Wednesday, December 28, 2022

एक और सान्ता क्लॉज : प्रदीप बिहारी की मैथिली कहानी : हिंदी अनुवाद - अरुणाभ सौरभ



मैथिली कहानी

एक और सान्ता क्लॉज

प्रदीप बिहारी

मित्र की तमाम कोशिशों के बावजूद उसे बस में बैठने की जगह नहीं मिली। पटना से चलनेवाली इस बस में लोग ठसाठस भरे हुए थे। मित्र के चेहरे पर जगह न दिला पाने का अपराध-बोध साफ-साफ झलक रहा था। वे अपनी जगह मुझे दे रहे थे, पर मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने मन ही मन उनका आग्रह नहीं मानने का निर्णय ले लिया।

उनकी सीट के ऊपर बने रैक में सामान रख, हम दोनों नीचे उतरे। बस के चलने में अभी देर थी। स्टाफ के चाय-पान कर लेने के बाद ही बस चलती। इस बीच दूसरे यात्री भी बस से नीचे उतर आए।

मित्र ने एक और कोशिश की। उन्होंने कण्डक्टर से कहा, ‘‘तुम्हें पटने में ही मैने कहा था, दरभंगा में एक सीट चाहिए। तुमने आश्वस्त भी किया था। अब बताओ, इनके जैसे बड़े लोग खड़े जाएँगे, यह अच्छा लगेगा? सीट नहीं थी, तो पहले बता देते। इनको इस बस में नहीं बुलाता।’’

कण्डक्टर ने तिरछी निगाहों से मुझे घूरा। मैंने गम्भीर होने का नाटक किया और कण्डक्टर से थोड़ी दूरी पर जाकर खड़ा हो गया।

मुझे लगा कि मित्र की बात उसे प्रभावित नहीं कर सकी। मुझे ‘बड़े लोग’ बताने की बात पर कण्डक्टर को तनिक भी विश्वास नहीं हुआ। वह बोला, ‘‘जमाना लद गया सर! पहले थाना के मुंशी और दारोगा के लिए सीट रिजर्व आता था, अब तो एस.पी. के लिए भी सम्भव नहीं है। आप ही बताइए, किसे उठाकर बोनट पर बिठाऊँ और किसको छत पर लाद दूँ? ’’

खलासी ने मेरी ओर देखा और मित्र से पूछा, ‘‘कौन हैं सर? कोई नेता-वेता?’’

बीच में कण्डक्टर बात काटते हुए बोला, ‘‘बहनचो...! देखने से नहीं लगता है! नेता तो सफेद झक-झक कपड़ा पहने रहते हैं, इनकी तरह जीन्स पर मोटा कुर्ता नहीं पहनते। रोड पर चलते हो, इतना भी नहीं समझोगे तो...’’

मित्र को अजीब लगा। उन्होंने कण्डक्टर को चुप करने की कोशिश की, ‘‘जगह दोगे, तो दो, भाषण मत दो।’’

कण्डक्टर थोड़ा सहम गया। मित्र अनवरत बोलते रहे, ‘‘बहुत बड़े लेखक हैं। कहानियाँ लिखते हैं। इस क्षेत्र के गौरव हैं, देश के भी। जनकपुर जा रहे हैं...’’

कण्डक्टर पर मित्रा की बातों का कोई असर नहीं हुआ। उसके हाव-भाव से ऐसा लगा जैसे कोई हों, उसे क्या लेना-देना।’’

मगर खलासी ने पूछा, ‘‘कैसा लेखक! अखबार में लिखते हैं क्या?’’

मित्र की आँखें उम्मीद में चौड़ी हो गईं, ‘‘हाँ! बड़े-बड़े अखबारों में लिखते हैं।’’

‘‘तो ऐसा कहिए न हुजूर!’’ खलासी बोला, ‘‘हैं पत्रकार, और बताते हैं लेखक। चलिए, जुगाड़ लगाते हैं! चढ़िए बस में।’’

ड्राइवर के पीछे बेंचनुमा जगह पर मुझे एडजस्ट कर दिया गया।

मित्र ने कहा कि मैं उनकी सीट पर बैठ जाऊँ और वे मेरी सीट पर, पर मैंने नहीं माना। उन्हें आश्वस्त किया कि पीठ टेकने की जगह मिल गई है। इस भीड़ में यही बहुत है।

बस के चलते-चलते सुबह हो गई। सुबह की हवा मुझे अच्छी लग रही थी। इस कारण रात की थकावट नींद में बदल गई।

बचपन में सुना था, नींद छूत की बीमारी होती है। इसलिए कार-बस में ड्राइवर के बगल की सीट पर नहीं बैठना चाहिए। बगल में ऊँघने पर ड्राइवर डाँट देता है।

बालमन की यह बात मेरे दिमाग में जमी हुई थी। जब कभी ऐसी स्थिति आती, मेरे जेहन में आता कि ड्राइवर के बगल में बैठने पर सावधान रहना चाहिए। मगर लम्बी दूरी और रात की यात्रा...ये बातें बकवास लगने लगीं।

सोचते-सोचते झपकी के झूले पर सवार मधुबनी पहुँच गया। ड्राइवर सावधानीपूर्वक बस चला रहा था। फिर भी कण्डक्टर उसे ‘वैल्यू’ नहीं देता, उस पर झल्लाता रहता। मुझे इसका आभास इसलिए हुआ कि वह जब-तब ड्राइवर को डपटता रहता, और उस झिक-झिक में मेरी झपकी टूट जाती। शायद, इसलिए बस की रफतार कम थी।

मधुबनी में बस ज्यादा देर रुक गई। मैंने बगल वाले यात्री से पूछा, ‘‘बहुत देर रोक दिया। कहाँ गया ड्राइवर?’’

‘‘यहाँ से दूसरा ड्राइवर जाएगा। देखिएगा...कितना गजब चलाता है!’’ किसी की ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘वो देखिए! ड्राइवर...सरदारजी आ रहे हैं।’’

मैंने देखा, पच्चीस-छब्बीस साल का एक युवा सरदार आ रहा है। वह आया और ड्राइवर की सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर में बस चलने लगी।

यह क्या? सरदार तो बेफिक्र होकर बस चला रहा था। वह किसी-किसी गड्ढ़े में स्टेयरिंग छोड़ देता और दोनों हाथ उठाकर लोगों का अभिवादन करने लगता। मेरे मन में आशंकाएँ घुमड़ने लगीं। न जाने सुबह-सुबह क्या होगा? सड़क किनारे आते-जाते तमाम लोगों को सरदार दुआ-सलाम करते चल रहा था। जहाँ लोग नहीं मिलते वहाँ जोर से हार्न बजाने लगता। आवाज सुनकर बस्ती के लोग घर से बाहर निकल आते। एक-दूसरे के दुआ-सलाम में हाथ हिलाते और संकेत में हालचाल पूछते। बस आगे बढ़ जाती।

थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि छोटे-छोटे बच्चे सरदार से दुआ-सलाम करने अपने दरवाजे पर जमा हो गए। सभी ‘बाय सरदार अंकल’ कहते। जवाब में सरदार भी स्टेयरिंग छोड़ दोनों तरफ खड़े बच्चों को ‘बाय’ कहता।

सरदार की यह लोकप्रियता मुझे मोहने लगी। उसे कुछ कहे बगैर मैं इस स्थिति का अवलोकन करता जा रहा था। मगर स्टेयरिंग छोड़कर बस चलाने की उसकी यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगी। इस जर्जर सड़क पर दुर्घटना हो सकती है।

सरदार के हार्न बजाने की धुन से हर कोई परिचित लग रहा था। बस्ती के बाहर आ जाने पर भी हार्न की आवाज सुनकर, दूर खेत में काम कर रहे बच्चे हाथ उठाकर ‘बाय अंकल’ कहते। सरदार के चहेरे पर प्रसन्नता और सन्तोष का भाव दिखाई देता।

रास्ते में एक बच्चा नंगे खड़ा था। सरदार ने उसकी ओर देखा, उसे ‘बाय’ कहा, और इशारे से उसके नंगेपन का मजाक किया। समझाया, कि नंगा नहीं रहना चाहिए। बच्चे ने शरमाते हुए बाएँ हाथ से अपनी छुन्नी ढँक ली और दायाँ हाथ हिलाकर ‘बाय अंकल’ बोला।

मैंने गौर किया, इस गाँव के बच्चों को सरदार अंकल से दुआ-सलाम करने में खुशी होती है। आत्म-गौरव होता है। सरदार भी इस बात का खयाल रखता कि किसी बच्चे से दुआ-सलाम छूट न जाए।

कण्डक्टर का रवैया अब बदल चुका था, कोई झल्लाहट नहीं, बोलती बन्द!

अचानक बस रुकी। सड़क किनारे कुएँ पर बर्तन माँजने हेतु खड़ी स्त्री को देखकर सरदार ने संकेत से पूछा, ‘‘इतनी देर से...?’’

रास्ते के सभी बस्तियों के लोगों से सरदार का घरेलू रिश्ता जैसा हो गया था। जिससे बात करता, रिश्तेदारों के अन्दाज में जवाब मिलता। वह स्त्री पलटकर बोली, ‘‘तुम्हें बर्तन माँजने के क्या मतलब? खाना तो लौटकर ही खाओगे? ‘जटही’ से लौटो, खाना तैयार रहेगा।’’

सरदार मन ही मन मुसकराया।

अपनी दुनिया में मस्त सरदार आगे चल पड़ा। बस की आवाज सुनकर बच्चों का घर से बाहर निकलकर सरदार अंकल को ‘बाय’ कहना जारी रहा। ये वे बच्चे थे, जिनके नसीब में कोई कान्वेन्ट स्कूल, या ए फोर एपल सिखाने वाले टीचर, या गार्जियन नहीं थे।

एक जगह बस फिर रुकी। सरदार ने हार्न बजाई। एक महिला आँगन से बाहर आई। उसके तीनों बच्चे साथ थे, एक बच्चा पोलियो का शिकार था। महिला ने घूँघट से आधा मुँह ढँक रखा था। कुछ नहीं बोली। उसके चेहरे पर प्रतीक्षा की लकीरें खिंच आईं। बच्चे भी सरदार अंकल को आतुरता से देख रहे थे। सारे चुप थे, मगर बहुत कुछ कहा जा रहा था।

सरदार बोला, ‘‘अधीर मत हो! वह जरूर आएगा।’’

‘‘कब तक इन्तजार करूँ?’’ महिला बोली, ‘‘तुम्हारी ही बस से कमाने गया था। बोल गया था, जनकपुर में काम नहीं मिला, तो बीरगंज-मोरंग की ओर जाएगा। कहाँ आया अब तक? कोई हाल-खबर भी नहीं भेजता!’’

‘‘आएगा! जरूर आएगा!’’ सरदार बोला, ‘‘कोई चिट्ठी-पत्री?’’

‘‘नहीं!’’ महिला बोली, ‘‘भगवान से ज्यादा तुम पर भरोसा है भैया! बाल-बच्चे को भी जवाब नहीं दे पाती हूँ। बाप की याद में ये सूखकर काँटे होते जा रहे हैं।’’

‘‘मन छोटा मत करो, बहन! मैंने कहा था, अब भी कहता हूँ, बहनोई को जरूर धून्ध निकालूँगा!’’

‘‘तुम तो जाने वाले दिन भी कह रहे थे कि मन छोटा मत करो!’’ महिला बोली, ‘‘...कमा कर आएगा तो बाँस-फूस का घर ईंट का हो जाएगा!’’

‘‘सब हो जाएगा, बहन! सब।’’ सरदार बच्चों को ‘बाय’ करते हुए आगे बढ़ने लगा।...बस खिसकने को हुई कि महिला ने सरदार को संकेत से रुकने को कहा। बस फिर रुकी। महिला बोली, ‘‘मुझे शंका हो रही है। पूरे नेपाल में कोहराम मचा है। राजा के हारने के बावजूद माहौल शान्त नहीं हुआ है!’’

‘‘धत् पगली!’’ सरदार बोला, ‘‘ऐसा नहीं सोचते! वह कमा कर जरूर लौटेगा।’’

‘‘सच?’’ महिला बोली, ‘‘भगवान तुम्हारे मुँह में अमृत दें।’’

बस फिर खिसकने लगी। मैंने गौर किया, सरदार की मुसकान खत्म हो गई थी।

मेरा मन किया कि सरदार से कहूँ- आप ही दुखी हो जाएँगे तो बच्चों में खुशियाँ कौन बाँटेगा?’’

पर मैंने कुछ कहा नहीं, मन ही मन सोचा। शायद वह मेरे मन की बात भाँप गया। दुबारा अपनी लय में लौट आया।

सरदार की लोकप्रियता से मुझे जलन होने लगी थी।

‘जटही’ पहुँचकर वह बस से उतरा, और चाय-दुकान की ओर बढ़ गया। मैं भी उसके साथ हो लिया। मैंने उससे बात करने की इच्छा प्रकट की।

उसने अपने सामने वाली बेंच पर जगह बना दी। मैंने मित्र को बुला लिया।

थकान उतारने के लिए सरदार ने अपने जूते-मौजे उतारे और बेंच पर पालथी मारकर बैठ गया। मैंने संक्षेप में उसकी प्रशंसा की। जवाब में वह केवल मुसकराया।

अपने बारे में उसने ज्यादा बातें नहीं कीं। बस इतना कि मधुबनी में रहता है, अकेला है, मधुबनी से जटही तक की सड़क के किनारे के सारे उपेक्षित बच्चे उसके जीने के सहारे हैं।

इसी बीच उसने हम दोनों का परिचय जाना, फिर हमारे प्रति उसका आदर-भाव बढ़ गया। अपेक्षाएँ भी।

उसी समय एक लड़का आया। उसे देखकर सरदार मुसकराया। पूछा, ‘‘अब कब बन्द होगा नेपाल?’’

लड़का बोला, ‘‘परसों।’’

सरदार हमारी तरफ मुड़ा और पूछा, ‘‘आपलोग कब लौटैंगे?’’

‘‘लौटना तो परसों ही है।’’ मित्र बोले, ‘‘कल सेमिनार खत्म होगा। परसों ही लौट पाना सम्भव होगा।’’

‘‘तब तो सर! सुबह-सुबह रिक्शा से लौट जाइएगा। पौ फटने से पहले। वर्ना रिक्शा भी नहीं मिलेगा!’’ लड़के ने कहा।

‘‘यह सेमिनार क्या होता है?’’ सरदार ने जिज्ञासापूर्वक पूछा।

‘‘किसी विषय पर विचार-विमर्श के लिए विद्वानों का सम्मेलन।’’ मित्र ने बताया, ‘‘हम दोनों उसी के लिए जा रहे हैं! ’’

‘‘किस विषय पर विचार-विमर्श होगा?’’

‘‘नेपाल की वर्तमान स्थिति और शान्ति बहाली की समस्या पर।’’

सरदार गम्भीर हो गया। थोड़ी देर के लिए लगा, कहीं खो गया वह। सामान्य होने पर मुझसे पूछा, ‘‘एक बात बता सकते हैं?’’

‘‘क्या?’’

‘‘किसी भी आन्दोलन में निर्दोष ही क्यों मारे जाते हैं? निर्दोष की लाश पर ही क्यों शुरू होती है राजनीति?’’

मैं चुप रहा।

सरदार बोला, ‘‘आपलोग पत्रकार हैं। महत्वपूर्ण सम्मेलन में भाग लेने नेपाल जा रहे हैं। मुझे सलाह दे सकते हैं, मैं अपनी मुँहबोली बहन को कैसे बताऊँ कि पेट के लिए जनकपुर-वीरगंज भटकने वाला उसका पति मारा जा चुका है।’’

हम दोनों चुप रह गए। सरदार बोला, ‘‘मुझे समझ में नहीं आता, मैं किस मुँह से उसके विश्वास का गला घोंट दूँ? आपलोग बता सकते हैं?’’

हमारे होश उड़ गए।

सरदार की आँखों से आँसू बह रहे थे...।

 

खुशियाँ बाँटनेवाले सान्ता क्लॉज को पहली बार रोते देखा था।
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             ‌‌‌       हिंदी अनुवाद – अरुणाभ सौरभ