Thursday, December 7, 2023

'मुनिक मतिभ्रम' (नाटककार योगानन्द झा)क निहितार्थ

'मुनिक मतिभ्रम' (नाटककार योगानन्द झा)क निहितार्थ 

                  विभूति आनन्द

          योगानंद झाक नाम स्मरणमे अबैत देरी स्वतः एकटा कथाक शीर्षक समक्ष मे आबि नाचि जाइत अछि– 'आम खयबाक मुँह' ! मुदा सेहो एसगरे नहि, ओकरा संगे 'रुसल जमाय' सेहो. मुदा दुनूक रचनाकार दू. एक टाक तँ योगानंद झा, आ दोसरक उपेंद्रनाथ झा 'व्यास'. ई दुनू टा कथा हमर तरुण मोनक लेल तँ सहजहि, उक्त दुनू टा कथाकारक लेल सेहो 'आइ कार्ड' बनि गेल छनि ! ओना एहि प्रकारक 'आइकार्ड' बनबाक प्रवृत्ति आनहुँ-आन कथाकार ओ कथालेखिका सभहक संग लागल चलैत रहल अछि...
          मुदा एतय हम सीमित होइत छी योगानंद झा पर. आ से जखन कौलेजिया भेलहुँ तँ हरिमोहन झाक 'कन्यादान' आ 'खट्टर ककाक तरंग'क बाद जे कृति सभ सँ बेसी ध्यान आकर्षित कयलक, ताहि मे प्रमुख रहय 'भलमानुस' ! ई उपन्यास छल योगानंद झाक. फेर तँ पढ़लहुँ जेना तकर प्रतिक्रिया मे 'जयवार', 'बनमानुष' इत्यादि सेहो लिखल गेल. मुदा 'भलमानुस' अपन प्रसिद्धिमे यथावत रहल. आ सेहो 'पवित्रा' उपन्यास अएलाक बादो. ओना तकर एक कारण सिलेबसमे आबि जायब सेहो छल. आ सेहो तहिया जहिया 'टेक्स्टबुक' पढ़क चलन शेष छलै.
          तहिना कथा 'आम खयबाक मुँह' मे, जे तत्कालीन रोमांटिसिज्मक दौर मे लिखल गेल छलै, तरुण सहित प्रौढ़ मोन कें सेहो खूबे गुदगुदौलक. ईहो ध्यातव्य जे योगाबाबू द्वारा तकर बाद एगारह टा आर कथा लिखलाक, अर्थात अपन जीवन मे कुल बारहटा कथा लिखलाक बादो, 'आम खयबाक मुँह'क प्रभावसँ ओ मुक्त नहि भ' सकलाह ! एते धरि जे अपन कथासंग्रहक नाम 'उड़ैत बंसी' रखलाक बादो ओ चेन्ह अमिट रहलनि ! मुदा एत' फेर ईहो स्मरण कराबी जे 'आम खयबाक मुँह' सेहो सतत सिलेबस मे स्थान पबैत रहल...

          ओना आजुक समय मे ओ सभ टा स्थिति, आ स्थिति-चित्र अपन स्मृति जीबि रहल अछि. ओहुना नवीन पीढ़ी कें आम खएबाक प्रेमातुर स्थिति, कनेक कालक लेल जरूर मोनकें घेरि ल' सकैत होयतनि मुदा ओ पूर्वक भलमानुस-जयवार तरहक जिच-जिरह वला स्थिति आब कालातीत भ' चुकल अछि. मैथिलीक साहित्य ताहि तरहक छान-बान्ह सँ आब प्रायः-प्रायः मुक्त भ' गेल अछि.
          तहिना एहि ठाम महात्मा गांधीक आत्मकथाक अनुवादक सेहो चर्चा कएल जा सकैत अछि. योगा बाबू उक्त कृतिक अनुवाद, मैथिली अकादमीक निदेशक रहथि, तखन कयलनि आ प्रकाशन सेहो मैथिली अकादमी सएह कयलक. मुदा ताहि मे हुनक कोनो विशेष अनुवादकीय क्षमता ओ स्फीत दृष्टि, दृष्टिगोचर नहि होइछ.
           हम तें अपन विमर्श हुनक नाटक 'मुनिक मतिभ्रम' पर केंद्रित राखय चाहब. ओना एहू पर विस्तारमे गेलापर जिच ठाढ़ भ' सकैत अछि जे ई नाटक थिक, आकि एकांकी ! तहिना ईहो जे ई कृति इण्टर सँ एमए धरिक सिलेबस मे स्थान पबैत रहल अछि ! 
          एत' मुदा फेर शास्त्रीयविमर्श आबि जा सकैत अछि जे नाटक ओ एकांकी मे की अंतर ! तें एहि सँ बचबा लेल एत' हम नाट्य साहित्य मे प्रथम पीएच. डी. प्राप्त कयनिहार लेखनाथ मिश्रक मंतव्य कें लैत विषय-विमर्श कें आगू ल' जाय चाहब. ओ प्रकाशित शोध पुस्तक 'मैथिली नाटकक उद्भव अओर विकास' मे लिखैत छथि जे पौराणिक एकांकी कोटि मे एहन एकांकी सभ अछि जकर कथावस्तु पुराणसँ गृहीत अछि. एकर अर्थ ई नहि जे कविक कल्पनाक कोनो श्रेय एहि रूपक एकांकी मे नहि अछि. एहिमे कविक कल्पना सेहो प्रश्रय पौलक अछि, किंतु पौराणिक पात्रक अंगभूत भ'क'. एहि रूपक मैथिली एकांकीमे प्रमुख अछि 'मुनिक मतिभ्रम'...
          'मुनिक मतिभ्रम' एकगोट एकांकी नाटक अछि. किंतु एकर अस्तित्व, पूर्ण नाटकक रूपमे मानबा मे किनको आपत्ति नहि भ' सकैत छनि. अनेक दृश्यमे विभक्त रहबाक कारणें एकर कलेवर सेहो ततेक छोट नहि अछि. घटनाक वैविध्य अछि. आ एकर प्रभाव सेहो दर्शक पर एकांकी जकाँ नहि पड़ैछ.

          मुदा मैथिली साहित्यक प्रथम इतिहास लिखनिहार जयकान्त मिश्र एकरा महान नाटक नहि मानैत छथि. अंग्रेजी मे अपन मंतव्य दैत ओ लिखैत छथि जे हम सदाय अनुभव कयलहुॅं अछि जे यद्यपि 'मुनिक मतिभ्रम' साहित्यक एक नीक उदाहरण अछि, मुदा तें ई एकटा महान नाटक नहि अछि, किएक तॅं एकर मंचन नहि कएल जा सकैत अछि.
          एही तथ्य कें ध्यान मे अनैत प्रायः भीमनाथ झा 'परिचायिका'( एकरा 1978 मे मुदा छद्मनाम 'मध्यम पाण्डव' नाम सँ छपबौने रहथि )मे सेहो लिखैत छथि जे एकर कथावस्तु पौराणिक अछि. च्यवन आ सुकन्याक कथा ल' क' लेखक उच्च कोटिक साहित्यिक नाटक तैयार कयलनि अछि. मुदा एकरा मंच पर अभिनीत करब दुष्कर अछि. तें ओहि दृष्टि सँ ई दुर्बल कहल जा सकैछ, किंतु नाटकक अध्येता कें एहि मे नीक काव्यात्मक तृप्ति भेटैछ, ताहिमे संदेह नहि.
          मुदा दू पीढ़ीक एहि दुनू विद्वानक मन्तव्य पर आगू विमर्श सम्भावित अछि. किएक तॅं मंचन-संबंधी दुनू विद्वानक मत अनेक-अनेक दशक पुरान लगैत अछि. तें एखन पहिने विवेच्य एकांकी वा नाटकक कथानक जानि लेब एहि लेल आवश्यक अछि जे आगूक विमर्श कें सुविधापूर्वक बुझबा मे सहायक भ' सकैछ. ओना एकर कथानक किनको लेल प्रायः अज्ञात नहि अछि, खिस्सा रूप मे जानल-सूनल जरूर लागि सकैत अछि. एहि मे तपलीन च्यवन ऋषि आ राजा शर्यातिक पुत्री राजकुमारी सुकन्याक एकगोट अजगुत सनक घटना- कथा गुंफित अछि, आ जे सहीमे नाटकीय घटना-क्रमक दिस इंगित करैत अछि...

          अर्थात् पिता-पुत्री सपरिवार अपन लाव-लश्कर संग वन-भ्रमण लेल निकलैत आ यथास्थान पहुँचैत छथि. आ ओत' जा राजकुमारी सुकन्या, सखी लतिकाक संग घुमैत-फिरैत एकटा जलाशय लग आबि जाइत छथि, जत' एक गोट गाछक नीचा दिबड़ाक भीड़ पर नजरि पड़ैत छनि. मुदा अजगुत ई जे ओहि भीड़मे दूटा भूर रहैछ, जकर अंदरसँ एक विशेष प्रकारक ज्योति बहराइछ. ताहि दृश्य कें देखि राजकुमारी सुकन्याक कौतूहल बढ़ि जाइत छनि आ ओ ओतहि कतहु फेकल शाही-काँट उठा ओहि भूर मे भोंकि दैत छथि ! तखने एक अचरज होइत अछि. अंदर सँ आर्तनादक संग सोनितक टघार निकल' लगैत अछि ! दुनू सखी डरि जाइत छथि, आ चोट्टे ओत' सँ भागि पड़ाइत छथि...
          एतय धरि सभ किछु यथार्थपरक घटना लगैत छै. मुदा तकर बाद एहि कथा मे मोड़ अबैत छै. सम्पूर्ण राज्य, राज्यक जन-जीवन, घोर कष्ट सँ आबि छटपटाय लगैत छै. राजा धरि बेचैन– आब की हो !
          फेर ज्ञात होइछ जे सुकन्या किछु नेनपना कयलनि, आ तकर बादहिं सँ एहि तरहक अनिष्टपूर्ण परिदृश्य उपस्थित भेल छै...
          फेर परिदृश्य बदलैत अछि. ज्ञात होइछ जे ओ पीड़ित स्वर आन किनको नहि, अपितु सैकड़ो वर्ष सँ तपलीन ऋषि च्यवनक छनि, जिनकर आँखि सुकन्या द्वारा कौतूहलवश फोड़ि देल गेल छलनि, आ जकर फल भेल अछि जे पूरा तंत्र एक तरह सँ विकल-बेचैन भ' उठल अछि !
          तकर बादक परिदृश्य फेर बदलैत अछि. राजा प्रायश्चित करबाक हेतु ऋषि लग पहुँचैत छथि. महोजरो आरम्भ होइत अछि, होइते जाइत अछि...
          आकि तखनहि वृद्ध-जर्जर ऋषिक ऑंखि, जे शेष छलनि, सुकन्या पर पड़ैत छनि. आ से देखिते हुनक रूप-लावण्यपर ओ मोहित भ' उठैत छथि. आ फेर तकर बाद तँ ऋषि अपन होसमे नहि रहि जाइत छथि ! 
          एकटा बहुत प्रसिद्ध काव्यखंड, जे आब लोकोक्ति रूपमे प्रसिद्ध अछि– होय बुढ़ारी वयस तँ बुद्धि जाय भसिआय ! से अत्यधिक पीड़ा सँ पीड़ित रहितहुँ च्यवन, मुदा सुकन्या संग पत्नी रूप मे शेष जीवन बितयबा लेल जिद्द पकड़ि लैत छथि. जेना 'तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा' कें चरितार्थ करैत होथि !...
          आब एत' आबि क' ई कथा अपन क्लाइमेक्स पर पहुँचैत अछि. एक दिस षोडशीक प्रति च्यवन ऋषिक लिप्सा, तँ दोसर दिस राज्यक सकल जन-गणक पीड़ा ! मुदा राजा-रानी अपन सुकन्याक एबज मे तेहन त्याग करय लेल तैयार नहि होइत छथि. स्थिति बड़ कठिन ओ दुखद स्थिति दिस बहुत तेजी सँ बढ़ैत चलल जाइत छै. संगहि जेना-जेना समय बीतल जाइत छै, तेना-तेना आमलोकमे हाहाकार बढ़ैत जाइत अछि...
          अंततः कथानक एकटा निर्णायक मोड़ पर पहुँचैत अछि, जखन राजकुमारी सुकन्या अपन निर्णय सुनबैत शेष जीवन च्यवन ऋषिक संग बितयबाक घोषणा क' पूरा परिदृश्ये कें बदलि, सभ कें अचम्भित क' दैत छथि. ई हुनक जनहित मे लेल गेल आत्मनिर्णय, वा परिस्थितिजन्य विवशता, से लेखकीय कौशल सॅं अव्याख्येय छोड़ि देल गेल सन लगैत अछि. 
          आ हमरा जनैत इएह ओ प्रस्थान बिंदु बनैत छै जत' सॅं आब'वला काल्हि मे एहि कथानकपर पुनर्विमर्श करैत मंचनक संभावनाक आधुनिक बनबैत छै ! आ तें हमर मानब अछि जे कथा-विमर्शक द्वार वस्तुतः एतहि सॅं फुजितो छै. ओना एहि ठमकल कथानक पर, विमर्शक आरम्भ हिंदी कथालेखिका सिनीवालीक टटका उपन्यास 'हेति' मे अकानल जा सकैत अछि... 
          ओना एकर आनुषंगिक आर बहुत रास दैवीयकथा सभ सेहो नाटक मे अबैत अछि. देवताक वैद्य अश्विनी कुमार आबि अपन आयुर्वेदीय पद्धतिसॅं च्यवन ऋषिक आँखि ठीक क' दैत छथि. संगहि नाटक मे एकरो संबंध आजुक औषधि 'च्यवनप्राश' सँ जोड़बाक उल्लेख भेटैत अछि. अर्थात एहि औषधिक सेवन जे करताह-करतीह, हुनका सभ मे युवा-स्फूर्तिक स्वतः संचार  होब' लगतनि !...
          संकेत ई जे जाहि वृद्ध संग अपन सुपुत्रीक पाणिग्रहण करयबा सँ संबंधित राजा डरैत रहथि, ओ उक्त औषधि सँ पुनः यौवनावस्थाकें प्राप्त करैत छथि. फेर मुदा तकर बादक कथा एत' मौन अछि. अर्थात विवेच्य एकांकी-नाटक एत' आबि विराम ल' लैत अछि.

          एहि एकांकी-नाटक मे ओना तँ लगैत एना छै जे लेखक प्रचलित कथेक आधार ल' तकरा नाट्यरूप मे गुंफित कैने छथि, मुदा ताहि प्रसंग हुनक मंतव्य किछु भिन्न छनि. ओ लिखैत छथि जे एहि मे संदेह नहि जे नाटक तथा उपन्यास हृदय सँ, सत्यतापूर्वक मानवताक अभिव्यक्ति करैछ, जाहि सँ प्राचीनताक कर्णधार लोकनिक भावनापर आघात पहुँचि सकैत छनि. तें डराइत-डराइत हम एहि कथानक कें ओही रूपमे प्रस्तुत कयलहुँ अछि, जाहि तरहें ओ हमरा हृदय तथा कल्पनामे उपस्थित भेल. तें सुकन्या आ च्यवनक चरित्र पौराणिक आधार सँ भिन्न भेटत. सुकन्याक जीवनक निरर्थकता तथा तुच्छता कें अहाँ अधर्म नहि मानब, से विश्वास अछि. जीवनक यथार्थता एवं सार्थकता मनुष्यक वाह्य आचरण तथा चरित्र सँ नहि ज्ञात भए सकैछ...
          आ एहि तरहें नाटकक कथ्यकें ओ अपन शब्द-जाल मे ओझराबैत सन प्रतीत होइत छथि. मुदा हुनकर जे सकारात्मक मनसा वएह अछि, जकर उल्लेख पूर्व मे कएल अछि. एहि कृतिमे सुकन्याक चरित्र काफी सकारात्मक रूपसँ विस्तार पौलक अछि, मुदा कनेक आर खुलबाक जरूरति छलै...
          एकर भाषा सेहो प्रांजल अछि, आ सांकेतिक सेहो. आ जाहि बल पर विवेच्य एकांकी-नाटकक उद्देश्य, आजुक समयक अनुकूल बनि गेल अछि. 
          ध्यातव्य ई जे विवेच्य कृति, एखन अपन प्रकाशनक एकहत्तरिम वर्ष मे चलि रहल अछि. विषयान्तर होइत एतय कनेक बेसी व्यक्तिगत होइत ईहो उल्लेखनीय जे 'मुनिक मतिभ्रम'क प्रकाशन वर्ष 1953 अछि, आ संयोग एहन जे हमरो जन्म वर्ष सेहो सएह थिक ! खैर.

          मुदा एतेक तरह सँ विमर्शित होइत हमरा कतहु सँ ई बोध नहि भ' सकल जे प्रस्तुत कृति मंचन-योग्य नहि अछि. ओना जाहि समय-कालमे एकर लेखन-प्रकाशन भेलैक, ताधरि ताहि तरहें सोचब कें सही मानल जा सकैत अछि. मुदा जखन हम अपन मध्यकालीन नाटकक इतिहास कें पढ़ैत छी तथा नाटकक धारावाही मंचनक उल्लेख पबैत छी, तखन एहि रहे सोचल जायब सही नहि लगैत अछि. एकर भाषा ओ कथ्य आधुनिक ओ काव्यात्मक अछि जे एक सकारात्मक पक्ष मानल जा सकैत अछि. तहिना एहि एकांकी-नाटक मे सभ किछु स्पष्ट नहि कहितहुँ, संकेत मे सभटा बात कहि जयबाक चातुर्य भेटैत अछि, संगहि बदलैत परिदृश्य, नाटकक अक्षुण्ण मूल कथा-रूप, एकर पौराणिकता कें बेस विश्वसनीयता प्रदान करैत अछि. 
          तें जत' धरि एकरा पाठ्य-नाटकक कोटिमे राखल जयबाक प्रश्न अछि तँ एत' स्पष्ट भ' ली जे आजुक रंग-तकनीक बहुत अधिक विकसित भ' चुकल अछि. सिनेमा जकाँ, अथवा कही तँ ताहू सँ अधिक सही आ विश्वसनीय ढंग सॅं अभिप्रेत विषय कें प्रस्तुत करबामे वर्तमान रंगमंच पूर्ण सक्षम अछि. अंतर एतबे भेलैक अछि जे लेखक लोकनि द्वारा लिखल गेल नाटक कें मंच पर व्यवस्थित आ वास्तविक ढंगे प्रस्तुत करबाक लेल ओकर 'प्रदर्शन आलेख' तैयार क' लेल जाइत छै. आ तें निस्तुकी कहल जा सकैत अछि जे आइ रंगमंचक लेल किछुओ टा असंभव नहि रहि गेल छै...
          एहि संदर्भ मे अपना कें कने-मने विस्तारित करैत कहय चाहब जे हिंदीक सुप्रसिद्ध लेखक जयशंकर प्रसादकें हुनक समय मे जतेक नाटक रहनि, तकरा एहि तर्कक संग कात क' देल गेल रहै जे ई सभ पाठ्य-नाटक थिक. ई मंचनक योग्य नहि अछि. एकरा पढ़ू आ आनंद लिअ ! मुदा ओही सभ नाटक कें अस्सी-नब्बेक दशक मे आबि क' सुप्रसिद्ध निदेशक ब ब कारंत निदेशन कयलनि, से 'ध्रुवस्वामिनी' सँ ल' क' 'स्कंदगुप्त' धरिक !...
          आ ओ जे परंपरा आरम्भ भेल, जे कोनो कृतिक मंचन असंभव नहि अछि, आइ तकरे परिणति अछि जे कोनो एहन साहित्यिक-गैर साहित्यिक विधा शेष नहि रहल, जकर मंचन नहि भ' रहलय. आ से ओ आत्मकथा होइ, आकि रपट-समीक्षा ! बिहार 'इप्टा'क द्वारा अभिनीत आ चर्चित नाटक 'मैं बिहार हूँ' तँ एकगोट अखबारक कतरन मात्र थिक ! तहिना ई पंक्ति लेखक स्वयं साक्षी रहल अछि, जखन सुचर्चित सिने ओ रंग अभिनेता टॉम अल्टर (आब दिवंगत) भोपालक भारत भवन मे एकटा विशेष अवसरपर चचा गालिबक चरित्रक अभिनय, हुनके कविताक आधारपर कैने रहथि ! आ मराठीक रंगमंच तँ अपन नित नवीन प्रयोगक बल पर हिंदी सिनेमाक हृदयस्थली मे ओकर समान्तर चलि रहल अछि. बंगला थियेटरक सेहो सएह त्वरा अछि...
          तखन प्रश्न उठि सकैत अछि जे मैथिली रंगमंचक स्थिति एहि सभ सँ भिन्न अछि. मुदा हम कहब, कोनो टा भिन्नता नहि अछि ! रंगमंचक अपन एकटा अलग व्याकरण होइत छै, जे सभ ठाँ यथासंभव अपन स्थान बना लैत छै. 
          आ ताही संदर्भमे एत' उल्लेख कर' चाहब जे एही मैथिली रंगमंचपर ललितक उपन्यास 'पृथ्वीपुत्र', मणिपद्मक 'फुटपाथ' आ अनिल कुमार ठाकुरक 'आब मानि जाउ'क सफल मंचन भ' चुकल छै. तहिना महेंद्र मलंगिया लिखित 'गोनूक गवाह' खिस्साक संगहि हरिमोहन झाक कथा 'मर्यादा भंग' 'पाँच पत्र', 'कन्याक जीवन' (तित्तिरदाइ), 'पंडितक गप्प', 'मिथिलाक संस्कृति', वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'क 'हीरक जयंती', पं. गोविंद झाक 'पातक मनुक्ख', राजकमल चौधरीक 'ललका पाग', मलाहक टोल, 'कमलमुखी कनियाँ', 'ननदि-भाउज', 'साँझक गाछ', आ सुधांशु शेखर चौधरीक 'भारती', धूमकेतुक 'अगुरवान', सुभाषचन्द्र यादवक 'डर', प्रदीप बिहारीक 'काॅंट' सहित श्याम दरिहरेक 'रक्तसंबंध' आदि कें मैथिली रंगमंच अपन प्रयोग-परिधिमे आनि चुकल अछि. प्रयोग तॅं एकटा कथा लेखकक अनेक कथाक गुलदस्ता बना क' सेहो मंचन भेल अछि, यथा : 'मैथिल नारि : चारि रंग', 'कथा रंग', 'कथा पौती', 'एकादशी', 'घाट पर जाति', 'दुखहि जनम भेल' आदि.
          एतबहि नहि, मैथिली कविताक मंचनक सेहो एकटा सूची अछि, जे मंचित भ' चुकल अछि. तत्काल किछु स्मरण भ' रहल अछि– यात्री-नागार्जुनक 'विलाप', 'गाछ लगाउ', तंत्रनाथ झाक 'उपनयनक भोज, 'सिमरिया डूब' (मुसरी झा) आदि. 
          तहिना स्मरण करी, लोकमहागाथा सभ सेहो मैथिली रंगमंचपर अपन प्रभाकें पसारि चुकल अछि. तावत 'लोरिकाइन' आ 'सलहेस'कें हम स्मारित क' सकैत छी. आ ताही क्रम मे चर्चित लोक-गीत-नृत्य 'सामा-चकेबा', 'जटा-जटिन' कें सेहो ल' सकैत छी. तहिना पारंपरिक गीत-नृत्य 'झरनी', 'डोमकछ' सेहो...

          किंतु एखन तँ हम पौराणिक कथा सभक मंचन-प्रसंग विमर्श क' रहल छलहुँ जे ओहन सभ विषयक नाटक, पाठ्य टा भ' सकैत अछि ! तें एतय हम पुनः विषय विस्तारित करैत सूचित कर' चाहैत छी जे मैथिली रंगमंच एते धरि साहस क' चुकल अछि जे ज्योतिरीश्वरक 'धूर्त्त समागम' आ विद्यापतिक 'मणिमंजरी', 'गोरक्ष विजय'क मंचन तँ कैये चुकल छै, हुनके कथा संग्रह 'पुरुष परीक्षा'क कथा सभ मे सँ लगभग चालीस-चौवालीस कथाकें आकाशवाणी पटना प्रसारित सेहो क' चुकल अछि. आ जकर नाट्यरूपांतरण कयलनि योगानन्द सिंह झा, ओ प्रस्तुति छत्रानन्द सिंह झाक छलनि...
          पौराणिक कथाक मंचन पर जत' धरि प्रश्न उठैत अछि तँ पं. गोविन्द झाक 'रुक्मिणी हरण'क दर्जनो प्रस्तुति एखन धरि भ' चुकल अछि. तहिना उमापतिक 'पारिजातहरण'क लगभग आधा दर्जन सँ बेसी बेर मंचन भ' चुकल छै. एही परिधिमे पारम्परिक 'जानकी परिणय' कें सेहो हम ल' सकैत छी.
          तहिना प्रसंगवश उल्लेख करी जे कथ्यक स्तर पर कनेक अधिक कठिन आ टेढ़ नाटक अछि नचिकेताक– 'नो एण्ट्री : मा प्रविश' ! मुदा तकरहु मंचन क' मैथिली रंगमंच एक तरह सँ असंभव कें संभव क' चुकल अछि. 

          ... आ एतेक रास जे मंचन, आ से कठिन मंचन सभ भेलैक, भ' रहलै अछि, ताहि मे अहर्निश लागल पटनाक 'अरिपन' ओ 'भंगिमा' तथा दिल्लीक 'मैलोरंग'क अविस्मरणीय योगदान रहल अछि. ओना तॅं कलकत्ता, दरभंगा, बेगूसराय, जनकपुर धामक योगदान सेहो कम नहि छैक, आ जकर सभक संपूर्ण गतिविधि ज्ञात नहि रहबाक कारणें उल्लेख नहि कएल.

          अस्तु, एहना स्थिति मे आ आजुक परिप्रेक्ष्य मे रंगमंच लेल एक पंक्ति मे कही तँ 'असंभव' सनक किछुओ शेष नहि रहि गेल अछि. आ तें विवेच्य 'मुनिक मतिभ्रम' एकांकी-नाटकक संदर्भ मे हमर निहितार्थ एतबे अछि जे एकरहु आब' वला समय मे मंचन असंभव नहि छै.
          के जनैत छल जे भारतक 'चंद्रयान' चंद्रलोकक यात्रा करत ! ओहुना, भनहि तॅं भवभूति लिखि गेल छथि– 'कालोऽह्ययं निरवधि विपुला च पृथ्वी'. मने काल अनंत आ पृथ्वी बहुत पैघ. आ तें कतहु-ने-कतहु कहियो-ने-कहियो, हमर समानधर्मा जन्म लेत...