य धरि पहुँचएबाक हड़बड़ी छनि।
उपन्यासमे स्त्री-शोषणकें विभिन्न कोणसँ देखाओल गेल अछि। भारती सेवाश्रममे रहनिहारि प्रतिमा, नीरा, सुकुमारी, कमला आ चन्द्रावती माने चानोक व्यथा-कथाक रूपमे नारी शोषणक विभिन्न आयामकें राखल गेल छैक। प्रतिमा पाँच बहिनमे सभसँ छोट छलीह आ पिता द्वारा एस.डी.ओ.क कोठरीमे परसल गेलीह। भारती सेवाश्रमक विज्ञापन देखि पटना अएलीह आ आश्रमक निर्देशमे प्रगति करऽ लगलीह। विवाहिता नीरा सिनेमामे अभिनयक आकर्षणक कारणें घरसँ पड़ा कऽ बम्बइ गेलीह, मुदा ओहिठामक जीवनमे रचिन-बसि नहि पौलीह। एकटा डायरेक्टर सिनेमाक शेयर किनबाक शर्त पर काज देबाक बात कएलकनि आ बादमे ठकि लेलकनि। बम्बइक घृणित जिनगीसँ दिक् भऽ घर घुरऽ चाहैत छलीह, मुदा हुनका ई विश्वास छलनि जे हुनक डाक्टर पति हुनका स्वीकार नहि करथिन। ओ स्त्राी-स्वतंत्रताक घोर विरोधी लोक। ताहूमे नीरा स्वयं हुनका घरसँ पड़ायलि छलीह। पिता लग कोन मुँहें जइतथि? बम्बइमे उपासे रहबाक समय आबऽ लगलनि तँ एकटा सिन्धीसँ वियाह कएलनि। ओकरा संग पटना अएलीह। पटनामे ओ होटल खोललक आ होटलमे ग्राहकक संग नीराकें रहबा लेल वाध्य करऽ लागल, तँ कोनहुना ओतऽसँ पड़ा कऽ भारती सेवाश्रम अएलीह। ओ एहि उद्देश्ये समाज-सेवा करऽ चाहैत छथि जे बम्बइया सभ्यता दिस बताहि भेलि अपन बहिन सभक आँखि खोलि पाबथि जे अहाँ अम्बपाली नहि, वैदेही बनू। पतिकें प्रेमसँ जीतू। एहन नहि जे पति गीतसँ रिझताह, तँ रेडियो कीनि ली।

तहिना विधवा सुकुमारीकें कुंभ मेलामे बबाजीक दुव्र्यवहारसँ बचैनिहार युवक सभ पटना सिटीक एकटा वेश्यालयमे पहुँचा देलकनि आ ओतहिसँ ओ भारती सेवाश्रम द्वारा मुक्त कराओल गेलीह। कमला अपने गामक एकटा युवकक प्रेममे पड़ि वियाहसँ पूर्व माय बनऽवाली भऽ गेलीह, तँ गामसँ पड़ा कऽ पटना अबलीह आ ओही अवलाश्रममे आश्रय भेटलनि, जतऽ चानोकें आनल गेल छल। ओत्तहि बच्चा भेलनि जे जनमिते मरि गेल। तकर बाद मैनेजर द्वारा हुनक शोषण शुरुह भऽ गेल। ओ चानोक संग ओतऽसँ पड़ा कऽ भारती सेवाश्रममे अएलीह।

एहि तरहें उपन्यासकार स्त्री-शोषणक विभिन्न आयामकें रेलक डिब्बामे यात्रा करैत काया सभक माध्यमे सफलतापूर्व राखलनि अछि।

एहि उपन्यासमे एकटा स्त्रीक व्यथा-कथा आ स्वावलम्बनक बाट देखएबाक प्रयास कएल गेल अछि। अंठावन बर्ख पहिलुक समाजक चित्रण एहि उपन्यासमे अछि। ताहि समयक समाज आ आजुक समाज सर्वथा भिन्न अछि। सभ दृष्टिकोणे भिन्न। मुदा, स्त्रीक प्रति सामाजिक दृष्टिकोण ततेक नहि बदलि सकल अछि, जतेक अपेक्षा कएल जाइत अछि। ओना, आजुक स्त्री शिक्षित होइत छथि। सभ अपन बेटी-पुतौहुकें पढ़ाबऽ-लिखाबऽ चाहैत अछि। पढ़बैत-लिखबैत अछि। बुधियारि बनबैत अछि। आइ स्कूल-कओलेजक सुविधा छैक, पहिने नहि रहैक। एहना स्थितिमे ओहि समयक स्त्रीक दशाक संग-संग ओकर दिशा सेहो उपन्यासमे निर्धारित करबाक प्रयास भेल अछि। दिशा निर्धारणक उपन्यासकारक अपन सोच छनि, अपन कल्पनाशीलता छनि, अपन बुद्धि-विवेक छनि, अपन दर्शन छनि।
उपन्यासकें वास्तविकता आ कल्पनाशीलताक विथानक संग पाठककें बान्हबामे समर्थ भऽ पाएब ओकर विशेषता होइछ। वातावरणक सृजन आ तदनुसार संवाद-भाषाक समायोजन उपन्यासक गहना-गुड़िया होइत छैक आ ताहि दृष्टिकोणें ई एकटा सफल उपन्यास मानल जा सकैछ। चानो दाइ पढ़बाकाल पाठक कतहु ओझराइत नहि अछि। एकर कथावस्तुक संग यात्रा करैत रहैत अछि।

उपन्यास अपन अंतरंग आ बहिरंग प्रभाव छोड़ैत अछि आ समग्रतामे सफल अछि। मैथिली उपन्यास विधाक यात्राकें एक डेग आगाँ बढ़ौने अछि। आजुक समयक लेल सेहो आवश्यक उपन्यास सिद्ध होइत अछि।
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Tuesday, August 22, 2023

रखबार (मैथिली कथा) : प्रदीप बिहारी

कथा

रखबार
प्रदीप बिहारी

दुनू भाय-बहिन घरमे एकटा महिलाकें पैसैत देखि हतप्रभ भ' गेल। एक-दोसराकें प्रश्न-दृष्टिएं ताक' लागल। दुनूक माय ओहि महिलासं गप कर' लागलि आ ओही क्रममे दुनू भाय-बहिनक परिचय करौलकि- "यैह दुनू छै। जेठकी- स्वीटी आ छोटका- प्रफुल्ल। काज तं बुझले छह। ध्यान देबाक छै जे बच्चा सभ के कोनो कष्ट नहि होइक। दुनू स्कूल तं संगहि जाइए, मुदा स्कूल सं अयबाक समय अलग-अलग छै। स्कूलक वैन अपार्टमेंटक गेट धरि पहुंचा दै छै। ओत' सं आन' पड़तह। तें समय सं पाच मिनट पहिने गेट पर तैनात रहब जरूरी । तोहर नाम की छह?"
          "सुलेखा।" आगन्तुक महिला उतारा देलकि। उताराक बाद दुनू नेना दिस ताकलकि। अखियासलकि- जेठकी माने स्वीटी सात बरखक हेतै आ छोटका माने प्रफुल्ल चारि बरखक। ओ दुनू बच्चाकें 'गुड मॉर्निंग' कहलकि, मुदा दुनू उतारा नहि देलक। मायकें कोनादन लगलैक। एना तं कहियो ने करै छल दुनू। माय अपन दुनू संतानकें कहलकि, "आइ सं यैह आन्टी तोरा दुनूक संग दिन भरि रहथुन।"
          स्वीटीकें कोनादन लगलैक। मायसं पुछलकि, "आन्टी?"
         माय किछु बजितय, ताहिसं पहिने प्रफुल्ल बाजि उठल, "आन्टी जैसी तो नहीं लगती है। दादी लगती है। पर...।"
         माय, बेटा दिस तकलकि। 
         प्रफुल्ल बाजल, "पहली आन्टी की तरह स्मार्ट नहीं हैं।"
         मायकें हंसी लागि गेलै। सोचलकि- छौंड़ा बाज'मे पकठोस छै। एखनेसं वयस्क सन गप करैत रहै छै। मुंहें पर कहि दैत छै सभ कथू। ड'ए-भ'र नहि छै। हरिबोलबा छै छौंड़ा। बजन्ता सेहो। दुनू प्राणी सांझखन आफिससं झूर-झमान भेल अबैत अछि तं छौंड़ा दिन भरिक खिस्सा कहैत छैक। से, एहि तरहें कहैत छै जे दुनू प्राणीकें हंसी लाग' लगैत छै। आफिसक तनाओ कने कम भ' जाइत छै।
          मायकें ई बात नीक लगैत छैक। ओ एहि बातसं प्रसन्न होइत रहैत अछि। तखनहुं भेल छलि। ओ सुलेखाकें कहलकि, "कने बेसी बजै छै ई। तें एकर बात के बेजाय नहि मानह।"
         "नहि, नहि। धियापुता त' चंचल होइते छै। चंचल होमको चाही।" सुलेखा बाजलि, "स्वीटी दैया जानू कम बजै छिकथिन।"
          स्वीटीकें चुप देखि बाजल छलि सुलेखा।
          "हं, ई कने स्थिर छै। शान्त स्वभावक।‌ बजितो छै स्थिरे सं। मुदा, एकर डिमांड जं पूरा नहि होइत छै, तं घरे माथ पर उठा लैत छै। तामस नाके पर रहै छै एकरा।"
          "बेस, हमे सब सम्हारि लेबै।" सुलेखा बाजलि। सुलेखाक मोनमे उचरलैक जे कलियुगहा बच्चा छै, जेहन ओ देखलकि अछि, तेहने हेतै ने। एहिसं बेसियो भ' सकै छै। मुदा, ओ नहि बाजलि। कोना बजितय? ओहि घरमे नौरी बनि क' आयल छलि। बयस भने जे होउक, ओहदाक अनुसारे ने रह' पड़तै।
           गृहस्वामिनी माने डौली सुलेखाकें काज बुझाब' लागलि। पहिने भानसघरक सर-समान। तखन स्वीटीक कोठरी। ओकर वार्ड्रोव। स्कूलक ड्रेस। घरक कपड़ा। प्रफुल्लक कपड़ा सभ। 
           स्वीटी सोचि रहल छलि। चारि मासमे ई तेसर छै। पहिल तं पनरहियो ने रहलै। छोड़ि देलकै। जानि नहि की भेलै? मम्मी आ पापा तं किछु ने कहलखिन। जं कहनहुं हेथिन तं, ओकरा नहि बुझल छै।
           दोसर किछु दिन टिकलै। आरती आन्टी रहै ओ।  दुनू भाइ-बहिनकें बड़ मानै। स्कूलसं अबितहिं प्रफुल्लक ड्रेस बदलि दैक। स्वीटी अपन ड्रेस अपनहि बदलि लैत अछि। अपन काज अपने क' लैत अछि। आरती आन्टी खेनाइ ल' क' हाजिर। प्रफुल्लकें खेला-खेला क' खुआबै। मोबाइल द' दै। ओ देखय आ आरती आन्टीक हाथसं खाय। जेना अपन दादी खुआबै छथिन, तहिना खुआबै। एकहक क'र द' कहै- ई सुग्गा, ई मेना, ई परबा...। कखनो क' ओ डांटबो करै। हं, आरती आन्टी जखन प्रफुल्लकें मोबाइल द' क' खुआबै, तं हमरा टी वी पर रील आ आन मनपसन्द चीज देख' के सुविधा भेटि जाय। मुदा, ओहो चलि गेलै। आब ई तेसर...।
          दादीक स्मरण होइतहिं ओ मायसं पुछलकि, "मम्मी। आज दादी और दादू भी आ रहे है? कबतक आएंगे?"
          डौली ओकर जिज्ञासा शान्त कयलकि, "दो बजे तक।" आ तखनहि किछु मोन पड़लै।
          स्वीटीक मुंहसं बाबी आ बाबाक अयबाक गप सुनि सुलेखा डौलीसं पुछलकि, "मैडम! अपने के सासु-ससुर आबि रहलखिन हन। हिएं रहै छिकथिन?"
          "आबि रहल छथिन। आरती के हटला के बाद हमरा एकदिन छुट्टी मे रह' पड़ल। मम्मी जी के काल्हि खबरि केलियनि, तं कहलखिन जे आबि रहल छी।‌ एहि बीच काल्हि तोरा सं गप फाइनल भ' गेलै। हं, आइ दू बजे धरि आबि जेथिन। ड्राइवर स्टेशन सं ल' अनतनि। दिन के खेनाइ हुनको सभ लेल बनतै।"
          वैभव कोठरीसं बहरायल आ स्वीटीकें कहलक, "बेटी, तैयार नहीं हुई? स्कूल का टाइम हो रहा है। जल्दी करो।" ओ प्रफुल्लकें तैयार कर'मे लागि गेल। स्वीटी सेहो तैयार होमय लागलि।
          सुलेखाक पहिल दिन छलैक, तें डौली सेहो भानसघरमे छलि। बच्चा सभक टिफिन तैयार भ' रहल छलैक। सुलेखा पुछलकि, "आरती किए छोड़लकै काज?"
          "अरे, छोड़लकै कहां, हम सभ हटा देलियै।"
          "बोलब करै छै जे छोड़ि देलियै हन।"
          "झूठे । काज तं बढ़िया करै। घरो-दुआर नीक जकां राखै। मुदा, बजै बड़। हम सभ अपन घरोक कोनो गप करियै कि बीचमे टोकि दै। दोसर ई जे परसू प्रफुल्लकें स्कूलसं आब' काल ओ अपार्टमेन्ट के गेट पर नहि रहै। गार्ड ओकरा रखने रहलै। ओकर पापा के फोन केलकै। हम दुनू गोटे अयलियै, तं ओकरा घर अनलियै। ओ पैंतालिस मिनट लेट अयलैक।‌ पुछलियै तं बात बनाब' लागल। कहांदन निन्न नहि टुटलै। बुझहक, बारह बजे दिनमे कतौ लोक सुतै छै। मना क' देलियै। काल्हि सं नहि आ।"
         सुलेखा चुपचाप काज करैत छलि। डौली फेर बाजलि, "तोरो कहै छियह। ठीक बारह बीसमे स्कूलक वैन प्रफुल्लकें ल' क' अपार्टमेन्टक गेट पर आबि जाइ छै। तें ठीक सवा बारह बजे गेट पर उपस्थित रह' पड़तह। एहिमे कोनो आलस नहि। इफ-बट नहि। तेसर एकटा आर कारण रहै जे हटेलियै। घरक कैमरा सभ बरोबरि बन्द क' दैक। हम सभ मोबाइल पर देखियै, तं कैमरा औफ। ओना हमरा सभ के समये ने रहैए मुदा मम्मी जी बरोबरि देखैत रहै छथिन। हुनका जहां कैमरा औफ देखाइ छनि, कि हमरा दुनू के फोनियाब' लगै छथिन।"
           लगैक जे डौली ऑफिस मे अपन अधीनस्थ कर्मचारीकें काज बुझाइयो रहल अछि आ डांटियो रहल अछि।
          सुलेखा चुपचाप सुनि रहल छलि।
          संक्षेपमे दिन भरिक चर्या सुलेखाकें बुझा क' डौली अपन कोठरीमे चलि गेलि आ लैपटॉप खोलि लेलकि। 
          सुलेखा कोल्हुमे बह' लागलि।
          
बाबी-बाबाकें देखितहिं दुनू बच्चाकें बुझाइक जेना सगर जहान भेटि गेल होइक। जेना मेलामे हेरायल संगीकें एक-दोसरासं भेंट होइत छै, तहिना प्रफुल्ल बाबीक करेजसं सटल। 
           बाबीक मुंहसं बहरयलनि, "कोना छह बाबू?"
           नीक वा बेजाय तं नहि बाजल मुदा बाजल, "दादी, तुम आ गई। अब मजा आ जाएगा।"
           प्रफुल्ल बाबीक आलिंगनसं फराक होइत बाबा दिस लपकल, "हाइ फ्रेंड! हाउ आर यू?"
           बाबा ओकरा करेजमे साटलनि। बजलाह, "फाइन।"
           बाबा-पोतामे दोस्ती छैक। एक-दोसराक सम्बोधन 'फ्रेंड' छैक। पोताकें जखने केओ पुछैत छलैक जे  दादाक फ्रेंड के? तं ओ झटसं उतारा दैत छल- पोता। आब जे केओ ई प्रश्न पुछैत छैक, तं कहैए- प्रफुल्ल। एकदिन बाबी पुछलखिन जे आब नाम किएक कहै छी? भने पोता कहैत रही। ताहि पर बाजल - 'पोता तो अकेले हैं न। इसीलिए नाम कहते हैं।'
           से ठीके। बूढ़ाकें दू टा बेटा, तीनटा पोती आ एकटा पोता छनि। दुनूकें दू-दू टा संतान। इहो पोता जे भेलनि तकर खिस्सा छैक। बूढ़ी बरोबरि डौलीकें कहथिन, "स्वीटी कें एकटा आर भाय वा बहिन होमक चाही। एसगर..."
           कि बिच्चहिंमे पुतौहु गपकें लोकि लेलकनि, "हमरा दुनूक व्यस्तता देखिते छी। दू-दू साल पर बदली। कोना निमेरा हेतै? तें दोसरक प्लान नहि करै छी। एकटा छै, वैह बहुत भेलै। ओ तं हमर विभागक सुविधे एहन छैक जे दुनू प्राणीक बदली एक शहरमे भ' जाइ छै। नहि तं, इहो एकटा..."
           बूढ़ीकें मोन पड़लनि। पछिला बरख डौली अपन प्रोमोसन नहि लेलनि। दुनू चीफ मैनेजर भ' जइतय तं ई सुविधा नहि भेटितैक। तथापि ओ बजलीह, "से तं ठीक। तैयो, हम कहलहुं। अहां सभ सोचब।"
   ‌‌        से ओ दुनू दोसर बच्चाक 'प्लान' तखन बनौलक, जखन डौलीक नैहरक शहरमे दुनूक बदली भेलैक। आ जन्म भेलैक प्रफुल्लक।

बाबाक नजरि घड़ी पर गेलनि। बीस मिनटक बाद स्वीटीक स्कूल वैन औतैक। पोताकें कहलनि, "खाना खा लिए।"
             पोतासं पहिने सुलेखा बाजलि, "स्कूल स' अएला के बाद दूध पिलखिन हन। बोललखिन जे खेनाइ दादी के हाथे खेबै।"
            बूढ़ी बजलीह, "परसि दहक।"
            बूढ़ा दिस तकैत सुलेखा बाजलि, "हिनको खाना परसि देबनि?"
            "एखनि नहि। स्वीटी आबि जायत तखन..."
            सुलेखा प्रफुल्लक भोजन आनि क' देलकि। बाबी पोताकें खुआब' लागलि। मुदा, पोता छिड़िया लागल। एखनि नहि खायत। टी वी चलैत रहैक। ओ 'स्पाइडर मैन'क करतूत सभ देखि रहल छल से समाप्त नहि भेल छलैक। समाप्त भेलाक बाद खायत। बाबी परबोधैत छलीह। बाबा-बाबीकें बुझल छनि जे टी वी बन्न करताह तं आर छिड़िया जायत। चिचिअएबो करत- टी वी खोलो।
             सुलेखा बाजलि, "बाबू! टी वी बन्द कर दें। खाकर देखिएगा। तब तक मोबाइल देखकर खा लिजिए।"
             प्रफुल्ल शान्त भेल। सुलेखा टी वी बन्न क' देलकि आ मोबाइल प्रफुल्लक हाथमे थम्हा देलकि। मोबाइल देखितहिं बच्चा खाय लागल। बाबी खुआब' लगलखिन। हुनका किछु बजबाक अवसर नहि देलकनि पोता। 
            बाबा सुलेखाकें कहलनि, "ई कोन बानि छै? एकरे कहै छै तार पर सं खसि क' खजूर पर आयब।"
            बाबीकें रहल नहि गेलनि। पतिक गप काटलनि, "तार पर सं खसब नहि भेलै ई। खजूर बाटे तार पर चढ़ब भेलै।"
            सुलेखा माथ निचां कयने बाजलि, "ई आदति त' पहिले स' होतनि ने।"


संध्याकाल करीब साढ़े सात बजे सुलेखा बूढ़ीकें कहलकि, "अपने आर छेबे करथिन, त' हमे घ'र जइयै? राति के खाना बना देलियनि हन।"
            "गप की भेलह-ए?"
            "गप होलै हन जे जा तक साहेब या मैडम नहि आइ जैथिन, ता तक हमरा रहय के छिकै। आइ अपने आर छिकियै, तें सोचलियै जे...। काल्हि भोरे साढ़े छौ बजे आइ जेबै।"
            "बेस जाह।"

रातिक आठ बजे वैभव आयल। अबितहिं माय-बाबूकें गोड़ लागि बेटाकें कोरामे ल' दुलार कयलक। तकर कनिए काल बाद डौली आयलि। घर भरल-भरल सन लगलैक।
           फ्रेश भेलाक बाद सभ गोटें बैसल। प्रफुल्लक चंचलतासं आनन्दित होइत गेल। ट्यूशन आ स्कूलक होमवर्कक चर्च भेलैक। स्वीटी अपन होमवर्क आ डायरी पापाकें देखौलकि। प्रफुल्ल अपन मम्मीक कोरमे उछल-कूदमे लागल छल। बाजल- 'हमको मैम कोई होमवर्क नहीं दी है।"
          "हमको नहीं, मुझे।" वैभव टोकलकै, तं प्रफुल्ल बाजल, "मिन्स मुझे। क्लास मे जो पूछती है, सुना देता हूँ। ट्यूशन वाली मिस याद करा देती है।" ओ स्वीटी दिस तकैत अपन दुनू हाथक औंठा आ कान्ह हिलाब' लागल। शान्त स्वीटी बाजलि, "अभी नर्सरी में हो न, बड़े क्लास मे जाओगे तब समझना।"
           "ओ के। जब जाएंगे, तब समझेंगे।" प्रफुल्ल अपन स्वाभाविक रूपमे आबि गेल।
            वैभव गपकें बदललक, "एत' अएने एकरा दुनूक भाषा गड़बड़ा गेलैए। बिहारी हिंदी बाज' लगलैए।"
            डौली बाजलि, "की करबै? जेहन देश, तेहन भेष।"
            माय वैभवकें कहलनि, "मुदा, अपनो भाषा अएबाक चाही।"
            "से तं तोहीं सभ सिखेबही। आ तों सभ एत' पाहुन जकां अबै छें। कोना सिखतै?" बेटा मायक गपक उतारा दैत छल, "ओना मैथिली बूझि लै छै, मुदा रिटर्न‌ नहि क' पबै छै।"
            "हमहूं सभ परमानेंट नहि ने रहि सकै छियौ। घरो पर तं बहुत काज छै। कोनो किरायादारो नहि छै, जे घरक कने ओगरबाही हेतै। तखन, जखन-जखन जरूरी होइ छौ, आबिए जाइ छियौ।" माय बजलीह।
            पिता देखलनि जे बेटाक मोबाइल पर ताबड़तोड़ मैसेज आबि रहल‌ छलैक। पुतौहुक मोबाइल पर सेहो। दुनू मैसेज देखय। कतहु फोरवार्ड करय आ गपो करय। एक-दू बेर कौल सेहो अएलैक, मुदा ओ दुनू कौलकें साइलेंट क' दिअय। पिताकें रहल नहि गेलनि। बेटाकें कहलनि, "जरूरी फोन छह तं गप क' लैह। मैसेजो बहुत आबि रहल छह।" पुतौहु दिस तकैत बजलाह, "कनियां, अहूंक फोनक यैह हाल अछि। काज बढ़ि गेल अछि?"
           वैभव उठि क' गप कर' गेल आ डौली ससुरक प्रश्नक उतारा देलकि, "काज कमे कहिया रहै छै? एक-ने-एक जरूरी रहिते छै। आब प्राइवेटे की, सरकारियो बेसी आदेश मैसेजे सं अबै छै आ अनुपालनो होइ छै। कार्यालयी विस्तृत डेटा सभ मेल पर अबैत-रहैत छै। समय कहां छै? सभ के तुरन्ते उतारा चाही।"
            "मुदा, घर-परिवारक देखभाल, बाल-बच्चाक सही निमेरा आ दाम्पत्यक संतुलन सेहो जरूरी छै ने।" सासु पुतौहुकें कहलनि।
            वैभव कोठरीसं बहरायल। बाजल, "आब भोजन-भात होइ। भोजनक बाद कनेकाल एकरा दुनूकें पढ़यबाको छै।"
            सासु आ पुतौहु एक्के बेर भानस घरमे पैसलीह।

पत्नी पति लग अपन चिन्ता उझीलि रहल छलीह। बच्चा सभक नीक जकां निमेरा नहि भ' रहल छै। एकरे सभक बारे मे सोचि माथ टनकैत रहैए। आखिर संतति तं अपने सभक खराप भ' रहल अछि। एहि तरहें काज कोना चलतै? दुनूकें टी वी आ मोबाइलक एहन हिस्सक छै, से जानि नहि...अपनो दुनू अबैए तं मोबाइले मे ओझराएल रहैए। एकटा मोबाइल घरमे राखि देने छै। कहलियै जे किएक? तं कहलक जे दिनमे जेना-जेना समय भेटैए, तं वीडियो कौल क' लैत छियै। हाल तं यैह छै। अपनो सभ सभदिन नहि रहि सकै छी। हम तं डौलीकें कहलियनि जे पापा रिटायर भ' गेलाह। एकहक मासक पारी लगाउ। एक मास हम दुनू गोटें रहब, एक मास ओ दुनू गोटें रहथि। मुदा, से समधि-समधिनकें मंजूर नहि छनि। कहै छथिन जे एहिठाम बदली करा ले। धियापुताकें पोसि देबौ। नहि तं नोकरी छोड़ि दे।
            पति बजलाह, "ई बात बियाहक समय डौलीकें हम कहने रहियै, तं बाजल छलीह जे बेसी दिक्कति होयत तं नोकरी छोड़ि देब। मुदा, जत्तेक नोकरी होयब मोश्किल छै, ताहिसं बेसी छोड़ब होइ छै।"
             पत्नी बजलीह, "से तं डौली सेहो कहै छथि जे मम्मी जी नोकरी छोड़ल नहि होयत हमरा बुतें। एकाध बेर सोचबो कहलौं, तं लागल जे घरमे बिनु काजक कोना रहि पायब?"
            "बच्चो सभकें कोनो तेहन संगी नहि छैक। महानगर सनक अपार्टमेन्ट जिला आ कमीश्नरी बला शहरमे नहि छैक। एत' तं बुझू जे खुट्टा पर तहखाना बना देने छै। कत' बुलत बच्चा सभ? कत' खेलत? तें देखै नहि छियै। दोसर तल्ला बला ओ बच्चा बरोबरि अपना ओहिठाम अबैए आ प्रफुल्लक संग रड़धुम्मस मचौने रहैए।"
             दोसर दिन ससुर पुतौहुकें फोन क' पुछलनि जे ओ एक घंटाक लेल दुनू प्राणी आबि सकैत छथि। डौली मैनेज कयलकि। ससुरक कथनानुसार‌ चारि बजे दुनू प्राणी डेरा पहुंचल। ससुर डौलीकें कहलनि, "हम नेट पर चेक कयलहुंए जे एत' कला केन्द्रमे भरतनाट्यमक क्लास होइत छै। स्वीटी अहमदाबादमे सिखैत छलि। हम कलाकेन्द्रक हेडसं गप कयलहुं अछि। चलू, स्वीटीक नामांकन कराओल जाय।"
            बेटा-पुतौहु आ पोता-पोतीक संग बाबा कलाकेन्द्र गेलाह आ स्वीटीक नामांकन भेल। ओकरा पेंटिंगमे सेहो रुचि छलैक। ओहूमे नामांकन भेलैक। दू दिन माने शनि-रवि क' नृत्य आ शेष चारि दिन पेंटिंग। तय भेलै जे एक गोटें ओकरा कलाकेन्द्र पहुंचाओत आ दोसर आनत। वैभव बाजल, "आब इंगेज रहत स्वीटी।" 
            ओत' प्रफुल्ल सेहो हल्ला कर' लागल जे ओहो सीखत। मुदा ओकर माता-पिता तय कयलक जे एकरा लेल कोनो म्यूजिकल इन्स्ट्रूमेंट घरमे राखि देल जाय, जाहि पर अभ्यास करत। तकर बाद जेहन रूचि हेतै, करत। स्कूल-ट्यूशनक बाद पहिने एतेक इंगेज तं रहय।"

मुदा बाबीकें पोताक चिन्ता सालैत रहलनि। पोतीक सेहो। पतिकें कहलनि, "अहांकें नहि लगैए जे दुनू बच्चा पर बोझ बेसी भ' जेतै?"
            "हं, बोझ कने बढ़तै, मुदा ई सभ सीखब शुरू करबाको समय तं यैह छै।"
            पत्नी बजलीह, "से जे कहियौ।"
            अधरतियामे पत्नीक निन्न टुटलनि। पतिकें उठौलनि। पतिकें लगलनि जे काल्हि भोरे घुरबाक छनि, तें निन्न उचटि गेलनिहें। पुछलनि, "की भेल?"
            "अएं यौ। ई धियापुता सभ नीक नहि बनतै तं अपना दुनूकें केओ माफ करत वा अपने दुनू गोटें स्वयंकें माफ क' सकै छी?"
  ‌‌          पति सकदम। कनेकालक बाद बजलाह, "चिन्ता नहि करू। अपना सभक समयक हिसाबसं आजुक समयकें नहि तकियौ।"
             प्रात भेने ड्राइंग रूमसं बहराइत काल सुलेखाकें कहलनि, "जाइ‌ छियह। मुदा समय-कुसमय अबैत रहबह। दुनू बच्चाके अपने पोता-पोती सन राखिहह।"
            ‌‌‌             -------

Tuesday, August 1, 2023

नाच (मैथिली कथा) : प्रदीप बिहारी


नाच

प्रदीप बिहारी


सरस सिनेहीकें निर्देशक पर तामस उठल रहनि। तामस एहि दुआरें‌ उठल रहनि जे निर्देशक नाटकक आरंभिक दृश्य बदलि देने छलाह। केहन बढ़िया अल्लू बम चौकी पर बजारल जाइक आ जहिना लोक सुनय 'फटाक', तहिना पर्दा घिचनिहार रस्सी घिचय आ मंच पर सजल-सजाओल दृश्यक संग कलाकारकें‌ लोक देखय। नाटक शुरू भ' जाइक। मान्यता रहैक जे, जे जतेक जोरसं संवाद बाजय, से ततेक पैघ कलाकार।
       मुदा राजनारायण डाक्टर दू मास पर दिल्लीसं घुरलाक बाद नाटकक रूपे बदल' पर लागल रहथि। चाहैत रहथि जे पहिले दृश्य मे सभ कलाकार कोरसक रूपमे मंच पर नचैत आबय, नाटकक मुखगीत गाओल जाइक, मंचक दू-तीन फेरा लगा क' नेपथ्य मे चलि जाय। 
        नब ढंगक एहि आरंभक पक्ष-विपक्षमे गाममे दुगोला सन भ' गेलैक। एक गोल कहैक जे परिवर्तन जरूरी छै, सभ बेर एक्के रंगक आरंभसं मोन ओंगठि गेल छै लोकक। दोसर गोलक लोक कहैक जे एहिसं पात्रक गोपनीयता नहि रहतै। लोक के नब-नब दृश्य मे नब कलाकार के देखबाक आतुरताक आनन्द नहि रहि पौतैक। सरस सिनेही सेहो विरोधिए पक्षक रहथि, अपितु ई कहल जा सकैछ जे विरोधी पक्षक अगुआ छलाह। मुदा हुनक जुति नहि चललनि। निर्देशक राजनारायण अपन निर्णय पर कायम रहलाह। गाममे हुनक विरोध करब मोश्किल बात। पछिला बीस बरखसं वैह निर्देशक होइत रहलाह। ओ राजस्व विभागक कर्मचारी छलाह आ गमैया डाक्टर सेहो छलाह। मेटेरिया मेडिकाकें घोंकि होम्योपैथिक डाक्टर कहाथि, मुदा एलोपैथिकसं सेहो परहेज नहि छलनि। रोगीक दुख छुटक चाही, खाहे कोनो पैथीसं होअय। रोगीक दुख छुटि जाइक, बस...। गौंआके आर की चाही? 
       नाटकक नीक कलाकार होइतहुं सरस सिनेही निर्देशक डाक्टर राजनारायणक सोझां ठठि नहि सकलाह। हुनका नाच' नहि अबैत छलनि। समूह नृत्यमे स्टेप मिलायब हुनका लेल कुनैनक गोटी सन तीत छलनि। सात दिन धरि रिहर्सलक बादो स्टेप नहि मिललनि, तं निर्देशक हुनका अभिनयसं हटा क' नेपथ्यक काज थम्हौलखिन। कने-मने गुल-गुल चललै‌ गाममे। मुदा सभ शान्त। विरोध पर‌ दरी ओछा देल गेलै।
         सरस सिनेही सोचलनि जे‌ ओ नेपथ्यक काज नहि करताह। सभ दिन हीरो के पाट खेलाइ छलाह आ आब मेक-अप करताह वा वस्त्र-विन्यास करताह वा मंच-सामग्रीक ब्योंत करताह वा अल्लू-बम पटकताह वा परदाक डोरी घिचताह। नहि, एहन कोनो काज नहि करताह। गाममे अपन छवि खराप नहि करताह। बड़ समझौता करताह तं सेकेंड हीरो के पाट क' सकैत छथि। ओहिसं नीचां नहि खसताह। 
          तखनहि एकटा बात मोन‌ पड़लनि। निर्देशक राजनारायणकें जे कलाकार पसिन नहि पड़ैत छनि तकरा ओ बीच नाटकमे नाकाम क' दैत छथि आ दर्शक सभ पिहकारी मार' लगैत छैक। कारण प्रचलित मान्यताक कारणें निर्देशके प्राम्पटर सेहो होइत छल। जाहि पात्रकें ओ नहि चाहथि, ओकर संवाद एतेक स्थिर सं बाजथि जे ओ सुनबे ने करय, मंचे पर अकबका जाय। दर्शक सभ बुझै जे कलाकार पाठ बिसरि गेल आ पिहकारी शुरू । जं कोनो कलाकार अपना मोने संदर्भ के जोड़ैत कोनो दोसर संवाद बाजि‌ दिअय, तं राजनारायण तामसे फुच्च। परदाक पाछां लालटेम वा टार्च देखौनिहार पर तमसाथि आ चुप भ' जाथि। परदा घिचनिहार देखय जे कलाकार सभ चुप अछि तं परदा खसा दिअय। नटुआक नाच शुरू भ' जाइक आ नेपथ्य मे संसदक सत्र चालू। अपन अवज्ञाक बहन्ने निर्देशक राजनारायण रुसि जाथि। फेर मान-मनौव्वलि होनि आ नाटक शुरू होइक।
        ई सभ बात एहि दुआरे होइक जे बेसी कलाकार पाठ यादि करब अपन शानक विरुद्ध बुझय। ओहि गामक त्रिदिवसीय नाटकक‌ आयोजनमे कम-सं-कम‌ एको राति एहन घटना होयब सोहाग-भाग रहैक।
        सरस सिनेही सोचलनि जे प्रतिष्ठा बचयबा लेल नीक बात यैह जे नाटकक एहि सत्ताधारी मंडली सं हटि जाथि। देखताह जे हुनक अभाव गौआं सभकें कतेक खटकैत छनि?
         सरस सिनेही जी पहिने मात्र सिनेही रहथि। गामक नाटक छोड़लाक बाद कविता लिखबाक अभ्यास कर' लगलाह। नाममे जोड़लनि सरस। भ' गेलाह सरस सिनेही। मोनमे भेलनि जे नाम बदलने किनसाइत भाग्य बदलि जानि।
         से भाग्य बदललनि सिनेही जीक। नोकरी भेटि गेलनि आ गाम छोड़' पड़लनि। शहरमे अयलाह। पड़िकल मोन कतहु मानय? ताक' लगलाह नाट्य मंडली आ साहित्यिक संस्था सभकें। भेटबो कयलनि। नाटक आ कविता चल' लगलनि। मुदा, एकटा बात भेलैक। शहरोमे 'रियलिस्टिक प्ले'क अवस्था बदलल जा रहल छल। 'म्यजिकल प्ले' रंगमंचक केबाड़ ढकढ़काब' लागल छल। सरस सिनेही रियलिस्टिक प्ले मे सहज रहथि मुदा म्युजिकल प्ले मे असुविधा होम' होनि। मुदा, ओ ताहिसं डेरयलाह नहि। जखने रिहर्सल कर' जाथि कि गामक राजनारायण डाक्टर मोन पड़ि जाथिन। मोन पड़थिन निर्देशक आ प्राम्पटर राजनारायण। आ मोनकें बान्हथि। नहि, एत'सं पड़यताह नहि। सिखताह नृत्य। कम-सं-कम ओत्तेक अबस्से जतेक नाटकमे खगता होयतैक।
          से, सरस सिनेही नृत्य सिखलनि। 
          एकदिन पत्नी कहलखिन, "यौ, नाच सिखलहुं से एकबेर हमरो देखाउ ने।"
          पत्नीक गपकें 'फेर कहियो' कहि टारि देलनि। ओ कोठरी बन्न क' टेप रेकार्डर पर कैसेट बजौलनि आ नाचबाक उपक्रम कयलनि। मुदा पयर उठबे ने कयलनि।बेर-बेर प्रयास कयलनि। तैयो ओहिना। 
          जा, ई की भ' गेलनि? आब नाटक‌ कोना करताह? सांझखन रिहर्सलमे जयबाकाल तनाओ रहनि जे कोना करताह? मुदा, रिहर्सल मे कोनो असुविधा नहि भेलनि। तखन? निर्देशककें कहलनि तं कहलकनि, "किनसाइत संकोच होइत हैत। नृत्य कर' काल मोनमे राखू जे मंचे पर क' रहल छी। तहिना करैत रहब तं धाख टुटि जायत। बयस बढ़ने किछु गोटे के एना होइत छनि।"
          "मुदा मंच आ आन ठाम मे फरक होइ छै ने।"
          "एही बात के मोन सं हटा दियौ।"
          मुदा, सरस सिनेही जीक मोनसं से बात हटि नहि सकलनि। हटितनि कोना? स्वयंकें यथार्थवादी शिल्पक अभिनेता मानथि।
          
राति चढ़ल नहि रहैक। साढ़े सात बजैत हेतैक। टी वी देखैत छलाह। ककरो मूड़ी छोपि लेल गेल रहैक, सैह समाचार टी वीक सभ चैनल पर अनघोल मचौने रहैक।
चैनल सभ विशेषज्ञ आ विभिन्न पार्टीक नेता सभकें बजा-बजा बुझू जे नचा रहल छल। ओ सभ अपने ताले‌ नाचि रहल छल। सिनेही जी कें मोन पड़लनि जे बुलडोजर मिशन पर सेहो एहने नाच होइत रहै टी वी पर। ओहू सं बेसी तं लिव इन मे रह' वाली छौंड़ीके पैंतीस टुकड़ी क' देबाक घटना पर भेल रहैक। सि‌नेही जी सोचैत रहलाह‌ जे पैंतीस खण्डकें बुझू जेना पैंतीस टा तालमे पियाजुक खोइया हटा-हटा हत्याक प्रक्रिया कें बुझाओल जाइत रहैक। किछु गोटें अबस्से सिखने होयत। 
         टी वी बन्न करबा लेल रिमोट उठौनहि रहथि कि बाट पर बजैत डी जेक ध्वनि कोठरीके थरथरा देलकै मने। तखनहि पत्नी भीतर अयलीह आ बजलीह, "यौ अहां बहीरो छियै?"
        "से किएक?"
        "एत्तेक जोरसं डी जे बाजि रहल छै‌ से सुनै नहि छियै? चलू बाल्कनीमे। देखियौ कोना नृत्य करैत अछि छौंड़ी-मौगी सभ।"
        "हं डी जेक थरथरी हमरो बुझाएल। चलू।"
         पति-पत्नी बाल्कनी मे ठाढ़ भ' बाट दिस तकलनि। देखिते सिनेही जी बजलाह, "एकरा अहां नृत्य कहै छियै? ई सभ त' धमगज्जर ताल पर नाचि रहल अछि। मुदा, ब'र बला गाड़ी नहि देखै छियै।"
         "बरियाती थोड़े छै जे देखबै।"
         "तखन?"
         "कुमरम कर' जाइ छै। हे वैह देखियौ। ब'र के माथ पर पीयर धोती राखि क' एकटा मौगी जा रहल छै। मने, बिधकरी हेतै।"
         "मुदा, ओ छौंड़ा तं जिन्स पहिरने छै।"
         "ताहिसं की? अपना सभ सन नहि‌ छै। मुदा नाच  तं आब अपनो सभ मे‌ होम' लगलैए।"
         "हे देखियौ। कोनो मौगी के नाच' अबै छै? लगै छै जेना हाथ-पयर भंजैत होअय आ देह पटकैत होअय।‌ भूत लागल होइ जेना। जानि नहि, एहि मे कोन आनन्द भेटै छै। यैह देखाब' हमरा घिचने अनलहुं अहां?"
         "जे होइ। जहिना होइ। उत्सव के भोगैए ने। बेजाय नहि मानू, अहूं के तं नाच' नहिए अबैए।"
         पत्नीक ई बात छक् द' लगलनि सिनेहीकें। मुदा, सहि गेलाह। सोचलनि, पत्नी हुनका नचैत नहि देखने छथिन, तं यैह ने बुझतीह। गंभीर स्वरमे बजलाह, "भोगत की? केओ भोगा रहल छै। जानि नहि कुमरम‌ मे एहन तं बियाहमे केहन हेतै? चलू, चाह पिआउ।"
         ताबत कुमरमक जुलूस सेहो आगां बढ़ि गेलैक।

समधौतक बियाह तय भ' गेल रहनि। तैयारीमे लागल छलाह। एही क्रममे पत्नी कहलखिन, "आभासक बियाहमे नचबै ने?"
         "हं, आब सैह बाकी रहि गेल-ए। नाचू ग' अहां। आ अहूं सोचियौ जे समधियानामे रहब। समधि-समधिन भ' क' नचबै, से नीक हेतै?"
         "हेतै ने किए? आब गेलै जमाना। ओत्ते टा रिसॉर्ट मे बियाह हेतै, मेहदी हेतै, हल्दी हेतै, बियाह हेतै। सभ टा के शोभा-सुन्दर नाचे-गान ने। दोसर बात समधि अहां के छोड़ताह थोड़े। मानसिक रूप सं तैयारी करैत रहू।"
          सरस सिनेही कें लगलनि जे ई गप पत्नी नहि, राजनारायण डाक्टर कहि रहल छथि। भय आ तामस, दुनू मोनमे उपजि गेलनि।
          "सैह कहै छी, घिनेबै नहि ओत'।"
          "एखनि बड़ दिन बाकी छै।"
          "यौ, बियाह-दानक तैयारीमे दिन कोना ससरि जाइ छै, से बुझाइ छै? बेबी तं डान्स क्लास ज्वाइन क' लेलनिहें।"
          "से किए?"
          "भायक बियाहमे नाच' लेल। विभिन्न उत्सवक तीन-चारि टा क' गीत सभ पर प्रैक्टिस करा रहल छनि।"
         "अहूं किए ने ज्वाइन क' लैत छी। एतहु तं सुविधा छै।"
         "हमरा कोनो अबैए नहि। स्कूले समय सं सिखने छी। ई दोसर बात जे अभ्यास छुटि गेल अछि। हम घरे मे  अभ्यास क' लेब। अहां जकां नहि अछि जे पयर मे जांत बन्हा जायत।"
         "एना निकृष्ट नहि बुझू हमरा। हमरा कोनो नाच' नहि अबैए। कार्यालयी दबाओक कारणें रंगमंच छुटि गेल अछि। हमरो नाच' अबैए मैडम, मुदा हम अहां सभ सन धमगज्जर ताल पर‌ नहि नाचब।"
          "एकर माने बियाह-दानमे लोक बिनु रिदमेक नचैए? धमगज्जर करैए? कवि जी! भ्रम मे नहि रहू। लोक आनन्द लेल नचैए।"
         "आनन्द लेल तं अपना मोनसं नाचैए लोक। अहां जे कहै छी, ताहिमे लोक देखाउंसे नचैए, दोसर के देखब' लेल नचैए। अपने मोने नहि नचैए। नचेनहार केओ आर छै, तकरा नहि चिन्हैए। खाली नचैत रहैए।"
         "गलत। एकदम गलत। नाचबाक अपन-अपन स'ख-सेहन्ता होइ छै आ स'ख-सेहन्ता आनक मोने नहि होइ छै। आब तं ब'र-कनिया सेहो नाचक प्रैक्टिस करैए।"
         "बेस, आब तं..."
         बिच्चहिमे पत्नी रोकि लेलखिन, "बस, चुप भ' जाउ। आब अहां की कहब से बूझै छी। आब अहां लग अंतिम अस्त्र अछि- कवियाठी करब।"
        सरस सिनेही चुप भ' गेलाह। मोबाइल खोलि क' देख' लगलाह।
         मोबाइलमे रील, फेसबुक-स्टोरी आ यूट्यूब बेराबेरी देखलनि। खाली नाच, विभिन्‍न प्रकारक नाच। इंगेजमेंटक दृश्यमे लड़की नचिते लड़का लग जाइत छै। आर सभ ओकरा संग स्टेप मिलबैत छैक। पार्श्व गीत एहन, जकर बखान नहि। अकबका गेलाह।  निर्णय नहि क' पाबथि जे कोन नाच ठीक छैक? ओ सभ करैत छलाह, से वा एहिठाम देखि रहल छथि, से। आ मोबाइलमे जे नाच देखैत छथि, तकर व्यू तं लाखो-करोड़ो मे होइत छैक। सोचलनि सिनेही जे एहि मामिलामे ओ अल्पसंख्यक छथि मने।
         समधौतक बियाहमे 'हल्दी'सं एकदिन पहिने नहि पहुंचि सकलाह। तें पत्नीक मोन झूस छलनि। छुट्टी नहि भेटलनि।‌ एना बिदा भेलाह जे 'हल्दी'क समय‌ धरि पहुंचि जाथि।‌ पत्नीकें एकटा 'इवेंट मिस' भ' गेल रहनि। चूंकि कन्यागत सेहो ओही रिसॉर्टमे रहथि तें वियाहसं एकदिन पहिने कन्यागतक ओहिठाम 'मेहदी'क कार्यक्रम रहैक आ ताहिमे दुनू पक्ष सम्मिलित भेल छल। जमि क' नाच भेलै।‌ लगलै जेना दुनू पक्षक बीच प्रतियोगिता भ' रहल होइक। 
          ई सभटा बात पुतौहु व्हाट्स एप पर लिखने रहनि आ वीडियो क्लिप पठौने रहनि। ओ इयर फोन लगा क' वीडियो देखि रहल छलीह। रहल नहि गेलनि तं सिनेही जी कें कहलनि, "अहां बड़ निशोख लोक छी। एत्तेक सुन्दर प्रोग्राम छुटि गेल। के-के ने नाचल। एकटा हमहीं...। अपना नाच' अबितनि तखनि ने...!"
          "हमरा ऑफिस मे छुट्टीक हाल तं बुझले रहैए। एहन छल तं दस दिन पहिने किए ने चलि गेलहुं?"
          "हे, अकरहक लीला नहि करू। ओहो सभ एके दिन हल्दी आ बियाह राखि लेलनि। लोक की इंज्वाय करत?"
          "एहिनो होइ छै। रिसॉर्टक खर्च बूझल अछि? तें एके दिनक खर्चमे दुनू बीध रखलनि समधि।"
           "अहूं सं पुछनहि हेताह आ अहां दही मे सही लगा देने हेबनि। यौ कवि जी! एक्केटा तं बेटा छनि समधिके। ओत्तेक सम्पत्ति! हाथ खोलि क' खर्च कर' दीतियनि ने।"
           "सभटा बात अहीं बूझि जेबै?" कने थम्हैत बजलाह सिनेही जी, "अहांके नाचबाके अछि ने। एके दिनमे दुनू कार्यक्रम छै। नचैत रहब भरि दिन।"
          "तेना नहि ने होइ छै। लोक थाकियो जाइए, बोर सेहो भ' जाइए।"
          तखनहि मोबाइल पर आंगुर तेजीसं चल' लगलनि। किछु ताक' लगलीह। मोबाइल पर चलैत आंगुरे सन तामसे सांस सेहो तेजीसं चल' लगलनि। सिनेही जी पुछलनि, "की भेल?"
          लगलै जेना टेन अनचोके रुकि गेल होइ। मुदा नहि, टेन चलैत रहै। 
         "देखियौ, मेहदी बला प्रोग्राम मे मिथि कतहु‌ नजरिए ने आबि रहल छै।"
          मिथि हुनका दुनूक छओ बरखक पोती छनि।
          "मोन तं ने खराप भ' गेलै मिथिक? वीडियो मे कत्तहु ने देखाइत छैक।"
          सिनेही जीकें सेहो चिन्ता भेलनि।
          "बेबी के व्हाट्स एप करियौ ने। पुछियौ।"
          बेबीक व्हाट्स एप पर कौल भेल।
           "नहि, मम्मी जी। मिथि नहि नचलै।"
           "किएक? ओकर मोन ठीक छै ने?"
           "हं, ठीक छै। मिथि बाजलि जे ओकरा नाचबाक मोन नहि छै। हमहूं सभ छोड़ि देलियै। आर कोनो बात ने।"
           "ओ भरतनाट्यम सीख' जाइत अछि ने?"
           "हं, ओकर गुरुआइन अगिला मास एकटा कार्यक्रम क' रहल छथिन। ताहिमे मिथिक शो सेहो हेतै।"
           "बेस। इन्ज्वाय करू। काल्हि दुपहर धरि हमहूं सभ पहुंचि जायब।"
           "ओ के मम्मी जी।"

कतोक बिगहामे पसरल रिसॉर्ट मे भव्य आयोजन रहै। जखने सिनेही सपत्नीक पहुंचलाह तं समधि-समधिन स्वागत कयलखिन आ कहलखिन जे झट द' तैयार भ' ग्राउंड फ्लोर पर आबधि। हिनके दुनूक प्रतीक्षामे 'हल्दी'क कार्यक्रम रुकल छलैक।
        यंत्रवत दुनू पहुंचलाह आ शुरू भेलै बीध। कने दूर पर डी जे चिचिआयल। एक-दोसरासं गप करबाक परिस्थिति नहि रहैक। सभ नाचब शुरू कयलक। वीडियो बला बुझू विभिन्न तालमे दृश्य 'कैप्चर' क' रहल छल।
         मिथि माम लग बैसलि मुस्किया रहल छलि।
         बीध समाप्त भेलाक बाद अपन कोठरीमे सरस सिनेही ओछाओन पर ओंगठल रहथि आ टी वी देखबाक प्रयास क' रहल छलाह। हाथमे रिमोट छलनि। चैनल बदलैत रहलाह। एक्के रंगक समाचार। सोचलनि जखन समाचारमे एक्के आदमी छैक, तं केहन हेतै समाचार? एक्के रंगक ने। कतहु रामायण पर टिप्पणी, तं कतहु कुरान पर। कतहु हनुमान चालीसा बला विवाद तं कतहु बाट पर नमाज पढ़बाक बात । कोनो नेता जेल गेलाह, तं कोनो अपन पार्टीसं बहार कयल गेलाह। सभ पर गरम-गरम बहस। बहस कयनिहार सभ अपन-अपन नेताक गुणगान मे बेहाल। 
           सिनेही सोचलनि। अपन देशमे मने सदिखन कोनो-ने-कोनो चुनाओ होइते रहै छै। तें टी वीक समाचार चैनल सभ पर नाच सेहो होइते रहैत छै। 
           टी वी बन्न कयलनि सिनेही। मोन पड़लनि। एकटा प्रोफेसर साहेब कहैत रहथिन- मानल जे बियाहक बीध टी वी बाटे दिल्ली सं आबि अपना सभकें छापि लेलक। एकर माने ई नहि ने जे आबो बरदे गाड़ी पर बरियात जाय लोक?
          सिनेहीकें बुझयलनि जे राजनारायण डाक्टर दिल्ली चलि गेलाह अछि।
          तखनहिं समधि कोठरीमे अयलखिन, "समधि! पड़ल किएक छी? चलू ने।"
         "कत'?"
         "रूम नम्बर दू सय आठ मे? साफा बन्हबा लिअ'।"
         "पागक व्यवस्था नहि छै?"
         "नहि। पाग बेसी काल माथ पर नहि टिकै छै। डान्स कर' मे खसि पड़बाक बेसी संभावना।"
         "तेहन बात नहि छै। आब पागक बनौट मे सुधार भेलैए।"
         "तैयो नाच' कालमे खसि पड़बाक खतरा रहै छै। ओना साफा सेहो अपने सभक शिरो परिधान छल ने।"
         सरस सिनेही माथमे साफा बन्हबा क' अपन कोठरीमे अयलाह आ बड़का अयनामे स्वयंकें निहारलथि। माथ भारी लगलनि।


बियाह-दान सम्पन्न भेलै।‌ अपन कोठरीमे अयलाह तं पत्नीसं पुछलनि, "अएं यै, कनियाकें ओत्तेक भारी आ जबदाह लहंगा किएक पहिरा देलकै जे बेदीक चारुकात घुम' काल दू गोटेकें पकड़' पड़ैक।"
           "से सभ नहि बुझबै अहां। सभटा स'ख-मनोरथ होइ छै। बियाह दोबारा थोड़े होइ छै।"
          "मर, हम पुछै छी किछु आ अहां उतारा दै छी किछु।"
          "तं सही बात कहि क' अहां सं के बतकुट्टनि करय। थाकल होएब। सूति रहू।"
          सिनेही पत्नी लग आत्मसमर्पण कयलनि, "बेस। अहूं कम थाकल नहि होयब। खूब नचलहुं अछि।"
          पत्नीकें जेना किछु मोन पड़लनि, "अएं यौ, समधि संगे तं अहूं के नचैत देखलहुं। हमरा सोझां पयरे ने उठय आ समधि संगे तं...। मुदा..."
          "की?"
         "मंचक दुनू कातक पर्दा पर लाइव वीडियो देखाइत रहै, ताहिमे अहांक डान्स नहि देखलहुं।"
          "नहि देखलहुं तं की भ' गेलै? भने नहि देखलहुं।"
          "कैमरा बला काटि तं ने देलकै? मुदा लाइव‌मे काटतै कोना?"
         सिनेही जी कोठरीक प्रकाश बन्न कयलनि। बजलाह, "आब अन्हारमे अहांक मुंह सं एक्को टा शब्द नहि बहराय।"
          कनिए कालक बाद पत्नी फोंफ काट' लगलीह। मुदा, सिनेही जीकें निन्न नहि भेलनि। बौआय लगलाह।तीन दिन पहिलुक बजारक ओ घटना मोन पड़ि गेलनि।‌
बजनिहार तं सामान्ये गप सन बजलाह, मुदा सिनेही जीक लेल ओ घटने सन छलनि।
          राजनारायणे डाक्टर सन हुनको शहरमे एक गोटे छलाह। ओहि साहित्यिक संस्थाक अध्यक्ष, जाहिसं कहियो सिनेही जुड़ल रहथि। ओहि संस्थाक बैनरमे किछु नाटक खेलायल छलाह। एक समय हुनका शहरमे जगजियार छल ओ संस्था, मुदा नहूं-नहूं ओकर अधोगति शुरू होम' लगलैक। बीच शहरमे संस्थाक करीब अढ़ाइ कट्ठा जग्गह रहैक, जे जन सहयोगसं अरजल गेल रहैक। सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट सं पंजीकृत संस्थामे अध्यक्ष-सचिव बनबा लेल उतराचौड़ी शुरू भ' गेलैक। सदस्य सभ एक-दोसराकें छिटकी मारबा पर बिर्त होइत गेलाह। मुदा सभ छिटकी अंततः संस्थेके लगलैक आ संस्था मृतप्राय भ' गेलै। स्थानीय राजनीतिक दुष्परिणामक कारणे सिनेही सन लोक संस्थासं हटैत गेलाह आ राजनारायण डाक्टर सन लोक संस्थाक डोरि धयने रहलाह। छहरदेबाली कयल संस्थाक जमीन, जाहि पर संस्थाक मकान नहि बनि पौलैक, मुंह बौने रहल जे कोनो भागिरथ ओकर उद्धार‌ करतैक। 
           समय बीतैत गेलैक। सिनेही सन-सन पुरान लोक संस्थाक जमीन देखि चुपचाप आगां बढ़ि जाइत छलाह। ग्लानि होनि। एक मोन होनि जे आगां बढ़थि, बनथि भागिरथ। मुदा, दोसर मोन नकारि जानि। डर होनि। ओ की महादेवक तपस्या करताह? आजुक महादेव अपन जटामे ओझरा क' तत्तेक ने दूर फेकि देतनि जे ककरो जनतबो ने होयतैक।
          तीन दिन पहिने संस्थाक पूर्व अध्यक्षक पुत्र बजारमे भेंट भेलखिन। 
          "समितिक जगह दिस गेलियैए?"
          "हं, ओहि बाटे जाइते रहै छी। पहिने एकटा सामुदायिक भवन बनल देखलियै आ आब..."
          "आब मंदिर बनैत देखने हेबै।"
          "जी।"
          "दुनू चीज हमहीं बनबा रहल छियै।"
         "तखन तं खूब खर्च लगैत होयत।"
         "किछु अपनो आ बेसी जन सहयोग सं। किछु विधायक आ सांसदक सहयोग सं। आजादीक अमृत महोत्सव चलि रहल छै, किछु ताहूक मद सभ सं उपरौलियैए। आब अपनेक सहयोग चाही।"
           "हम की सहयोग क' सकै छी?"
           "डेराउ नहि, पाइ नहि मांगब। देखनहि हेबै। नाम देलियैए - उगना महादेव मंदिर।"
          "से तं दू-तीन टा मंदिरक गुम्बद सन देखने रही। बस, जाइते-जाइत। भीतर नहि गेलहुं।"
          "भीतर जैतियै ने। अपने तं पुरान सदस्य छियै। बाबा आ मैयाक मंदिर सोझा-सोझी। कातमे उगनाक मंदिर। गेट पर थोड़ेक जगह बचैत रहै, तं ओत' नन्दी के बैसा देलियनि। हमरा बुते जत्ते भेलै से क' देलियै। आब समाज जानय।"
           सिनेही सोचलनि, समाज रहितैक, तं यैह बनितैक साहित्य आ सांस्कृतिक संस्थाक जमीन पर। मुदा ओ बजलाह किछु आर बात। कहलनि, "समाज की करत? अहां एत' धरि बनौलहुं तं कमान सेहो अपने हाथमे राखू।"
           "से बाबाक सेवा सं हम पयर पाछु थोड़बे करबनि? दू मासक बाद प्राण-प्रतिष्ठाक तिथि बनै छै। आग्रह जे ओहिमे अपने अग्रणीक भूमिकामे रहियैक। कवि-कलाकार सभ के रहबाके चाहियनि।"
           "सीतेश जी, हमर कोनो भूमिका तय नहि करू। ओही समय हमर समधौतक बियाह तय छैक प्राय:। तिथि मिला लेबै, तखने किछु कहि पायब।"
           "सोचने छी जे प्राण-प्रतिष्ठाक अवसर पर पूरे शहरमे कलश यात्रा होइक। नाच-गान होइक। आदि-आदि। पूरा शहर बाबामय बनि जाय। तें अहां अपन समय जरूर रखियौ। संस्थाक एकोटा पुरान सदस्य नहि रहतै, तं की कहतै लोक? आ एकटा आग्रह आर।"
          "की?"
          "हमर पत्नी आ धियापुता सभ मोन बनौने छै जे बाबा, मैया, उगना आ नन्दीक प्राण-प्रतिष्ठा दिन खूब नाचय। मुदा ओकरा सभ के नाच' नहि अबै छै। किछु समय बहार क' थोड़े स्टेप सिखा दीतियै, तं बड़ उपकार होइत। थोड़बो अपने सं सीखि लेतै, तं बांकी लोक सभ के देखि क' टानि लेतै।"
          "ई नाच सिखायल हमरा बुते नहि होयत सीतेश जी। हमरा अपने ने नाच' अबैए।"
          "फुसि नहि बजियौ। अहां के टाउन हॉल मे नचैत देखने छी हम।"
          "ओ समय रहैक। आब पयरे ने उठैए। दोसर गप ई जे जुलूस‌ मे नाच' लेल सिखबाक कोन खगता। नचौनिहार नचा दैत छैक। नाचि लेती कनिया आ बच्चा सभ। अहां चिन्ता नहि करू। आब चलै छी।"
          "बेस, मुदा ओहि दिनक कलश-यात्रामे अपने के आगू-आगू रह' पड़त।"
            सिनेही ओत'सं बिदा तं भ' गेलाह। मुदा, लगलनि जे पयर उठिए ने रहल छनि। पयर दिस तकलनि। पयर उठैत रहनि मुदा स्टेप नहि मिलैत रहनि। चारूकात तकलनि। बुझयलनि जे राजनारायण डाक्टर तं ने देखि रहल छनि।
           पत्नीक खोंखीसं तंद्रा टुटलनि। समधौतक बियाहमे तं तीन दिनक बादे आबि गेलाह। दू मासक बाद कोन बहन्ना बनौताह? 
           सोचलनि। बहन्ना किएक बनौताह। सोझे कहताह जे मंदिरक मूर्ति सभक प्राण-प्रतिष्ठामे ओ कोनो सहयोग नहि करताह। मिथि मोन पड़लनि। मिथि अपन मायकें कहने रहय जे ओ मामाक बियाहमे नहि नाचति। 
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