Thursday, September 29, 2022

मौगियाह (मैथिली कथा)- प्रदीप बिहारी


कथा

मौगियाह

प्रदीप बिहारी   

तरकारीक दोकान पर पहिने बेर देखने रहियै ओकरा। हमरे पार्श्वमे ठाढ़ भऽ तरकारी किनैत रहय। हमरासँ पहिने पहुँचल रहय, तें पहिने ओकरे भेटैत रहै तरकारी। हम प्रतीक्षारत रही।
       तरकारीक पाइ देबाक कला हमरा आकृष्ट कयलक। ओ उपरका जबीसँ पाइ बाहर कयलक। एक आइटमक भुगतान कयलक आ घुरती पाइ लेलक। पुनः बटुआसँ पाइ बहार कयलक। लुंगीक फाँड़सँ। आइटम सभक भिन्न-भिन्न ढंगसँ भुगतान कयलक।
        हमरा बूझि पड़ल जे अपना गामक हाट पर ठाढ छी।
        हम तरकारी लेब छोड़ि ओकरा निहारऽ लगलहुँ। भुगतान कयलाक बाद दोकान परसँ चलि गेल। हम ओकर चालि देखैत रहलहुँ। देखिते रहलहुँ।
        हमरा किछु भेटि गेल मने। एहने पात्र तकैत छलहुँ। मोन हल्लुक भेल।
        '‘की सब दिअऽ?’’ परिचित तरकारीबला टोकलक। साकांक्ष भेलहुँ।
        ‘‘ओकरा हिबै छलियै?’’ तरकारिएबला पुछलक।
        '‘हँ! देखलहक नहि। कोना माउगि सन गप्प करैत छलै। मुँह, आँखि, हाथ...सभ ओहिना चलैत छलै। चालि सेहो ओहिना। डाँड़ कोना लचकै छलै।’’ हम बजैत रहलहुँ।
        '‘से अपने आइ देखलियै हन। ई बड़गाड़ी मौगियाह हेबे करै।’’ बाजल तरकारीबाला, ‘‘की दू अपने के?’’
        हम तरकारी लेबऽ लगलहुँ। हमर मोन तरकारी लेबऽसँ बेसो ओकरे पर रहय।
        हम तरकारी लेलहुँ। बिदा होमऽ काल तरकारी बलासँ पुछलियै, ‘‘तोरा ओहिठाम बरोबरि अबैत छह?’’
       ‘‘हँ।’’ रहस्यमय मुस्की पसारैत बाजल तरकारीबला, ‘‘कोनो काम हय? बोला दू। एनही घुमब करै होतै बड़गाही।’’
       '‘नहि, छोड़ह।’’ हम मना कयलियै, ‘‘दोसर दिन भेंट करबै। कतऽ रहै छै?’’
        अचरज लगलैक तरकारीबलाकें, ‘‘अपने नञि जनै छिकियै?’’
        ‘‘अहंऽ।’’ 
        ‘'हमे बुझली जे अपने जनै छिकियै आ ओही जग के काम हय।’’ बाजल तरकारीबला, ‘‘इंडियन आयलमे रहै हइ। नाम हइ- मिरदंगी। काल्हि औते। अपने अइथिन, तऽ भेंट करा देबनि।’’
       हम बिदा भऽ गेलहुँ।
       मिरदंगी। ओकर नाम।
       इंडियन आयल।
       एहि शहरमे एकटा देह व्यापार केन्द्र छैक। इंडियन आयलक पेट्रोल पम्पसँ सटले कातमे। तें एहि केन्द्रकें लोक -'इंडियन आयल’ कहैत छैक। किछु गोटे 'पेट्रोल पम्प' सेहो। बेसी लोक ‘इंडियन आयल’ कहैत छैक।
       मिरदंगी माने ओही केन्द्रक टहला।
       राति भरि मिरदंगी हमरा मोनमे ढोल पीटैत रहल। ठीक एहने चरित्र छै प्रस्तावित नाटकमे। निर्देशन हमरे करबाक अछि। दोसर कलाकारकें सीखाबऽ पड़त। ई तँ प्राकृतिके अछि।
       दोसर दिन संस्थाक किछु वरिष्ठ कलाकार आ सहायक निर्देशकसँ मिरदंगीक मादे गप्प कयल। ओ लोकनि पहिने प्रतिवाद कयलनि। किछु प्रश्न ठाढ़ भेलै। ‘इडियन आयल’ मे रहै छै, तँ कोनो-ने-कोनो रोग होयतैक। अन्य कलाकार सभ सेहो प्रभावित भऽ सकैछ। आदि-आदि...।
       अंततः निस्तुकी ई भेलैक जे मिरदंगीक डाक्टरी परीक्षण कराओल जाय। जँ ठीक-ठाक रहल, तँ ओकरा आनल जाय। एकटा आर शर्त रहैक जे मिरदंगीक कोनो दोसर ठेकान कहल जाय- आन कलाकार सभकें।
       मुदा ई सभ मिरदंगी मानय तखन ने।
       मिरदंगी मानलक। मुदा हमरा पानि पिया कऽ। ठेकानक मादे फुसि बाजऽ लेल तैयारे ने रहय। बहुत रास गप्प आ तर्कक छान-पगहासँ मानलक।
       डाक्टरी परीक्षणकें अपन संस्थाक बीध कहि ओकरा लग रखने रही तं ओ गंभीर होइत बाजल रहल, ‘‘बूझि गेली। हमे आर जइ ठाँ रहै छिकियै, ओइ ठाँ के लोक के कोनो...। अपने जे बहन्ना बनबियौ। हमे बुझै छिकियै।’’
       मिरदंगी मानि गेलि। ओ नाटक करत।
       मिरदंगीक डाक्टरी परीक्षण भेलै। पूर्वाभ्यासमे आबऽ लागल।
       ओकर शर्तक अनुसार रिहर्सलक समय बदलऽ पड़ल। साँझक बदला भिनसर नओ बजेसँ।
       रिहर्सल चलऽ लगलैक। संवाद याद करबाक आ बजबाक अभ्यास चलैत रहैक।
       एकदिन, रिहर्सल समाप्त भेलाक बादो ओ बैसले रहय। आर-आर कलाकार सभ चलि गेल रहैक। जयबाकाल हम ओकरा बैसल देखलियै।
       ‘‘की मिरदंगी। आइ एखनि धरि?’’ हम पुछलियै।
       ‘‘अपने सऽ एगो काम रहै।’’ मिरदंगी बाजल।
       ‘‘की?’’
        '‘काम ई रहै जे...एगो काम रहै।’’
       मिरदंगीकें बाजऽ मे असुविधा होइत रहैक।
       ‘‘साफ-साफ बाजऽ ने। संकोच किए करै छह?’’
       ‘‘बात ई हइ जे ऊ कतेक दिन सऽ बोलब करै छलै किताब दऽ।’’
      ‘‘के ऊ?’’
       '‘उहे।’’
       ‘‘के?’’
       ‘‘आर के? हमरे जऽरे जे रहै हइ- मालती।’’
       ‘‘के मालती?’’
       ‘‘हम जहाँ रहै छिकियै, ओतै एगो छौड़ी हइ।’’ बाजल मिरदंगी, ‘‘सुन्दर हइ। सब सऽ सुन्दर! ड्राइवर, खलासी आउर के अपना भीरू बैठैयो ने दै हइ। ओकरा भिरू खाली साहेबे सन लोक आर अबै हइ।’’
       ‘‘हँ तँ की बात छै?’’
       ‘‘ओकरा पढ़ऽ के सऽख हइ। हमे जब इहाँ अयलियै, तऽ हमरा दिस खूब ताकब करै आ एक दिन...।’’
       मिरदंगीक खिस्सा हमरा रुचिगर लागऽ लागल।
       ‘‘हम तऽ पहिने ओकरा सऽ कोनो मतलब नञि रखियै। उहे हमरा पोल्हाबऽ लगलै। बरोबरि अपन हिस्सा सऽ दू-चारि गो रूपा देब करै।’’
       मिरदंगीक बजबाक शिल्प हमरा बेसो नीक लागय। हम ओकरासँ आगाँक खिस्सा पुछैत गेलहुँ। मिरदंगी बजैत रहल।
       ‘‘रूपा देबऽ सऽ मना केलकै ओकरा संगी, तऽ मालती बोललै जे कंजूसी कऽ कऽ की होतै? हमे बलू नीक लगै छिकैय मालती के। अपना संगी के कहलकै जे रूपा घटऽ लगतै तऽ हमरा लेल एगो गहिंकी आर बढ़ा लेतै। एत्ते गोरे भिरू सुतब करै हइ, तऽ एगो आर। की फरक पड़तै?’’
       हमरा कोनादन लगल। हम बुझयलियैक मिरदंगीकें। नीक लोकसँ सम्पर्क भऽ रहल छै। एहि तरहें नहि बाजक चाही।
       मिरदंगी मानि गेल। ओकरा गलतीक आभास भलैक। ओ बाजल, ‘‘मालती के किताब पढ़ऽ के आदति छइ। हमे बजार सऽ किताब लाबि दै छिकियै। आइ बोललै जे अहीं सऽ किताब लाबि देबऽ।’’ पढ़ि कऽ घुरा देत। हमहीं लाइ देब।’’
       ‘‘हमरा कोना चिन्हैत अछि ओ?’’ हम पुछलियैक।
       ‘‘अपने के बारे मे हमहीं बोललियै हन। किरिया खा कऽ बोलै छिकी जे ओकरा छोड़ि आर कोइ ने जनै हइ नाटक के बारे मे।’’ मिरदंगी बाजल, ‘‘मालती सेहो औतै नाटक देखऽ।’’
       हम चुप रहलहुँ।
       ‘‘किताब देबै ने?’’
       हमरा एकटा गपक जिज्ञासा भेल। हम कहलियै, ‘‘किताब देबौ मुदा एकटा गप कहऽ पड़तौ।’
       ‘‘की?’’
       ‘‘तोरा बड़ मानै छौ मालती?’’
       ‘‘बुझाइ हइ तहिना।’’
       ‘‘तों?’’
       ‘‘हमे ई गलती फेरो नञि करऽ चाहै छिकियै।’’ गंभीर होइत बाजल मिरदंगी, ‘‘मुदा आब एगो बात होइ हइ। पहिने मालती गहिंकी भिरू बन्द रहब करै छलै, तऽ हमरा कुच्छो नञि होइ रहय आ आब जे ऊ गहिंगी के लऽ कऽ कोठरी मे जाइ छै आ केबारी बन्द करै छै तखने हमरा मोन मे किछ कचकि जाइ हय।’’
       हम मिरदंगीक बात बुझलहुँ।
       दोसर दिन रिहर्सलमे ओकरा लेल एकटा साहित्यक पोथी नेने आयल रहियै। उपन्यास।
       ई क्रम चलैत रहलैक। प्रत्येक दू दिन पर पोथी घुरि कऽ आबि जाइक। कहाँ दन भरि दिन मालती उपन्यासे पढ़ैत रहैत छैक।
       रिहर्सल चलैत रहैक। संवाद यादि करबाक आ बजबाक अभ्यास पूरा भऽ गेल रहै।    
       कम्पोजिशन शुरू कयने रही। आंगिक अभिनय।
       एकदिन एकटा घटना घटि गेलै।
       नाटकमे एकटा दृश्य रहैक। नायिकाकें प्रेम करबाक अपराधमे ओकर माय भयंकर सजाय दऽ रहल छलैक। अभ्यास होइत रहैक।
       मिरदंगी एक कोनमे बैसल देखैत छल।
       दुनू महिला कलाकार अभ्यास कऽ रहलि छलि।
       अभ्यास होइत रहलैक।  एक...दू...तीन...           आ कि तखनहिं मिरदंगी बिजुली जकाँ अयलैक आ नायिकाक मायक भूमिका कयनिहारिकें गरदनि दबैत चिकरऽ लागलैक, ‘‘तोंए हमरा इन्दू के मारलही हन। हमे जीबय नञि देबौ...।’’
       सभ ‘हाँ-हाँ’ करैत मिरदंगीकें घीचलक। मिरदंगी हकमि रहल छल। ओ वर्तमान आबि गेल छल। माथ झुकि गेल छलैक।
       महिला कलाकारक प्राथमिक उपचार भेलैक। कने कालमे ओहो सामान्य भेलि।
       कलाकार सभ हमरे दोष देबऽ लागल। हमरे कारण ई घटना घटलै। ने हम मिरदगीकें अनितियैक आ ने एहन घटना घटितैक। एहिना स्थितिमे केओ अपन बेटीकें सस्थामे नहि आबऽ दतैक।
      बड़ी कालक बाद सभ एहि गपकें मानलक जे मिरदंगी कोनो-ने-कोनो असामान्य परिस्थितिमे एहन काज कयने होयत।
       सामान्य भेलाक बाद मिरदंगी ओहि महिला कलाकारक पयर छानि लेलक, ‘‘बहिन, हमरा से गल्ती होइ गेलऽ। माफ कऽ दहो। अनबुझमे हमरा सऽ गलती होइ गेलऽ। आब नञि होतऽ एना।’’
       मिरदंगीकें माफ कऽ देल गेलै। रिहर्सल ओहि दिन ओत्तहि समाप्त भऽ गेलैक।
       हम मिरदंगीकें अपना डेरा अनलहुँ। चाह पान भेलकै। स्थिर होइत ओहि घटनाक कारण पुछलियैक।
       ओ बाजल, ‘‘इहाँ सऽ पहिले हमे मुंगेर सरबन बजार मे रहियै। इहाँ तऽ तीन-चारि महिना पहिले अएलियै हन। उहाँ बहुत दिन रहलियै। एगो सऽ परेम होइ गेल रहै। बड़ सुन्नरि रहै। उहो हमरा बड़ मानै। हमरा लेल जान दै लेल तैयार। हमहूँ...।
       ओहिठाम के मलिकिनी सी नम्मर के बदमास रहै मौगी। हमरा दुनू के बारे मे ओकरा पता लगि गेल। बड़गाही हमरा आर के देखय नञि चाहै। कुभेला करय लगलै। ओकरा बेसी-सऽ-बेसी गंहिकी देबय लगलै। कतबो ऊ बोलै जे आब सहाज नञि होइ हय, तैयो...। सोलह-सतरह घंटा रहय पड़ै गहिंकी भिरू। कते सहाज करितै?
       हमे मना करियै ओकरा। ऊ कहब करय हमरा जे अइ जग सऽ भागि जो तऽ उगरास भेटत। मुदा, से होलै नञि।
       हमे उहाँ के छौंड़ी आर के बोललियै जे कम-सँ-कम गहिंकी भिरू जो। छौंड़ियो आर मानलकै। मलिकिनी भिरू बोलब शुरू कऽ देने रहै।
       मलकिनी डँटलकै। आर-आर छौंड़ी सभ चुप्प होइ गेलै। मुदा हमर ऊ नहि मानलकै। ओकरा हमरे बोली के निसाँ लागल रहै। मलिकिनी के हमरे पर शंका  होलै। हमरो मारलक आ ओकरो। ओकरा तऽ बोलै बलू ऐसन ठाम मे फाड़ धिपा कऽ दागि देबौ जे डागदरो जल्दी नञि देखतौ।
       करीब पनरह दिन के बाद हमे आर ठीक होलियै। ओकरा ठीक होइते जोतय लगलै। विदेशी टुरिस्ट सभ आयल रहै। सब के ओकरे भिरू पठबै। हमे एक दिन ओकरो आ मलिकिनियो के बोललियै, ‘‘ई गोरा आर बीमारी लऽ कऽ अबै छइ। मुदा मलिकिनी नञि मानलकै। ओकरा बोललियै तऽ हमरे दोष देलकै। बोलब करै, ‘‘हटा कऽ लऽ जो हमरा। तोरा सऽ बाहर हमे नञि ने छिकियौ।
       जे हमरा शंका छलै, उहे होलै। ऊ मरि गेलै। अखबार मे अपने आर पढ़ने होबै। सरबन बजार के दूगो वेश्या मरलै, जकरा बारे मे पटना के डागदर आर बोललै जे ’एड्स’ से मरलै हन। ओइ मे एगो उहो रहै।’’
       मिरदंगी कानऽ लागल। पुनः किछु कालक बाद स्थिर होइत बाजल, ‘‘हमरा गोस्सा उठि गेलै। हमे उठलौं आ मलिकाइन के गरदनि चापि देलियै। जा लोक आउर अइलै, मौगी अधमरू होइ गेलै। मरि नञि सकलै। लोक आउर बचा लेलकै। हमरा बहुत मारलक आ भगा देलक। नहियो भगाबितै तेयो हमे उहाँ नञि रहितियै।’’ किछु थम्हैत पुनः बाजल मिरदंगी, ‘‘आइ रिहल-सिहल बेरू उहे यादि आइ गेलै, तें...। आब ऐसन गलती नञि होतै।’’
       किछु काल धरि वातावरण शान्त रहल।
       मौन भंग करैत हमहीं पुछलियै, ‘‘मालतीकें बुझल छैक ई सभ?’’
       ‘‘नञि।’’ मिरदंगी बाजल, ‘‘ओकरा ई बात आर नञि छिकै बूझल।’’
       ‘‘तें ओ तोरासँ...।’’
       ‘‘से जे होइ। हमे नञि चाहै छिकियै जे ओकरा सऽ हेम-छेम बढ़बियै। मुदा ऊ कहाँ मानै छै। हमरा पर...।’’ किछु थम्हैत बाजल मिरदंगी, ‘‘असल बात ई हइ जे पढ़ल-लिखल लड़िकी हमरा निम्मन लागब करै हय। मालती पढ़ै-लिखै छै। काबिल छै। तें हमे ओकरा किताब लऽ जा कऽ दै छिकियै। ओ बूझै हय जे हमे ओकरा परेम...।’’
       ‘‘से बात तोरा कहि देबाक चाही। ओकरा अन्हारमे नहि राखक चाही।’’
       ‘‘सोचै तऽ हमहूँ छिकियै, मुदा कहि नञि पाबि रहलियै हन।’’
       हम मिरदंगीक चेहराक भाव पढ़लहुँ। हमरा लागल जेना एकटा नमहर बोझ उतरि गेल होइक ओकरा माथ परसँ।
       रिहर्सल चलैत रहलैक। प्रदर्शनक तिथिक घोषणा भऽ गेल रहैक।
       मिरदंगी रिहसलमे नहि आयल। एक दिन...दू दिन...।
       हमरा चिन्ता भेल। हम तरकारीबला लग गेलहुँ। पुछलियै। तरकारीबाला बाजल, ‘‘के? मौगियाहा? दू दिन पर आइ आयल हन। अपने अही जग रहियै। बोलि कऽ गेल हन।
       मिरदंगीकें ‘मौगियाहा’ कहैत छै, तँ हमरो बेजाय लगैत अछि आब।
       मिरदंगी आयल। हालचाल भेलै। दोसरे समस्या बाजल।
       मालती लग एकटा साहेब अबैत छैक। तीन-चारि बर्ख पहनहि ओकर पत्नी स्वर्गीय भऽ गेलै। ओ बरोबरिक ग्राहक छैक। सप्ताहमे दू दिन तँ अबस्से। एहिठामक मलिकिनीकें ओ ‘लाइसेंस’ लेबऽ कहलकैक।
       मुदा लाइसेंस तँ मात्र मोजराक लेल भेटतैक।    
       मलिकिनीकें नीक लगलैक। सोचलकि- मोजराक लाइसेंस भेटि गेने ओकर बिजनेस आओर बढ़तैक। एखनि जकाँ पुलिसक दमन एत्तेक नहि रहतैक। संभ्रान्त लोक सभकें सेहो कोनो असोकर्य नहि होयतैक।
       ड्राइवर आ खलासी सन ग्राहककें सेहो कोनो उपराग नहि रहतैक। कहयो काल तँ सिपहिया मलिकिनीयोसँ पाइ लैत छैक आ घूरऽकाल गहिंकियोसँ।
       यैह सभ विचार भेल रहैक। मिरदंगी एकर विरोध कयने रहय। मालती सेहो। ई दुनू कहलकै जे संगीत सन पवित्र बात एतऽ नहि होयतैक। जँ होयतैक तँ आन काज नहि होयतैक। मोजराक नाम नहि बिकयतैक। संगीतक अपमान नहि होयतैक। कसि कऽ विरोध कयने रहै दुनू।
       मिरदंगी किताब घुरा देलक आ बाजल, ‘‘हमे आइ मालती के सब बात बोलि देलियै।’’
       ‘‘कोन बात?’’
       ‘‘सरबन बजार बला बात।’’ बाजल मिरदंगी, ‘‘लाइसिंस बला बात के हमे आर जखन खूब विरोध केलियै, तऽ मारय-मारय कऽ दौगल हमरा आर के। मुदा मारलक नञि। किछ काल के बाद मालती बोलल जे बलू हमे ओकरा लऽ कऽ कतौ भागि जइयै। हमे सोचलौं- सरबने बजार बला कांड ने होइ जाइ, तैं हम ओकरा सब बात खुलस्ता बोलि देलियै। बोलि देलियै जे हम तोरा पियार नञि करै छिकियौ।’’
       हम चुप रही। मात्र निहारैत रही मिरदंगीकें।
       ‘‘ओकरा तऽ बुझयलै जेना कोइ अनचोके मे थप्पर मारने होइ।’’ बाजल मिरदंगी, ‘‘अहीं सोचियौ। ई संभव छै जे हम ओकरा लऽ कऽ कहीं इज्जति-परतिष्ठा सऽ रहि सकै छिकियै? दुनू तऽ ओइसने छिकियै- एकटा रंडी, दोसरा भरुआ।’’
       हमरा किछु नहि फुरायल। स्तब्ध रही। अन्तमे, दोसर दिन रिहर्सलमे अयबाक निश्चय कऽ मिरदंगी चलि गेल।
       दोसर दिन समय पर मरंदगी रिहर्सलमे आयल। मोनसँ काज कयलक। जयबाकाल हमरा एकटा कोनमे लऽ जा कऽ कहलक, ‘‘मालती अहाँ सऽ भेंट करऽ चाहै हय।’’
       ‘‘ई कोना संभव छै?’’ हम बजलहुँ।
       ‘‘सेहे तऽ हमहूँ बोललियै ओकरा, तऽ ऊ कहलक जे नाटक दिन अपने कने समय देबै ओकरा। कुछो बतिआइ के छै। ओकरा बड़ सऽख छै हमरा इस्टेज पर देखय के...नाटक देखय के...।’’
       ‘‘बेस। हेतै।’’ हम बजलहुँ, '‘लाइसेंस बला बात के की भेलौ?’’
       मिरदंगी बाजल, ‘‘बात बड़ अगाड़ी बढ़ल जाइ छै। हमे चुपचाप रहै छिकियै, मुदा सहाज नञि होइ हय। मालती के कहलकै जे नाच सीखय पड़तौ। मालती नञि मानलकै, तऽ राति खन लोहाक छड़ लऽ कऽ दुनू तरबामे मारलकै ओकरा। पयर फुलि गेलै हन। तैयो गहिंकी भिरू ठेलिये देलकै।’’
       मिरदंगी घुरि गेल। हम दोसर काजमे लागि गेलहुँ।
       रिहर्सल चलैत रहलै। मिरदंगी अबैत रहल। अभ्यास करैत रहल। जेना-जेना प्रदर्शनक तिथि लऽग आबऽ लगलैक, हमर व्यस्तता बढ़ैत गेल। मिरदंगीसँ कोनो नोक-बेजाय गप नहि भऽ सकल।
       प्रदर्शनसँ तीन दिन पहिने।
       चारि बजे साँझमे चौक पर गेलहुँ। चौक कोनो घटना विशेषक चर्चमे डूबल छल। जिज्ञासा कयलहुँ। तरकारीबला अभरल। पुछलियैक।
       तरकारीबाला बाजल, ‘‘पेट्रोल पम्प के मलिकिनी के मारि देलकै।’’
       "कोन पेट्रोल पम्प?
       "उहे, जकरा बगली मे मौगियाहा रहै हय।"
       हम प्रश्न दृष्टिएँ तकलहुँ, ‘‘केे?’’
       ‘‘आर के? मौगियाहा।’’ बाजल तरकारीबला।
       ‘‘नहि, मिरदंगी नहि मारने होयतैक।’’ हम बजलहुँ।
       ‘‘नञि मालिक।’’ तरकारीबला बाजल, ‘‘पुलिस भिरू अपने कबूल केलकै हन मौगियाहा।’’
                            .....

लेखन: बेगूसराय/ 30.10.1991 ई. 
 प्रकाशन: पूर्वाचल-3/1992



Saturday, September 24, 2022

बेल सं बबूर तर (मैथिली कथा) - प्रदीप बिहारी


कथा

बेल सं बबूर तर

प्रदीप बिहारी                


मोबाइल बजलै, तं निन्न टुटलै। आंखि बन्ने छलै। के भ' सकै छै? हलदिली पैसि गेलै मोनमे। जानि नहि ककरा की भेलै? सिरमा दिस हाथ बढ़ौलक, मोबाइल नहि ठेकनयलैक। सूतलमे कोम्हरो घुसकि गेल होयतैक। पत्नी मनाही करैत रहैत छथिन जे सिरमामे मोबाइल नहि राखू। अपने रहैत छथिन तं राखहि ने दैत छथिन। मुदा, पत्नीकें नहि रहने से ओकरा बुतें पार नहि लगैत छैक।

       मोबाइल बन्न भ' गेलै आ लगले फेर बाज' लगलैक। एहिबेर ओ कम्मल तरसं बहरायल। बौल बाड़लक। इजोतमे मोबाइल ताकलक। मोबाइल दोसर गेरुआक खोलमे घोसिआयल छलै जे सुतबाक क्रममे ओछाएने पर कोम्हरो ससरि गेल रहैक। ओ मोबाइल हाथमे लेलक। पत्नी छलखिन। सोचलक, ओ एतेक राति क' किएक फोन कयलखिन? हड़बड़ायल। जाबत कौल रिसिव करितय, मोबाइल फेर बन्न भ' गेलै। 

       वैह फोन कर' चाहलक आ कि मोबाइल बजलै। सावधान भ' रिसिव कयलक।

       "एतेक राति क'?"

        पत्नीक स्वरमे भय आ क्रोध मिझरायल छलनि। बाजलि, "डर होइए, तें फोन कयलहुं।"

       तकर बाद जाबत ओ किछु बजितय, पत्नी पुछलखिन, "फोन ने किए उठबैत रही?"

       "कथीक डर होइए? की भेल?"

       "से नहि बुझै छियै जे कथीक डर होइए, मुदा डर होइए।"

         "आहि रे बा! बुझब कथीक डर होइए तखन ने..."

        ओकर नजरि देबाल घड़ी दिस गेलै। दू बाजि रहल छलैक। जनवरीक जाड़। ओ कम्मल ओढ़ि लेलक। 

        "एत्तेकटा घरमे हम कतोक बेर असगर रहलहुं अछि, मुदा आइ डर होइए। एखनि धरि आंखि नहि मोड़ायल-ए। पिपनी नहि सटल-ए।"

        "मुदा, डर किएक होइए। घरक गेट सभ बन्ने होयत।" ओ पुछलक, "कोनो खट-खूट सुनलैए? कोनो चाल-चूल?"

        "नहि यौ। एतेक निशाभाग रातिमे...। सेहो जाड़क अन्हरिया राति। डर कोना ने हएत?" पत्नी बजलीह, "अहां के डिस्टर्ब नहि कर' चाहैत छलौं, मुदा डरे रहल नहि गेल, तं फोन कयलौं।"

        "से, डिस्टर्ब तं कइए देलहुं। मुदा बाजब जे कथीक डर होइए तखन ने..." ओ बाजल, "आ, जं डरे होइए तं हम एहि दू बजे रातिमे दू सय किलोमीटर उड़ि क' तं नहि चलि आयब। अपने हिम्मति राखू। कोनो अनट-सनट सपना देखलहुंए?"

          "नहि। आंखि मोरेबे ने कयल तं सपना की देखब?"

         "तखन? एतेक रातिमे हमरासं गप करबाक मोन भेलए? सांझखन तं गप भेले छल।"

        "दुर जाउ...हम डर सं एहि जाड़मे घामे-पसेने नहायल सन छी आ अहां के ठठ्ठा सुझैए।" पत्नी बजलीह, "ओ घटना मोन अछि?"

        "कोन?"

        "टाउनशिप मे जे अपना सभ संग घटल छल।"

        "हं। मुदा तकर आब नओ बर्ख भ' गेल। ताहि घटनाकें मोन पाड़बाक कोन प्रयोजन?"

        "प्रयोजन ई जे अहां मोन पाड़ू। रिक्शासं दुनू प्राणी घर अबैत रही। बीच टाउनशिप मे हमर बेग झपटि क' मोटरसाइकिलसं फुर्र भ' गेल। जाधरि हल्ला करी, रिक्शासं उतरि क' कात-करोटक लोककें चिचिया क' कहियै कि एकटा मोटरसाइकिल बला हितैषी बनि बाट छेकि लेलक।" पत्नी बजलीह।

         "हं, ओ मोटरसाइकिल बला ओकरे गुटक रहैक।"

         "से भोगनहि छी। एफ आइ आर पांच दिनक बाद भेल। भेटल किछु नहि।" पत्नी बजैत छलीह, "एखनो ओहि बेगक समान मोन पड़ैए, तं कोंढ़-करेज उनट' लगैए। बेटाक देल एकैस हजार टाका... हमर मोबाइल... अहांक टैब...दूटा कानक टाप्स सेहो छल। सभ चलि गेल। सेहो भरल दुपहरियामे। टेनेसं पछुऔने रहय। झपटि क' जाइ बला दृश्य आ ओकर अदंक बहुत मास धरि फिरीसान करैत रहल।"

          "से तं हमरो भेल रहय। हमहूं ओहि घटनाकें बिसरि नहि पाओल रही।" ओ बाजल, "मुदा, एखनि ओहि घटनाक चर्च किएक कर' चाहै छी? सुति रहू ने।"

         "ओ घटना तं अहांसं गप करैत काल मोन पड़ल। डर तं पहिने सं होइए।"

         "डर कथीक होइए से बाजब कि डर होयबाक घाटि फेनैत रहब। के कहलक ओत' रह' लेल? भने तं संगे जाइत रही आ अबैत रही। किएक रहि गेलहुं? रहि गेलहुं तं हिम्मत करू। अपनो जागल छी आ हमरो जगौने छी। बूझै नहि छियै जे काल्हि हमरा आफिसो जयबाक अछि।"

          "यौ, एना गोधनाइ किए छी? लगैए जेना सुतलोमे अहांक नाके पर तामस होअय ।" पत्नी बजलीह, "हम कोनो अपना लेल एत' एहि गेलहुंए?"

          "तं ककरा लेल? हमरा लेल? अपने ने कहलियै जे मोहल्लाक लोक सभसं भेंट-घांट कयला बहुत दिन भ' गेल। महिला-संसदक संध्याकालीन सत्रक सभापतित्व कयला बहुत दिन भ' गेल छल। तें ने रहि गेलहुं ।"

         "ओतबे किए कहै छी? अगिला मास जे बेटा-पुतौहु आ पोता-पोती सभ आओत, तकरो तैयारी करबाक अछि ने। ओ सभ की हमरे अछि, अहांक नहि?"

          "हमर किएक ने? मुदा से तैयारी तं बादोमे होइतै। आ तैयारिए की? कोन..."

         "चुप रहू। ताहि लेल कहियो तं एसगरे रह' पड़ितै। अहां छुट्टी ल' क' रहिते कते छी?"

         "हमरा छुट्टी भेटिते कहां अछि?"

         "तें ने कहलहुं जे...बुझल नहि अछि जे अदौरी-कुम्हरौरी पाड़बाक छल। कनियां कें बड़ पसिन छनि। पाड़ि नहि पबै छथि।"

        "पाड़ि नहि पबै छथि कि पाड़' नहि अबैत छनि?"

        "से, जे बुझियौ। नव-नौतार मे बेसी के नहिए अबै छै। ई सभ सीख' बेरमे आब अंगरेजिए पढ़' सं पलखति नहि भेटै छै, तं की करय ओ सभ? आ जं अबितो रहितनि तं महानगरक पड़बाक खोप सनक अपार्टमेन्ट मे कत' सरंजाम करती एते? कत' खोंटती? कत' सुखौती? आ कखन?"

        "हं, मोन पड़ल। कुम्हर ताक' मे सभ दशा भ' गेल छल हमर।"

        "से मोन छल आ सभटा बुझल छल तं भकुआयल सनक गप किएक करैत रही?"

        "अहूं हद करै छी। अइ हालतिमे गप करैत-करैत ककर भक लागल रहतै?"

         "तं तुरुछि क' किएक बजलहुं?"

         "तं की करितहुं? अहां अपन डरक कारण कहबे ने करै छी। अनेरे जगौने छी, तं की करी?"

        "वाह। हम डरे पानि भेल जाइ छी आ अहां..."

        "बेस। सौरी। एत्तेक काल गप कयलहुं, आब डर पड़ा गेल होयत? आंखि मोड़ि लिअ'।'

        "हमरा एखनो डर भ' रहल अछि। ई बात बुझियौ। बैंक बला पंडित जीक घरमे चोरि भेलै से बुझल अछि? आइ चारिए दिन भेलैए।'

         "हं, अहीं कहने रही ने। एके दिन लेल दरभंगा गेलाह। घर बन्न रहलनि आ हंसोथि लेलकनि। थाना-पुलिस किछु केलकै?"

        "की करतै? थाना-पुलिस नीक लोक लेल होइ छै? अखबारमे पढ़लियैए नहि?"

        "की?"

        "दरभंगा मे कहांदन थाना के बगले बला घर के बुलडोजर सं ढाहि देलकै आ घरक लोक के पेट्रोल ढारि  डाहि देलकै। से, दिना दिस्टी।"

        "हं, दू गोटे तं मरियो गेलै। भाइ आ एक बहिन।"

        "दुइएटा नहि मरलै। ओहि महिलाक पेटक बच्चा सेहो। ओहि परिवारक वर्तमान आ भविष्य के डाहि देलकै।"

        "चिन्ताक बात तं छैके, मुदा ई सभ किएक मोन पाड़ै छी? सुतबाक प्रयास करू।"

        "मोन किएक पाड़ब? मोन पड़ि जाइए। अहांके नहि कहने रही। सोचलहुं जे चिन्ता हएत। पंडित जीक घरमे‌ चोरि भेलनि तकर दोसरे दि‌न..."

        "की?"

        "फुलिया हमरा सं पुछलक।"

       "की पुछलक?

        "एत गो घर छिक'। नीचामे पांच गो कोठरी। ऊपरो मे, तकरो ऊपर। भरैतो (किरायादार) आर नइं छिक'। अकेले घर मे डर नइं लागब करै छ'।"

         क्षण भरिक चुप्पी।

         "तं अहां की कहलियै?"

         "कहलियै- डर किए होतै? अपना घर मे डर कथी के? ताहि पर पुछलक जे कोठरी बदलि-बदलि के सुतैत होबहो?"

         "की भेलै तं? फुलिया के जिज्ञासा हेतै तें पुछलक।"

         "हमरो छगुन्ता भेल जे फुलियाक मोन मे एहन बात किए उठलै। पनरह बरख सं अपना ओहिठाम‌ काज करैए। कहियो एहन प्रश्न नहि कयने छल।"

         "प्रश्न उठब उचित। मुदा हमर मोन कहैए जे फुलिया अपन परिवार सन बुझैए अपना सभकें। ओकरा मोनमे दोसर भाव किएक रहयै, जाहिसं लोक डेरायत।"

        "सैह तं। तैयो...। आ हमहीं की कम देने छियै आ एखनो दै छियै।"

        "हम सभ लाकडाउनमे ओकरा मासे-मास पाइ दैत रहलियै। एखनो मासमे चारि-पांच दिन रहै छियै आ पाइ पूरा दै छियै। एखनि एक सप्ताह सं अहां छी, सैह ने। हमरा विश्वास नहि होइए जे अपना सभक प्रति ओकरा आंखिक पानि सुखा जेतै।"

        "विश्वास तं हमरो नहि होइए। अपना घरसं एतेक समान भेटै छै, जे मोहल्लाक मौगी सभ कहैत रहैए- 'फुलिया को बहुत देते हैं आप। दाइ-नौरी को इतना दिया जाता है?' मुदा की करियै? जहिया पंडित जीक घरमे चोरि भेलनि ताहि सं एक दिन पहिने कहलक जे..."

       "की?"

       "भौजी! पछिला दा जे बिछौना देलहो, तइ पर बेटबा आ पुतहुआ घरमे सुतब करै छै। हम्मे पोतबा जौरे बरंडा पर एक दिस सुतै छिकियै। बरंडे पर दोसर दिस बुढ़बा सुतब करै छै। देह गरमेबे ने करै छै।नीचा स' सलकी मारब करै छै।"

        "ठीके कहलक । एसबेस्टस बला एकटा कोठरी आ तकर बरंडा। हेबे करतै कत्तेटा? नमहर कोठरी रहितै त' पोता माइए-बाप संग सुतितै ने? से, फुलिया के बेटा बंगलौरसं आबि गेलै।"

        "हं यौ। लौकडाउनमे एलै से घुरि क' कहां गेलैए। काजो नहिए सन करै छै। एकबाही बैसले बुझियौ। बुढ़बो रिक्शा चला क' कते कमाइत हेतै। बैटरी बला रिक्शा लग पैडिल बला रिक्शा तं मरहन्ने ने। सभ भार फुलिये पर छै। सैह कहैत रही जे ओही दिन फुलिया के छत पर ठाढ़ क' राखल दुजनिया चौकी द' देलियै।"

        "भने द' देलियै।"

        "प्रात भेने फुलिया कहलक- भौजी! तोएं जे चौकी देलहो, से बरंडा पर नइं अंटलै। ओकरा खड़ा कए देलियै। बुढ़बो के कहलियै जे ओही अ'ढ़ मे सुति रहय ले'। बीचमे पोतबा के सुताय लेलियै। से, भौजी राति खूब निन्न होल' हन।"

         "तें ने कहै छी जे फुलिया अपना सभक अनिष्ट सोचिए ने सकैए। ओकर बातकें शंका सन नहि मानू। शंकाकें मोनसं काछू।"

        "कोना काछि दिअ'। आइ सांझमे जे पुछलक से...।" 

        "की पुछलक? सांझखन हमरासं गप भेल छल तं नहि कहलहुं अहां।'

        "सोचलहुं नहि कहब। अहांकें चिन्ता होयत। मुदा राति ओछाएन पर ओकर बात मोन पड़ल तं डरे कंठ सुखा गेल। तखनसं जगले छी। डर बर्दासि नहि भेल तं अहांकें फोन कयलहुं। सोचलहुं, मोबाइले पर सही, एसगर नहि ने छी। दोसराइत तं छथि संग मे।"

        "से, फुलिया पुछलक की?"

        " काज क' क' जाइत काल बहरिया गेट लग चुपचाप पुछलक- भौजी! आइ राति कोन कोठरीमे सुतबहो? हम‌ ने उतारा द' सकलियै आ ने डांटिए सकलियै।

         चुप्पी।

         बड़ी काल धरि दुनू चुप। ओकरा बुझयलैक जे पत्नी अपन डरक कारण कहि निचैन भ' गेलीह अछि। निन्न पड़ि गेलीह अछि।

         ओ घड़ी देखलक। भोर भ' गेल रहैक। लोक कहै छै जे भोरमे नीक निन्न होइ छै, मुदा ओकरा निन्न नहि भेलै। डरे दुनू पिपनी दुनू दिस रहै।

                           ######

जीवकान्त की दो मैथिली कविताएँ : हिंदी अनुवाद- तारानन्द वियोगी

जीवकान्त की दो मैथिली कविताएं

जीवन के रास्ते                        

नहीं, ज्यादा रंग नहीं
बहुत थोड़ा-सा रंग लेना
रंग लेना जैसे बेली का फूल लेता है शाम को
रंग लेना बस जितना जरूरी हो जीवन के लिए
रंग लेते हैं जितना आम के पत्ते
नए कलश में ।

नहीं, ज्यादा गंध नहीं
गंध लेना बहुत थोड़ी-सी
बहुत थोड़ी-सी गंध जितनी नीम-चमेली के फूल लेते हैं
गंध उतनी ही ठीक जितना जरूरी हो जीवन के लिए
गंध जितनी आम के मंजर लेते हैं।

नही, बहुत शब्द नहीं
जोरदार आवाज नहीं
आवाज लेना जितनी गौरैया लेती हैं अपने प्रियतम के लिए
जरूरी हो जितनी जीवन के लिए
आवाज उतनी ही जिसमें बात करते हैं पीपल के पत्ते हवा से
थोड़ी-सी आवाज लेना
जितनी कि असंगन का जांता गेहूँ के लिए लेता है।

जीवन के रास्ते हैं बड़े सीधे
दिखावा नहीं, बिल्कुल दिखावा नहीं
बरसता-भिंगोता बादल होता है जीवन
बरसते बादल में लेकिन रंग होते हैं बहुत थोड़े
ध्वनि भी होती है उसमें
विरल गंध।
           ------

लौट-लौटकर आऊंगा फिर फिर

धुंध को पीया मैंने श्वास में
और अपने रक्त में मिला लिया
छोड़ा जो मैंने श्वास
वह जा बसा वनस्पतियों के उदर में
अड़हुल की लाल-लाल पंखुड़ियों में व्यक्त हो
खिलखिलाकर हंस पड़ा,
क्षण-क्षण बदला मैं
पाकड़ की टुस्सी में ।

दूब की मूंडी परिवर्तित होती है भेंड़ में
और मिमियाती है
बहती है कभी काली गाय के दूध में ।

देहान्त के बाद कोई खड़ा नहीं मिलता धरती पर
नारंगी के रस में
और बादलों के झुण्ड में
झहरकर बिलाती है उसके शोणित के धार।

हजार फूलों से अदला-बदली करते अंततः हुआ हूँ शब्द
मेरे हजार शब्द आए हैं जाने कितने दर्जन भाषाओं से
बीसियों-पचासों देशों से
श्रमजीवियों के श्वेद से,
मैं जो हूँ वह
अनेक शताब्दियों को थोड़ा-थोड़ा अंश हूँ
अनेक भू-भागों से तराश-तराश तिल-तिल
मैंने भरी है अपने प्राणों में सामर्थ्य ।

प्रत्येक क्षण होता है जाने कितनी भाषाओँ में विलीन
कितने-कितने वृक्षों के पत्तों में, नदियों के जल में
होता हूँ उत्सर्जित
और फिर पुनर्सृजित।
घूमता हूँ परिक्रमा में पृथ्वी के संग
एक पल के लिए भी कभी
होता नहीं बाहर उसकी चौहद्दी से।

पृथ्वी की गोद में स्थित हुआ मैं
खिलता रहूंगा कभी गेंदे के फूल में
कभी पीपल की टुस्सी में
लौट-लौटकर आऊंगा फिर फिर
दर्जन-दर्जन भाषाओं के
छोटे-छोटे शब्दों में ।
                ---
मैथिली से अनुवाद : तारानन्द वियोगी

तमसाइ छी तं हेरा जाइए (मैथिली कथा)- प्रदीप बिहारी

कथा

तमसाइ छी तं हेरा जाइए

प्रदीप बिहारी                       
         
साइड अपर बर्थ पर पड़ल छी। स्ट्रीट लाइट जरि रहल छैक आ हमर आंखि पर बल्बसं बहराइत किरिन कोण बना रहल अछि। तें निन्न नहि भ’ रहल अछि। दुनू उपरका बर्थ पर नव दम्पति अछि। ब'र-कनिया। दुनू एक-दोसराक बर्थसं पयर अंटका क' बैसल अछि।‌ कनियाक जांघ पर भोजनक प्लेट छैक आ दुनू खा रहल अछि।  भोजन समाप्त क' ब'र सुतबाक उपक्रम क' रहल अछि। मुदा, कनियाकें निन्न नहि भ' रहल छैक। ओ ब'रकें कहैत अछि, “टेनमे कोना निन्न होइत अछि अहांकें?”
             “ओहिना, जेना घरमे होइत अछि।“ ब'र जेबीसं किछु बहार क' कनियाकें दैत अछि, “ई राखू। हमरा जेबीमे मोड़ा जायत।“
        कनिया समान देखैत अछि। दू हजार आ पांच सयक एकहकटा नोट। बजैत अछि, “कार्ड सभ तं घुरा देब मुदा, ….।
        “से किएक?” ब'र कहैत अछि, “अहांकें तं देने रही टाका। दैते रहै छी, तखन ई…”
.       कनिया उपराग दैत सन बजैत अछि, “कोन धरानिए अहां हमरा टाका दैत छी, से बुझिते छी अहां। ओहि दिन जे देने रही से ओ पनसोइया हेरा गेल।“
      “से कोना?”
     “टाका दै सं पहिने जतेक ने तमसाइत छी, जे हेरा जाइत अछि।“ कनिया बजैत अछि, “जहिया-जहिया अहां तमसा क' टाका दैत छी, सभ बेर किछु ने किछु हेरा जाइए।“
      ब'र चुप अछि। कनिया कहैत छैक, “प्रेमसं तं किछु नहिए देल भेल अहां बुतें।“
.     ब'र चुप अछि। सुतबाक प्रयास करैत अछि। मुदा फेर कनिया टोकैत अछि, “अही‌ बर्थ पर आउ ने।“
      “से किएक? दुनू गोटें कोना अंटब एक्के बर्थ पर? दोसर बात ई जे लोक देखत तं की कहत?”
      “अहूं हद करै छी।‌ सूत' बेर ओहि बर्थ पर चलि जायब। एखनि एत' आबि क' बैसू ने।“
      ब'र कनियाक बर्थ पर चलि जाइत अछि। दुनू एक-दोसराक पार्श्व मे सटि क' बैसि जाइत अछि। 
      हम सोचैत छी, अबस्से ऋंगारिक गप कर' दुनू एकठाम बैसल अछि। दुनूक स्वर पहिने कने-कने सुनाइत छैक, फेर मद्धिम भ' जाइत छैक। 
     हमर कान ओम्हरे पाथल अछि।
     कनिया चाहैत छैक जे ब'र किछु-किछु बतिआय, मुदा ब'र चुप। कनिये टोकैत छै, "एत' अबिते मौनी बाबा भ' गेलियै?"
     ब'र चुप।
     "की सोचै छी? बाजू ने।‌ अहां चुप छी, त' हम बोर होइ छी।"
     "सोचै छी, की रही आ की भ' गेलहुं। गामघरक लोक सभ हमरा स' बहुत रास उमेद पोसने अछि।"
      "अनेरे ने। जे उधबा उठलै से सभ के बुझले छनि। जहिया रहय तहिया सभ के सहयोग कयनहि रहियनि।"
      "सैह कहै छी। सोचनहु ने रही जे काज बन्न भ' जायत। ठेला गुड़का क' एहन खाधि मे फेकि देत जे..."
       "सैह ने। करय केओ आ भरय केओ।"
       "एहिना होइ छै। अनचोके आगि लागि गेलै। ककरा, के आ की कहलकै? किनसाइत केओ ने देखलकै। सभ सुनते उपास पर चालू। जानि नहि, कत'-कत' नुकायल छलै बम-पेस्तौल-भाला-पजेबाक टुकड़ी आ पाथर सभ। लगलै जेना भारत-पाकिस्तानक लड़ाइ शुरू भ' गेल होइ। ठेला परक कपड़ा सभ जा-जा झांपि क' पड़ाइ, ताबते तीन-चारि टा पहुंचल आ ठेला के ठेलैत बाजल, "जान बेसी भ' गेलौए? खरच क' दियौ? भाग साला। हम त' पड़ेलहुं। ठेला कत', हम कत' आ कपड़ा सभ कत'? के जानय? तकर कनिये कालक बाद त' धधक' लगलै।"
       जहियासं ई घटना भेलैए, कनिया कतोक बेर ई बात सूनि चुकल अछि।‌ओकर बुझल छैक जे बजैत-बजैत ब'र असहज‌ भ' जाइत छैक। ओ टोकैत अछि, "ओह, कत' बहल जाइ छी? जे अहां लग नहि अछि, ओ अहांक नहि अछि। हम अहां लग छी, से सोहे ने आ कत'-कहांदन बौआइ छी।"
        ब'र साकांक्ष होइत अछि, "सौरी। अहां के कहने रही जे ओ स्थिति के मोन नहि पाड़ब। मुदा की कहू? बिसराइतो नहि अछि।  एहि स' नीक त'...।"
       "की?"
       "फेरिए बला काज नीक रहय। मोहल्ले-मोहल्ला घुमि-घुमि क' स्त्रिगणक कपड़ा सभ बेची। कुर्ता-सलवार, साड़ी, नाईटी, प्लाजो.."
       कनिया विनोद करैत अछि, "आ ताहि मे मोनो लागय। नहि यौ।"
      "मोन की लागय? साइकिल पर ओत्ते-ओत्ते समान ऊघब। बौआएब आ चिकड़ैत रहब...।"
      "तें छोड़ि क' ठेला ल' लेलियै?"
      "नहि, दोकनदारिए कम होम' लगलै। लोक सभ आनलाइने मंगाब' लगलै।‌ समान केहनो होइ, कमो दाम मे चमक-दमक भेटि जाइक।"
      "से त' भेलै।‌ आब बेसी लोक...ओना आनलाइन मे ठीके एक्के बेर मे पसिन पड़' बला समान सभ भेटि जाइ छै।"
      "चुप रहू। एकरे कारण हमरा सन-सन फेरीबला सभ मारल गेल।" ब'र बजैत अछि, "ओना मौगी सभ भुकबितो बड़ छल।"
      "माने?"
      "मोल-मोलाइ बड़ करैत छल। जत्ते दाम कहियै, तकर आधा स' शुरू करय।"
      "त' अहूं तेहने दाम कहियै ने- अढ़ाइ-तीन गुणा।"
      "नहि धरबितियै त' पार लगितै?"
      कनेकाल दुनू चुप।
      फेर कनियां पुछैत छैक, "अएं यौ! अपना सभक बियाह भेल तखन अहां‌ यैह काज करैत रही ने?"
      "हं।"
      "आ अहांक बाबू आ घटक कहलथि जे लड़का के रेडिमेडक बिजनेस छै। सखी सभ हमरा खौंझाबय, "जो ने रंग-बिरंगक, नया-नया डिजाइनक पहिरिहें। जखन अपने बिजनेस त' बाते की?"
      "त' अहां के हम तकर अभाव रह' देलहुं?"
      "से हम कहां कहै छी।" कनिया बजैत अछि, "खाली नगद नराएन दै मे हनछिन करैत रहै छी।"
      "हम संगे रहिते छी त' किए चाही...?" ब'र बजैत अछि, "लोक‌ जे कहने होअए, मुदा पहिले भेंट मे हम कहि देने रही ने जे हमर रेडिमेडक बिजनेस नहि अछि। हम फेरीबला काज करै छी।"
     "अहांक यैह ईमानदारी पहिले गप मे मोहि लेलक हमरा। बान्हि लेलक अपना संग।" कनियां बजैत अछि, "अएं यौ! एकटा बात पुछू।"
     "कहू।"
     "अहां के संगी सभ वा भाउजि सभ सिखौने नहि रहथि जे सुहागराति मे की सभ बतिएबाक चाही?"
      "से किए?"
      "अहां जे अपन व्यवसाय, आमदनी कीदन-कहांदन सभ बतिआएल रही, तें पुछलहुं। मोन अछि ने....।" बजैत कनियां कने आर सटि जाइत अछि।
      "ई सभ की बजै छी। लोक सभ सुनैत होयत।"
      "लोक की सुनत? सभ फोंफ काटि रहल अछि।" कनियां बजैत अछि, "दोसर बात जे हम सभ बतिआइतो छी कोबरे घर सन ने।"
      "बेस, छोडू ई गप। हम सोचै छी जे..."
      "आब फेर फेरिए बला काज करी।"
      "आब से चलत? आब त' आर..."
      "महानगर मे नहि, गाम मे।" ब'र बजैत अछि, "गाम मे ऑनलाइनक चलनसारि घनगर नहि भेलैए।"
       "बात त' नीक सोचै छी। मुदा, गाम मे कीननिहारि कत्ते भेटत? गाम मे आब लोके कत्ते रहै छै।"
       "जतबे छै ततबे। गामो मे रेडिमेडक दोकनदारी बांचल छै। स्त्रिगणक संग धीयापूताक कपड़ा सभ सेहो राखबै।"
       "तैयो, एक बेर सोचि लिअ'। दोकनदारी ग्राहकक अनुसार होमक चाही। बजार जेना बदलै छै, तहिना बिजनेसो बदलबाक चाही।"
      ब'रकें कनियांक बात नीक नहि लगैत छैक। तुरुछैत बजैत अछि, "से सभ बात बूझै छियै महरानी! ई सभ ओकरा लेल छै, जकरा लग अहगर स' पूंजी छै। हमरा सन के की? सभ दिन क' इनार खुनू आ पानि पीबू।" कने थम्हैत पुन: बजैत अछि, "भने कहैत रहय झलीन्दर।"
      "की?"
      "नहि जो बिहार। एत' जमल छौ दोकनदारी। ई उधबा जल्दीए थम्हि जेतै। दुनू दिसक नेतबा सभक मोन भरतै त' शान्त बन' जेतै। एकरा सभक एके क्षणक तामस सुड्डाह क' देलकै।"
       "से भाइ, तामस होइते छै तेहने। एहि एके क्षणक तामसक कारणे राजा सभक राज-पाट बोहा जाइ छै।"
        "तें कहै छिअ' भाइ। नहि जो बिहार। एतहि रह। हम सभ फेर स' जोड़ब ठेलाक पहिया।‌"
       ताहि पर हम कहलियै, "बात तं ठीके कहै छें भाइ। मुदा, देखलही नहि, बुलडोजर सं ढाहि देलकै रोडक काते कात। आब सभ टा नव हेतै। ठीकेदार नव, प्रशासन नव, पुलिस नव, हफ्ता नव। मुदा, व्यवस्था तं पुराने रहतै ने।"
      "ठीके कहलियै अहां।‌ मुदा एही व्यवस्था मे रह' पड़त ने। कोनो-ने-कोनो रूपमे सभ ठाम एक्के बात छै। एहि सं भागब ठीक नहि। अपने ठीक रहब जरूरी ।"
     "तं हम बेठीक कहिया भेलहुं? तैयो..."
      "से, त' मानै छी हम। मुदा, हमरा लागल जे अहांक जे स्थिति छल, ताहि‌ मे गाम दिस आयब जरूरी छल। जगह बदलि गेने मोन दोसर रंगक होयत। तें हम पप्पा के कहलियनि।" कनियां बजैत अछि, "चलू ने, किछ मास रहब। एम्हरो अजमा क' देखब।‌ ओना हमहूं किछ कर' चाहै छी।"
       ब'र बजैत अछि, "अरे वाह! की करब अहां?"
      "मिथिला पेंटिंग जे सिखने रही, तकरा आर मांजब। तकर बाद..."
      "बेस, बड़ भेल। आब सूति रहू।"
      "किए? अहां के ओंगही लगैए।"
      "लागत नहि त'?"
      "कने आर बैसू ने।' कनिया गप बदलैत छैक, “जखन-जखन भौजीक फोन अबैए, त' एतबे पुछैत छथि जे गुड न्यूज कहिया धरि सुनायब? आइ कहि देलियनि जे जाधरि नीक काज-रोजगार नहि हैत, ‘गुड न्यूज' नहि सुनब अहां।“
      ब'र चुप।
      "ठीक कहलियनि ने भौजी के? बेरोजगारक घर मे बच्चा? हम सभ त' दुखधनिया मे रहिते छी, पहिने नीक समय बनाबी, तखन ने गुड न्यूज।" 
     ब'र चुप।
     "अहां किछु बजै ने किए छी? हमर बात स' तामस उठैए?"  
      ब'रकें किछु मोन पड़ैत छैक, “समान सभ जे राख' देलहुं-ए, से ठीकसं राखू। कतहु…”
       “एखनि तमसा क' नहि ने देलहुंए। निश्चिन्त रहू। नहि हेरायत।
      कने काल दुनू फुसफुसाइत रहैत अछि। बूझ'मे नहि आबि रहल अछि हमरा।
      फेर ब'र अपन बर्थ पर चलि जाइत अछि। 
     कनेकालक बाद कनियाक स्वर सुनैत छी, “तखनसं सुतबा लेल हड़बड़ायल रही। आब की भेल?”
     “निन्न नहि भ' रहल अछि।“
     हम ब'र दिस तकैत छी। ओ बेर-बेर करोट फेरि रहल अछि। ओकर कछमछीक अनुभव भ' रहल अछि हमरा। 
     लगैए, जेना हमरो निन्न हेरा गेल होअय।

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