Wednesday, December 28, 2022

एक और सान्ता क्लॉज : प्रदीप बिहारी की मैथिली कहानी : हिंदी अनुवाद - अरुणाभ सौरभ



मैथिली कहानी

एक और सान्ता क्लॉज

प्रदीप बिहारी

मित्र की तमाम कोशिशों के बावजूद उसे बस में बैठने की जगह नहीं मिली। पटना से चलनेवाली इस बस में लोग ठसाठस भरे हुए थे। मित्र के चेहरे पर जगह न दिला पाने का अपराध-बोध साफ-साफ झलक रहा था। वे अपनी जगह मुझे दे रहे थे, पर मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने मन ही मन उनका आग्रह नहीं मानने का निर्णय ले लिया।

उनकी सीट के ऊपर बने रैक में सामान रख, हम दोनों नीचे उतरे। बस के चलने में अभी देर थी। स्टाफ के चाय-पान कर लेने के बाद ही बस चलती। इस बीच दूसरे यात्री भी बस से नीचे उतर आए।

मित्र ने एक और कोशिश की। उन्होंने कण्डक्टर से कहा, ‘‘तुम्हें पटने में ही मैने कहा था, दरभंगा में एक सीट चाहिए। तुमने आश्वस्त भी किया था। अब बताओ, इनके जैसे बड़े लोग खड़े जाएँगे, यह अच्छा लगेगा? सीट नहीं थी, तो पहले बता देते। इनको इस बस में नहीं बुलाता।’’

कण्डक्टर ने तिरछी निगाहों से मुझे घूरा। मैंने गम्भीर होने का नाटक किया और कण्डक्टर से थोड़ी दूरी पर जाकर खड़ा हो गया।

मुझे लगा कि मित्र की बात उसे प्रभावित नहीं कर सकी। मुझे ‘बड़े लोग’ बताने की बात पर कण्डक्टर को तनिक भी विश्वास नहीं हुआ। वह बोला, ‘‘जमाना लद गया सर! पहले थाना के मुंशी और दारोगा के लिए सीट रिजर्व आता था, अब तो एस.पी. के लिए भी सम्भव नहीं है। आप ही बताइए, किसे उठाकर बोनट पर बिठाऊँ और किसको छत पर लाद दूँ? ’’

खलासी ने मेरी ओर देखा और मित्र से पूछा, ‘‘कौन हैं सर? कोई नेता-वेता?’’

बीच में कण्डक्टर बात काटते हुए बोला, ‘‘बहनचो...! देखने से नहीं लगता है! नेता तो सफेद झक-झक कपड़ा पहने रहते हैं, इनकी तरह जीन्स पर मोटा कुर्ता नहीं पहनते। रोड पर चलते हो, इतना भी नहीं समझोगे तो...’’

मित्र को अजीब लगा। उन्होंने कण्डक्टर को चुप करने की कोशिश की, ‘‘जगह दोगे, तो दो, भाषण मत दो।’’

कण्डक्टर थोड़ा सहम गया। मित्र अनवरत बोलते रहे, ‘‘बहुत बड़े लेखक हैं। कहानियाँ लिखते हैं। इस क्षेत्र के गौरव हैं, देश के भी। जनकपुर जा रहे हैं...’’

कण्डक्टर पर मित्रा की बातों का कोई असर नहीं हुआ। उसके हाव-भाव से ऐसा लगा जैसे कोई हों, उसे क्या लेना-देना।’’

मगर खलासी ने पूछा, ‘‘कैसा लेखक! अखबार में लिखते हैं क्या?’’

मित्र की आँखें उम्मीद में चौड़ी हो गईं, ‘‘हाँ! बड़े-बड़े अखबारों में लिखते हैं।’’

‘‘तो ऐसा कहिए न हुजूर!’’ खलासी बोला, ‘‘हैं पत्रकार, और बताते हैं लेखक। चलिए, जुगाड़ लगाते हैं! चढ़िए बस में।’’

ड्राइवर के पीछे बेंचनुमा जगह पर मुझे एडजस्ट कर दिया गया।

मित्र ने कहा कि मैं उनकी सीट पर बैठ जाऊँ और वे मेरी सीट पर, पर मैंने नहीं माना। उन्हें आश्वस्त किया कि पीठ टेकने की जगह मिल गई है। इस भीड़ में यही बहुत है।

बस के चलते-चलते सुबह हो गई। सुबह की हवा मुझे अच्छी लग रही थी। इस कारण रात की थकावट नींद में बदल गई।

बचपन में सुना था, नींद छूत की बीमारी होती है। इसलिए कार-बस में ड्राइवर के बगल की सीट पर नहीं बैठना चाहिए। बगल में ऊँघने पर ड्राइवर डाँट देता है।

बालमन की यह बात मेरे दिमाग में जमी हुई थी। जब कभी ऐसी स्थिति आती, मेरे जेहन में आता कि ड्राइवर के बगल में बैठने पर सावधान रहना चाहिए। मगर लम्बी दूरी और रात की यात्रा...ये बातें बकवास लगने लगीं।

सोचते-सोचते झपकी के झूले पर सवार मधुबनी पहुँच गया। ड्राइवर सावधानीपूर्वक बस चला रहा था। फिर भी कण्डक्टर उसे ‘वैल्यू’ नहीं देता, उस पर झल्लाता रहता। मुझे इसका आभास इसलिए हुआ कि वह जब-तब ड्राइवर को डपटता रहता, और उस झिक-झिक में मेरी झपकी टूट जाती। शायद, इसलिए बस की रफतार कम थी।

मधुबनी में बस ज्यादा देर रुक गई। मैंने बगल वाले यात्री से पूछा, ‘‘बहुत देर रोक दिया। कहाँ गया ड्राइवर?’’

‘‘यहाँ से दूसरा ड्राइवर जाएगा। देखिएगा...कितना गजब चलाता है!’’ किसी की ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘वो देखिए! ड्राइवर...सरदारजी आ रहे हैं।’’

मैंने देखा, पच्चीस-छब्बीस साल का एक युवा सरदार आ रहा है। वह आया और ड्राइवर की सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर में बस चलने लगी।

यह क्या? सरदार तो बेफिक्र होकर बस चला रहा था। वह किसी-किसी गड्ढ़े में स्टेयरिंग छोड़ देता और दोनों हाथ उठाकर लोगों का अभिवादन करने लगता। मेरे मन में आशंकाएँ घुमड़ने लगीं। न जाने सुबह-सुबह क्या होगा? सड़क किनारे आते-जाते तमाम लोगों को सरदार दुआ-सलाम करते चल रहा था। जहाँ लोग नहीं मिलते वहाँ जोर से हार्न बजाने लगता। आवाज सुनकर बस्ती के लोग घर से बाहर निकल आते। एक-दूसरे के दुआ-सलाम में हाथ हिलाते और संकेत में हालचाल पूछते। बस आगे बढ़ जाती।

थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि छोटे-छोटे बच्चे सरदार से दुआ-सलाम करने अपने दरवाजे पर जमा हो गए। सभी ‘बाय सरदार अंकल’ कहते। जवाब में सरदार भी स्टेयरिंग छोड़ दोनों तरफ खड़े बच्चों को ‘बाय’ कहता।

सरदार की यह लोकप्रियता मुझे मोहने लगी। उसे कुछ कहे बगैर मैं इस स्थिति का अवलोकन करता जा रहा था। मगर स्टेयरिंग छोड़कर बस चलाने की उसकी यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगी। इस जर्जर सड़क पर दुर्घटना हो सकती है।

सरदार के हार्न बजाने की धुन से हर कोई परिचित लग रहा था। बस्ती के बाहर आ जाने पर भी हार्न की आवाज सुनकर, दूर खेत में काम कर रहे बच्चे हाथ उठाकर ‘बाय अंकल’ कहते। सरदार के चहेरे पर प्रसन्नता और सन्तोष का भाव दिखाई देता।

रास्ते में एक बच्चा नंगे खड़ा था। सरदार ने उसकी ओर देखा, उसे ‘बाय’ कहा, और इशारे से उसके नंगेपन का मजाक किया। समझाया, कि नंगा नहीं रहना चाहिए। बच्चे ने शरमाते हुए बाएँ हाथ से अपनी छुन्नी ढँक ली और दायाँ हाथ हिलाकर ‘बाय अंकल’ बोला।

मैंने गौर किया, इस गाँव के बच्चों को सरदार अंकल से दुआ-सलाम करने में खुशी होती है। आत्म-गौरव होता है। सरदार भी इस बात का खयाल रखता कि किसी बच्चे से दुआ-सलाम छूट न जाए।

कण्डक्टर का रवैया अब बदल चुका था, कोई झल्लाहट नहीं, बोलती बन्द!

अचानक बस रुकी। सड़क किनारे कुएँ पर बर्तन माँजने हेतु खड़ी स्त्री को देखकर सरदार ने संकेत से पूछा, ‘‘इतनी देर से...?’’

रास्ते के सभी बस्तियों के लोगों से सरदार का घरेलू रिश्ता जैसा हो गया था। जिससे बात करता, रिश्तेदारों के अन्दाज में जवाब मिलता। वह स्त्री पलटकर बोली, ‘‘तुम्हें बर्तन माँजने के क्या मतलब? खाना तो लौटकर ही खाओगे? ‘जटही’ से लौटो, खाना तैयार रहेगा।’’

सरदार मन ही मन मुसकराया।

अपनी दुनिया में मस्त सरदार आगे चल पड़ा। बस की आवाज सुनकर बच्चों का घर से बाहर निकलकर सरदार अंकल को ‘बाय’ कहना जारी रहा। ये वे बच्चे थे, जिनके नसीब में कोई कान्वेन्ट स्कूल, या ए फोर एपल सिखाने वाले टीचर, या गार्जियन नहीं थे।

एक जगह बस फिर रुकी। सरदार ने हार्न बजाई। एक महिला आँगन से बाहर आई। उसके तीनों बच्चे साथ थे, एक बच्चा पोलियो का शिकार था। महिला ने घूँघट से आधा मुँह ढँक रखा था। कुछ नहीं बोली। उसके चेहरे पर प्रतीक्षा की लकीरें खिंच आईं। बच्चे भी सरदार अंकल को आतुरता से देख रहे थे। सारे चुप थे, मगर बहुत कुछ कहा जा रहा था।

सरदार बोला, ‘‘अधीर मत हो! वह जरूर आएगा।’’

‘‘कब तक इन्तजार करूँ?’’ महिला बोली, ‘‘तुम्हारी ही बस से कमाने गया था। बोल गया था, जनकपुर में काम नहीं मिला, तो बीरगंज-मोरंग की ओर जाएगा। कहाँ आया अब तक? कोई हाल-खबर भी नहीं भेजता!’’

‘‘आएगा! जरूर आएगा!’’ सरदार बोला, ‘‘कोई चिट्ठी-पत्री?’’

‘‘नहीं!’’ महिला बोली, ‘‘भगवान से ज्यादा तुम पर भरोसा है भैया! बाल-बच्चे को भी जवाब नहीं दे पाती हूँ। बाप की याद में ये सूखकर काँटे होते जा रहे हैं।’’

‘‘मन छोटा मत करो, बहन! मैंने कहा था, अब भी कहता हूँ, बहनोई को जरूर धून्ध निकालूँगा!’’

‘‘तुम तो जाने वाले दिन भी कह रहे थे कि मन छोटा मत करो!’’ महिला बोली, ‘‘...कमा कर आएगा तो बाँस-फूस का घर ईंट का हो जाएगा!’’

‘‘सब हो जाएगा, बहन! सब।’’ सरदार बच्चों को ‘बाय’ करते हुए आगे बढ़ने लगा।...बस खिसकने को हुई कि महिला ने सरदार को संकेत से रुकने को कहा। बस फिर रुकी। महिला बोली, ‘‘मुझे शंका हो रही है। पूरे नेपाल में कोहराम मचा है। राजा के हारने के बावजूद माहौल शान्त नहीं हुआ है!’’

‘‘धत् पगली!’’ सरदार बोला, ‘‘ऐसा नहीं सोचते! वह कमा कर जरूर लौटेगा।’’

‘‘सच?’’ महिला बोली, ‘‘भगवान तुम्हारे मुँह में अमृत दें।’’

बस फिर खिसकने लगी। मैंने गौर किया, सरदार की मुसकान खत्म हो गई थी।

मेरा मन किया कि सरदार से कहूँ- आप ही दुखी हो जाएँगे तो बच्चों में खुशियाँ कौन बाँटेगा?’’

पर मैंने कुछ कहा नहीं, मन ही मन सोचा। शायद वह मेरे मन की बात भाँप गया। दुबारा अपनी लय में लौट आया।

सरदार की लोकप्रियता से मुझे जलन होने लगी थी।

‘जटही’ पहुँचकर वह बस से उतरा, और चाय-दुकान की ओर बढ़ गया। मैं भी उसके साथ हो लिया। मैंने उससे बात करने की इच्छा प्रकट की।

उसने अपने सामने वाली बेंच पर जगह बना दी। मैंने मित्र को बुला लिया।

थकान उतारने के लिए सरदार ने अपने जूते-मौजे उतारे और बेंच पर पालथी मारकर बैठ गया। मैंने संक्षेप में उसकी प्रशंसा की। जवाब में वह केवल मुसकराया।

अपने बारे में उसने ज्यादा बातें नहीं कीं। बस इतना कि मधुबनी में रहता है, अकेला है, मधुबनी से जटही तक की सड़क के किनारे के सारे उपेक्षित बच्चे उसके जीने के सहारे हैं।

इसी बीच उसने हम दोनों का परिचय जाना, फिर हमारे प्रति उसका आदर-भाव बढ़ गया। अपेक्षाएँ भी।

उसी समय एक लड़का आया। उसे देखकर सरदार मुसकराया। पूछा, ‘‘अब कब बन्द होगा नेपाल?’’

लड़का बोला, ‘‘परसों।’’

सरदार हमारी तरफ मुड़ा और पूछा, ‘‘आपलोग कब लौटैंगे?’’

‘‘लौटना तो परसों ही है।’’ मित्र बोले, ‘‘कल सेमिनार खत्म होगा। परसों ही लौट पाना सम्भव होगा।’’

‘‘तब तो सर! सुबह-सुबह रिक्शा से लौट जाइएगा। पौ फटने से पहले। वर्ना रिक्शा भी नहीं मिलेगा!’’ लड़के ने कहा।

‘‘यह सेमिनार क्या होता है?’’ सरदार ने जिज्ञासापूर्वक पूछा।

‘‘किसी विषय पर विचार-विमर्श के लिए विद्वानों का सम्मेलन।’’ मित्र ने बताया, ‘‘हम दोनों उसी के लिए जा रहे हैं! ’’

‘‘किस विषय पर विचार-विमर्श होगा?’’

‘‘नेपाल की वर्तमान स्थिति और शान्ति बहाली की समस्या पर।’’

सरदार गम्भीर हो गया। थोड़ी देर के लिए लगा, कहीं खो गया वह। सामान्य होने पर मुझसे पूछा, ‘‘एक बात बता सकते हैं?’’

‘‘क्या?’’

‘‘किसी भी आन्दोलन में निर्दोष ही क्यों मारे जाते हैं? निर्दोष की लाश पर ही क्यों शुरू होती है राजनीति?’’

मैं चुप रहा।

सरदार बोला, ‘‘आपलोग पत्रकार हैं। महत्वपूर्ण सम्मेलन में भाग लेने नेपाल जा रहे हैं। मुझे सलाह दे सकते हैं, मैं अपनी मुँहबोली बहन को कैसे बताऊँ कि पेट के लिए जनकपुर-वीरगंज भटकने वाला उसका पति मारा जा चुका है।’’

हम दोनों चुप रह गए। सरदार बोला, ‘‘मुझे समझ में नहीं आता, मैं किस मुँह से उसके विश्वास का गला घोंट दूँ? आपलोग बता सकते हैं?’’

हमारे होश उड़ गए।

सरदार की आँखों से आँसू बह रहे थे...।

 

खुशियाँ बाँटनेवाले सान्ता क्लॉज को पहली बार रोते देखा था।
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             ‌‌‌       हिंदी अनुवाद – अरुणाभ सौरभ 




Saturday, November 5, 2022

मच्छरदानी (मैथिली कथा) - मेनका मल्लिक

कथा

मच्छरदानी

मेनका मल्लिक
yll lot iulllllullyuluuluiul lulu iu pl p

घर मे पैसतहि मीनू हाथक बेग टेबुल पर राखलकि आ तरकारीक झोड़ा भनसाघरमे। फ्रीज स' पानिक बोतल लेलकि आ सोफा पर बैसलि। बोतलक बहरिया सतह पर अभरल पानि के तरहत्थी स' पोछलकि आ ओही तरहत्थी स' अपन कपार, कनपट्टी, दुनू आंखि आ गाल हंसोथैत कंठ धरि ल' गेलि। तखन सोह भेलै जे आफिस स' एलाक बाद मुंह-हाथ नहि धोलकि अछि। ओ उठ' चाहलकि, मुदा आसकति लगलै। थकान स' सौंसे देह टुटै छलै जेना। ओ आंखि मुनि लेलकि।
       घरबला चौकी पर गेरुआ स' पीठ ओंगठौने टी वी देखि रहल छलै। मीनू के घर मे पैसतहि ओ टी वीक आवाज कम क' देने छलै। सभ दिन एहिना होइ छै। पत्नी दिस तकैत बजलै, "आबि गेल'। आइ टाइमे पर...।"
       मीनू किछु जवाब नहि देलकि। उन्टे प्रश्ने पुछलकि, "सोनाली कत' गेलै?"
       "से, हमरा पूछि क' गेल' हय। मेट्रिक पास करिते पांखि भ' गेलै छौंड़ी के। आखिर बेटी ककर छै, तोरे ने? पुछलियै त' बोललै जे सहेली लग जाइ छी। बस, एतबे। आब हम की पुछितियै- कोन सहेली? केहन सहेली? आ पुछबे करितियै त' हमरा कहैत? तखन..."
       मीनू चुप भ' गेलि। ई कोनो एक दिनक नहि, सभ दिनक सोहाग-भाग छै। सभटा सुनबाक आदति भ' गेल छै ओकरा। मुदा, बेटीक बात कहियोकाल होइ। ओकरा रहल नहि गेलै, "से, बाप सन रहितियै तखन ने। घर आ बाहर, दुनूठाम सिपहिये सन बनल रहने...।"
       मीनू चुप भ' गेलि। सोचलकि, पूरा कहतै त' बमक' लगतै घरबला। कह' लगतै जे खबरदार! सिपहिया नहि कह हमरा। परमोसन लेने रहितियै त' दरोगा भेल रहितियै। मुदा किए लियै परमोसन ? परमोसन लेने बदली होइतै आ परिवार छुटि जैतै। कत्ते चाही? बहु कमाइते छै। ओना अहू पोस्ट मे बदली के सुन-गुन होइ छै। जोगार धरा लै छियै। बहु के छोड़ि क' कत्त' जेबै? एतेक बाजि ओकर घरबला मुस्कियाइत रहै छै, मुदा ओकर मुस्की मीनू के अंगोर सन लगै छै।
       बेटी के दुलार चाही। मायक दुलार। बापक दुलार। ई बात ओकर घरबलाक दिमाग मे नहि अबै छै। ओकरा ताहि सभ स' कोनो मतलब नहि छै। ड्यूटी स' एतै आ टी वी लग बैसि रहतै। कात मे जग भरि पानि, गिलास आ चुनौटी राखि लेतै। आर कोनो बेगरता हेतै, त' अढ़बैत रहतै। बस एतबे टा दुनिया। मीनू के अएलाक बाद जे कहैत रहै छै, से ओहू दिन कहलकै, "थक्कल लगै छहक। चाह नहि पीबहक? हमरो बड़ी देर भ' गेल। सोनलिया के कहलियै, मुदा...।
       मीनू बाजलि, " तं बना क' लाउ ने।"
       "इह। हम बनबियै?" घरबला बजलै, "हमरा बनाब' के रहितै त' बनौने ने रहितियै।"
       मीनू बेसी नहि सुनलकि। उठलि। दू कप चाह आ एकटा प्लेट मे बिस्कुट आनलक। घरबला के चाह देलक। अपने चाह आ बिस्कुट लेलकि। ओकरा बिस्कुट नहि दैत अछि। चाहक संग बिस्कुट पसिन नहि छै ओकरा। एकबेर देने रहै त' नहि खेलकै। कहलकै जे चाहक संग बिस्कुट खेने चाहक इज्जति उतरि जाइ छै। मीनू सोचलकि जे एहन उनटल दिमाग बला के की कहल जाय? तहिया स' अगबे चाह देब' लागलि
       चाह पीलाक बाद जेना आन दिन होइ छै, तहिना घरक कोल्हुमे अपन कान्ह लगा देलकि।
ओकरा पिता मोन पड़लखिन। बियाहक समय पिता कहने रहथिन जे तोरा बेटे सन पोसलिय' ह'।  तों पढ़ल-लिखल छहक बेटी। एम ए पास। नोकरी करै छहक। बर तोरा लायक नहि छह, से हम मानै छिय'। मुदा, हम की करिय'? अपना सभ मे तोरा जुगलक बर कठिन छै। सिपाहिए छै, त' की भेलै? हमरा भरोस छै जे तों ओकरा अपना लायक बना लेबहक। परमोसन हेबे करतै। बनि जेत' तोरा लाइक।
       मुदा, मीनू किछु ने बाजलि। बुझयलै- बाबू ओकर बियाह नहि कयलखिन, अपन माथक बोझा उतारि क' ओकरा माथ पर एकटा बोझा राखि देलखिन। मुदा, असल बात नहि कहलखिन। वाह रे कन्यादान। तकर बाद मीनू मशीन बनि गेलि। आफिस मे, घर मे आ पलंग पर। घरबलाक संग दूटा बेटा आ एकटा बेटीक सेवा मे लिप्त। दुनू बेटा इंजिनियरिंगक पढ़ाइ लेल बाहर छै। 
       लोक कहै छै- बड़ सुखी अछि ओ।
       एकदिन घरबला कहलकै, "आफिस मे तोरा बारे मे किदन-किदन सुनै छिय'।"
       "की सुनै छियै?"
       "कहांदन बड़ करगर छहक। ककरो गुदानिते ने छहक। लोक कहै छ' जे सिपाही छै घरबला आ मुंहक जोरगर छहक तों।"
       "आर किछ?"
       घरबला चुप भ' गेलै।
       मीनू के मोन पड़लै। जहिया ओकरा नोकरी भेल रहै, ताहि समय कम्मे महिला नोकरी मे अबै। खास क' छोट-छोट शहरक आफिस सभ मे। तेहन महिला सभ अपन गाम, शहरक मोहल्ला सं ल' क' हाट-बजार आ आफिस धरि आकर्षणक वस्तु होअय। ओकरा डेगडेगे आंखिक प्रहार सह' पड़ै। मीनूक संग सेहो तहिना भेल रहै। आफिसक सहकर्मी सं हाकिम धरिक लेल ओ अजगुत भ' गेल रहय। आ सबहक आंखि-बोलक प्रहार ओकरा बेध' लागल रहै। एहि प्रहार सभ स' बच' लेल ओ एकटा उपाय सोचलकि। ओ अपन स्वभावक बहरिया आवरण पर कठोर होयबाक लेप लगौलकि। जोर-जोर स' बाजब, ठाहिं-पठाहिं जवाब देब, ककरो अपन ल'ग-पास मे अभर' नहि देब ओकर स्वभाव भ' गेलै। आ ओकर एहि रूप के लोक मनसब्बरि कह' लगलै। फरदबाल कह' लगलै।
       मुदा, ताहि स' नहूं-नहूं ओ एकसरुआ होम' लागलि। घरो एकसरि, बाहरो एकसरि। ओकरा लगलै जे ओकर मूल परिचिति हेरा रहल छै।
       एम्हर आफिसक एकटा सहकर्मी, सुबोधक प्रति ओकर आकर्षण बढ़' लागल छलै। सुबोध बदली भ' क' आयल छल। ककरो स' बिना काजक गप नहि करय। काजोक गप बान्हले-छान्हल। सुबोधक ई गुण मीनू के नीक लाग' लगलै। एकदिन टिफिन बेरमे वैह सुबोधक केबिन मे गेलि। गप्पे-गप्पमे सुबोध कहने रहै, "आफिस मे अहांक छवि बदमासि बला अछि। मुदा, हमरा लगैए जे लोक अहांक मोन के देखबाक प्रयास नहि केलक अछि।"
       मीनू चुप भ' गेलि। कने कालक बाद बाजलि, "अहांक कनियां बड़ भाग्यशाली छथि।"
       सुबोध बाजल, "हमर बातक आ अहांक बातक कोन तारतम्य?"
       "से हम नहि बूझै छी। हमरा मोन मे आयल, से कहलौं।' मीनू बाजलि।
       आ तकर बाद स' आफिस मे जलखै दुनू एक्कहि ठाम कर' लागल आ दुख-सुख बतिआय लागल। आफिसक लोकक लेल ई दोसर अचरज रहै। किछ गोटे कह' स' बाज नहि अयलै - "की मीनू मैडम? जे लबारी मे नहि, से बुढ़ारी मे...।"
       तकर बाद स' मीनू के आफिस स' आब' मे कने अबेर भ' जाइ। सुबोध के सेहो। काजक समय समाप्त भेलाक बाद दुनू आफिस मे बेसी बेर धरि गपसप कर' लागय। ताहि कारणें घर पर ओकर घरबलाक तामस सिरिंग चढ़ल जाइ। दुनू मे कहासुनी सेहो भ' जाइ।
       प्राय: तीन-चारि मासक बाद आफिसक प्रधानक बदली भ' गेलनि। नव प्रधान अयलाह। मुसलमान छलाह। सभक परिचय भेलनि। 
       दोसर दिन मीनू के प्रधान बजौलनि। पुछलनि, "अहां समस्तीपुर मे कहियो रही?"
       "हं, हमर पहिल पोस्टिंग ओत्तहि छल। अहां किनसाइत वैह तौफीक सर तं ने छी जे ओत' प्रोबेसन मे आयल रही।" मीनू पुछलकि।
       "हं, मुदा चिन्ह' मे अहां के देरी भेल।"
       "अहांक चेहरा बहुत बदलि गेल अछि।" मीनू बाजलि, "काल्हि जखन अहां के देखलौं, त' हमरा बुझायल। राति भरि हम ठेकनबैत रहलौं जे किनसाइत अहीं छी।"
       "चेहरा बदलल अछि, मोन नहि। एखनो हम अहांक वैह..." तौफीक सर सम्हरलाह, "सोचल नहि भ' पबै छै। खैर, कोनो बात नहि। हमरा दुनूक अपन-अपन परिवार अछि आ से महत्वपूर्ण अछि। एकटा आग्रह।"
       मीनू चुप। कतौ हेरायलि।
       "सुनि रहल छी?"
       "जी।"
       "आफिस मे अपना दुनू गोटे अपन-अपन अतीत बिसरि क' काज करी, से आग्रह।" तौफीक साहेब बजलाह।
       "प्रयास करब जे बिसरि सकी।" मीनू बाजलि, "मुदा, एते धरि अवश्य जे अहांक मर्यादा के बचा क' राखब।"
       तौफीक साहेब चुप।
       मुदा मीनू एतबे बाज' मे घामे-पसेने नहा गेल छलि। ओ प्रधानक चेम्बर स' बहरा गेलि।
       सुबोध लग आबि ओ अपन ओहि अतीत के उझीलि देलकि। ताबत सुबोध ओकरा लेल एहन मित्र भ' गेल छलै जकरा प्रति ओ विश्वस्त छलि। समस्तीपुरक अपन पोस्टिंगक बारे मे कहलकि। ओत' स' बदलीक कारण कहलकि।
       तौफीक आ मीनू, दुनूक पहिल पोस्टिंग छल समस्तीपुरक आफिस। दुनू नव-नौतार। दुनू एक-दोसराक ध्यान राख' लागल। दुनूक मोन मिल' लगलै। दुनू एक-दोसराक संग कतेको-कतेको सपना देख' लागल। आ नहूं-नहूं दुनूक सपना आफिस सं ल' क' बाहर धरि पसर' लगलै। तहिया शांत-चित्त स्वभावक छलि मीनू। दुनूक सपना बाटे-घाटे गन्हाय लगलै। गुलंजर उठ' लगलै। आफिस स' बहराय त' सुनय- लैला ओ लैला...।
       बिन कोनो परबाहिक ई दुनू तरे-तर तय कयलक जे दुनू वयस्क अछि, कोर्ट मैरेज क' लेत‌। रहत मुदा एक-दोसराक भ' क'।
       मुदा, आफिस आ समाजक लोक के मीनू आ तौफीकक सम्बन्ध सोहइतै कोना? मीनूक पिता के चेतौनी देलक जे एकर बियाह तुरंत कोनो दोसर ठाम क' देल जाइ। सभ मिलि दुनूक बदली करौलक। दुनू दू दिशा मे चलि गेल। दुनूक बीच मे बान्ह बन्हा गेलै। आइ सन मोबाइलक जमाना नहि रहै आ ने टलीफोने सभठाम सहज रहै।
       नवका आफिस के प्रधान आ संगठनक किछ लोक के मीनूक बदलीक कारण बुझा गेलै। ओ सभ दोसरे माने लगेलक। ओ सभ मीनू के अजमाब' चाहलक, मुदा अपने सनक मुंह भ' गेलै।
       असल बात यैह रहै, जकर कारणें मीनूक पिता झट स' ओकर बियाह क' देलनि। पहिने एहिनो होइ। माय-बाप सोचैत अछि जे समयक संग सभ ठीक भ' जेतै। समयक संग माय-बाप बुझितो यैह छै जे ठीक भ' गेलै, मुदा...।
       "मुदा, माय-बाप के ई अंतो धरि नहि बुझाइ छै जे बेठीक‌ की रहलै।" सुबोध बाजल।
       "तौफीक सर के अयलाक बाद सहजतापूर्वक काज कोना क' सकबै, सैह सोचि-सोचि....।"
       "जेना ओ कहलनि।" सुबोध बाजल, "जेना रहै छी। दुनू गोटे अपन-अपन मर्यादाक रक्षा करैत रहू।"
       तकर बाद मीनू के आफिस स' घूर' मे देरी भ' जाइ। पहिने स' कने बेसी। तौफीक सर, सुबोध आ मीनू। तीनू कोनो-ने-कोनो बहन्ने काज समाप्त भेलाक बाद गपसप मे लागि जाय। हुलसि जाय तीनू।
      घर घुरलाक बाद घरबलाक व्यवहार मीनू के झरका दै आ टंटा शुरू भ' जाइ। टंटाक ग्राफ बढ़' लगलै। कतेको राति एहन होइ जे टंटा समाप्त कर' लेल सोनाली दुनू भाय के वीडियो कौल करय आ देखाब' लागय। वीडियो पर बेटा दुनू के देखैत मीनू चुप भ' जाय। घरबला मुदा बमकैते रहय।
       एक राति रुसि रहलै घरबला। मीनू सोनाली के कहलकै जे खाइ ले' कहै ओकरा। दुनू परानी मे दू दिन स' बाजा-भुक्की नहि रहै। सोनाली बाप के खाइ ले' कह' नहि गेलि, त' मीनू स्वयं जाय लागलि। सोनाली ओकरा पकड़ि लेलकै, "छोड़ि दहुन मम्मी। ठेहिअयता त' अपने खयता। नब-नब ड्रामा शुरू केलनिहें।"
       "नहि बेटी, घर मे सब खेतै आ एकटा भुक्खल रहयै, से हेतै? हमहीं कह' जाइ छियै।"
       "एकदिन कहबिही त' सब दिन अहिना करथुन। हमर बात मानि ले मम्मी। कखनो अपनो मान धर। अपनो ले' जी।" सोनाली बाजलि।
       मीनू बाजलि, "बेटी! तों हमर बांहि पूर' जोग भ' गेलें। बी ए पास करबें एहि साल। तों अपना अनुसारें ठीके सोचै छें। मुदा, हम हुनकर कनियां छियै ने। जाइ छियै। दू दिन स' बाजा-भुक्की नहि छै, तकरे कान्हि छै।"
      मुदा सोनाली ओकरा नहि जाय देलकै। अपने पिता लग गेलि‌‌। पिता कें मायक बारे मे कहलकै जे अहां नहि खेबै तं मम्मीयो नहि खायत। आ, अहां दुनू नहि खेबै त' हम केना खेबै। अहां चाहै छी जे घर मे सब भूखल रहय? अन्न बेरबाद होअय? भैया सब ई नब बात सुनता त' की कहता?
      बेटीक एहने-एहने बात पर पिता मानलकै आ भोजनक बाद स्थिति सामान्य सन बुझयलै।
      सोनाली सुनलकि- पिता अपन पलंग पर कीदन-कहांदन  बड़बड़ाइते छलै।
       मीनू बैसल छलि। सोनाली दोसर घर स' बहरयलै आ माय के कहलकै, "मम्मी ओहि घरक पलंग पर मच्छरदानी टांगि देलियौए। सूति रह।"
       मीनू बाजलि, "हम टांगि लितहुं ने। तों अपन कोठरी मे सूत ग'।"
       "आब तोहर मच्छरदानी हमहीं टांगि देल करबौ। चल।" सोनाली मीनूक बांहि पकड़ि क' उठयबाक प्रयास कर' लागलि।
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Thursday, October 6, 2022

साधो! देखह जग बौरायल (मैथिली कथा) : प्रदीप बिहारी

कथा

साधो! देखह जग बौराएल

प्रदीप बिहारी

बचनू गुम्म छल। मात्र लयमे टिनही बाटी पटकि-पटकि मांगि रहल‌ छल। ओहिदिन ओ किछु बाजि नहि रहल छल, से खखरीकें सोहाइत नहि छलैक। ओ बाजलि, "हे, मौनी बाबा किए बनल छहो? बिना मंगने के देत'?"
       मुदा, बचनू चुप। आर भिखमंगू सभ मांगि रहल छल। गंगनहौन‌ वा आने करतेबता बला श्रद्धालु सभ जहिना सिरहीसं धार दिस खंघरैत छल, भिखमंगू सभ अपन-अपन बाटी लयमे पटक' लगैत छल आ मंगैत रहैत छल- "दए दहो बाबू आर, मैयो आर, मामा (पितामही) आर, भैया आर, भौजी आर, बहिन आर...। धरम करहो, दान करहो, पुन्न करहो। दोहाइ गांग माइ के...दाता के कलियान करियौक...मनकामना पूरा करियौक...।
       किछु भिखमंगू एहुना बाजय, "दान करियौक दानी सब। भिखमंगा के जतबे देबै, सेहे फल। सेहे धरम। सेहे संग जायत। जय गंगा मैया। सब के रछिया करियौक।"
        एकटा श्रद्धालु महिला बजैत जाइत छलीह, "कतेक गन्दा छै ई सभ? नहाइ ने किए छै? एकरा सभ के पानिक कोन‌ संकट छै? जखन साक्षात् गंगे माइ छथिन, तखन...।"
        बाटे परसं श्रद्धालु सभक संग अबैत पंडा सभ बजैत रहैत अछि, "आबू जजमान। अइ बाटे आबू। ई सब अहिना काते-कात‌ भेटत। अपने गामक फल्लां बाबू सेहो हमरे जजमान छिका।"
       "से त' हेबे करत पंडा जी।‌ जखन हमर गामे अहांक जजमान अछि, तं सभ केओ हेबे करताह।"
       मुदा, बचनू चुप। बचनूक चुप रहब खखरीकें बेध' लगलै। 
       दाता सभ यथा साध्य बाटी सभमे खसबितो छलाह। जकरा बाटीमे जहिना किछु खसल, तहिना ओ द्रव्य वा खाद्य-वस्तु सभ अपन-अपन कपड़ाक धोकड़ीमे सहेजि लैत छल। बाटी खालिक-खालिए।
       खखरीकें बाटीक लयात्मक आवाज साफे नीक नहि लगैत छलैक। बाजलि, "है बुढ़बा! बोलब ने करै‌ छहो? गंगाघाटके लोक आर खुशी स' नाचब करै छै जे कुंभ लगतै। सबहक आमदनी बढ़तै। किछ सोचबहो कि...। बौकी देवी धए लेलक' हन?
       खखरीक इहो प्रयास खालिए गेलैक। बचनू नहि बाजल। खखरी सोचलकि- आर सभ बात त' ठीक, मुदा खखरीक मुंहसं अपना लेल 'बुढ़बा' शब्द नहि सुन' चाहय। एकबेर खखरी एहि शब्दसं संबोधन कयलकि तं तरंगि उठल बचनू । अबस्से कोनो विशेष बात छै। 
       खखरी अखियास' लागलि। कखन स' बचनू चुप रह' लागल छल? मोन पड़लै। काल्हि दुपहरमे बजार होइत मास मेलामे आब' बला श्रद्धालु सभक खोपड़ी देखैत मुर्दघट्टी दिस गेल। जाइ बेर स' पहिने बेस चरफर छल। जिलेबियासं बतिआयल। जानि नहि, घुरलाक बाद अनचोके स्वभाव किएक बदलि गेलैक।
       जिलेबिया जुआन भेल जाइत अछि। भरि मासमेला ओ एकरा सभक संग नहि बैसैत अछि। जेम्हर खालसा सभ बनैत छैक, ओम्हरे अपन अपन ग'र धरबैत अछि। भिखमंगू सभ बुझैत अछि जे जिलेबियाक बाप मंगनुआ, बचनूक बेटा नहि छैक, मुदा जिलेबिया बचनूक पोती छैक। तें एहि छौंड़ीकें सभ मानैत छैक। बचनू भिखमंगू सभक माइन्जने सन अछि। घाट परक भिखमंगुए सभ नहि, दोकानदार आ पंडो सभ बचनूकें गुदानैत छैक। तें जिलेबिया सभक दुलारू छैक।
       एहिठामक सभ भिखमंगू विभिन्न ठामसं लोहछल पेट आ पीठ ल' क' आयल छल। एकरा सभमे ककरो केओ नहि आ सभ सबहक। 
       जिलेबियाक माय कदमिया आ मंगनुआक बीच माया-पिरती भेलैक। नुकायल बात देखार होम' लगलैक। एकरा दुनूकें अन्दाज नहि भेलैक जे दुनूक माया-पिरतीक सुगंध घाटक भिखमंगू सबहक नाकमे पैसि जयतैक। ओकरा सभक समाजमे रंग-रंगक गप होम' लगलैक। नीक आ बेजाय, दुनू रंगक। 
       "इह, घर ने दुआरि आ मौगी डेबए लेल उताहुल।"
       "हे रे, अपना आर के की? जइ जए घ'र ओही जए ध'र। दिनो-दुनिया त' ओही जए ने?"
       "धु: बड़गाही। पेट मे ख'ढ़ ने आ सिंह मे तेल।"
       "दुनू मिलि कए कमैतै त' जरूरे आगां बढ़तै।"
       "रे बड़गाही! केतनो आगां बढ़तै, रहतै त' भिखमंगुए ने।"
       "नञि रे। रूपा भेने सब किछ बदलि जाइ छै। रूपा होतौ त' बितलाहा काल्हि गांग माइके पानि मे दहाय जेतौ। आबइ बला काल्हि बनतौ। आ रूपा नञि रहतौ त' किछ ने। आर सी सी बला सड़क पर गांड़ि रगड़ैत रह।" 
       "ताही ले' मुर्दघट्टी बला रस्ता दिस दुनू मांगब करै छै। दियौक हे दाता। दियौक हे कर्ता। दियौक हे मालिक के बेटा-भतीजा, सर-सम्बन्धी, गौंआ-घरुआ। अपने आर ले' केतना अरजि क' मालिक चलि गेला, से मोन राखियौ। राजा छियैक अपने आर। मालिक के बैकुण्ठक रस्ता क्लियर करियौक। आ से भिखमंगुए के देने होत। दोहाइ मालिक, दोहाइ गंगा माइ।"
       "से सब टा त' मुर्दघट्टी स' पहिने ने । मुर्दघट्टी लग ट'पौ ने दै छै। ओइ जए के गूहो डोमे राजा आ ठीकेदार के होइ छै।"
        पहिल बेर एकटा बजलैक, "हमरा बिचारे मंगनुआ आ कदमिया के बुझेबाक चाही। हमरा सब के भाग मे मांगनाइ टा छिकै। मौज-इलबाइस नञि छिकै।"
       "इह बड़गाही! पढुआ पढ़ब करै हय। तोरा पटितौ त' छोड़ि दितही रे? चुपें। होमए दही। बचनू दा छेबे करै।"
       सैह, बचनुएक कहला पर मंगनुआ आ कदमियाक बियाह भेलैक आ बियाहक साते मासक बाद जनमलै जिलेबिया‌। जनमिते छौंड़ी माय-बापक संग चर्चाक केन्द्रमे आबि गेलैक। गुल-गुल शुरुह भ' गेलैक। होउक ने किए? मुदा, एहू बातकें बचनुए दाबलक। ओ बाजल रहय, "जकर रहै, तकरा ज'रे छिकै। छोड़ि नञि ने देलकै। बच्चा पहिले के होइ या बाद के, एकरे दुनू के छिकै ने। की हरजा?
      बात सेरा गेलै। मुदा सेराइत-सेराइत बचनू आ खखरीक बियाहक चर्च सेहो शुरू भ' गेलै। कहांदन एकरो दुनूक मोन मिललैक आ पैसि गेल गंगा जी मे। दुनू संगहि डूब द' कछेरमे आयल आ बचनू खखरीके सिनुरा देलक। दुनू संगहि क'ल जोड़ि गंगा माइकें प्रणाम कयलक आ सिरही पर चढ़ैत पहुंचि गेल अपन-अपन जगह पर। पहिने सोझा-सोझी बैसि क' मांगैत छल। तकर बाद खखरी अपन मैल-कुचैल बैसका आ बाटी उठौलकि आ आबि क' बचनूक कातमे बैसि गेलि।
       जिलेबियाकें ताकि आयलि खखरी मुदा, छौंड़ी नहि भेटलैक। खखरी सोचलकि- छौंड़ी छोट रहै तखने स' पयर‌मे घुरघुरा छै। आ आब चेष्टगर भेल जाइ छै, त' पयर मे किनसाइत मोबिलो लागि गेल छै। 
       खखरीकें विश्वास छलै जे जिलेबियाक पुछने बुढ़बा जरूर बजतै। मुदा, छौंड़ी भेटै तखन ने। अनदिनो मेले सन रहै छै एत'।
       बचनूक चुप्पी खखरीकें घोंटने जा रहल छलैक।
       तखने खखरीकें अपन ब्रह्मास्त्रक सोह भेलैक। एकटा शब्द आर छैक जे बचनूकें पसिन नहि छैक। ई शब्द सुनितहि ओ बमकि जाइत अछि। ओना एकरो नाम "खखरी" पसिन नहि छैक बचनूकें। बियाहक किछुए दिनक बाद ओ बाजल छल, "तोहर नाम खखरी के रखलकौ?"
       "बुतरुआ के नाम के राखै छै? माइए-बाप या दादा-मामा ने।" खखरी बाजलि, "से किए?"
       "हमरा नीक नञि लागब करै हय ई नाम।"
       "हे हौ! हमें हीरोइन छिकियै जे बैजन्ती माला आ हेमामालिन नाम रहितै। कहांदन हमरा माइ-बाबू के बुतरुआ होइ आ मरि-मरि जाइ। हमें जलमलियै त' हमरा गाम के एगो बराहमन बोललखिन जे एकर नाम जेहन-तेहन राखि दही। तखन किनसाइत बांचि जाउक।‌ तखन हमर नाम पड़लै खखरी ।" कने चुप भ' क' फेर बाजलि, "नाम जैसन लोक होइयो जाइ छै। देखहो ने! हमें की छिकियै? खखरिए ने।"
       "है, चुपें। आब हमरा जौरे छिकहो से यादि राखल करहो।" बचनू बाजल, "हमें आर एक तरहे उमेर बितला पर ज'र होलियै, एकर माने ई नञि जे तोएं अपना के खखरी बुझहो। तोएं खखरी नञि, हमर पुष्ट धान छिकहो।"
       "जे बुझहो।" खखरी लजा गेलि। मुदा, एके पलमे बाजलि, "अपने सन के हमें तोरो नाम रखिय'?"
       "से तोएं किए रखबहो हमर‌ नाम? तोएं हमर माइ कि मामा?"
       "गोस्सा किए उठल'?" खखरी बाजलि, "परेम स' लोक सांइ के नाम नञि रखै छै?"
      बचनू मुस्किआइत बाजल, "बेस राखहो।"
       "हमें जैसन छिकियै, तैसने ने राखब'।"
       खखरी जखन नाम कहलकि तं पहिने मुस्किया देलक बचनू, मुदा बादमे कहलकै, "सांइ के नाम राखए के स'ख पूरा होइ गेल' ने। आब सुनहो! आब कहियो अइ नाम स' हमरा नञि बोलबिहो।"
       से सांचे। जहिया कहियो धोखो वा विनोदोमे खखरीक मुंहसं ओ नाम बहरयलैक, बचनू बमकि जाय। तें खखरी अपन ब्रह्मास्त्र ल' क' बचनू लग गेलि। बाजलि, "हे, खखरा। खखरी के सांइ खखरा। बोलबहो कि हमें चलि जइय' दोसर घाट पर। परेम स' पुछै छिअ' त' अगरायब करै छहो। हमें चललिय' दोसर घाट दिस। बूढ़ भेने अइसने अगरायब करै छै लोक। रह' बैसल। खखरा नहितन।"
       'खखरा' सुनितहिं बचनू ठीके बमकि उठल, "है, तोएं मौगी छिकहो कि मौगी के झ'र। जे मना करब' सेहे करबहो। हमें मौनी बाबा नञि बनल‌ छिकियै।"
       "त' एतना बोलैला पर मुंह किए ने खोललहो?"
       "सोचब करै रहियै।"
       "की?"
       "अपना आर के माथा पर अकास छिकै। ई अकास एतना उप्पर छिकै‌ जे अपना आर के छतो ने बनै छै। निच्चा छिकै सिमटी-रोड़ा-छड़ स' ढलाइ कयल जग्गह। अइ पर पोन छिलाइते रहै छै। माटि अपना आर लेल कहां छिकै? सेहे सोचै रहियै जे..."
       "जे की?"
       "छोड़हो। जा जइ घाट पर जाइ छ'।"
       "इह बुढ़बा! तोरा छोड़ि क' कतौ जइब' से? जाइए ले' सामने स' कात मे अइलिअ' हन।" 
       खखरीक मुंह पर मुस्की पसरि गेलै।


अर्द्ध कुंभक घोषणा भ' चुकल छलैक। समितिक संग विभिन्न राजनीतिक पार्टी सभक स्थानीय विधायक सभक सहयोग तय भ' गेल छलैक। दलगत राजनीतिसं ऊपर उठि क्षेत्रक विकास लेल कुंभ मेलाक आयोजन जरूरी बुझायल रहनि सभकें। घोषणा भेल रहैक जे कल्पवासेक समयमे‌ एकरो आयोजन होअय।
       बचनूक मोनमे जे प्रश्न उठलैक, से किछु आर गोटेक मोनमे सेहो उठल रहैक।‌ बचनू कतोक पंडासं पुछने छल जे पचासो बरखसं ओ एहिठाम अछि। कुंभ मेलाक आयोजन पहिल बेर सुनि रहल अछि। शास्त्र-पुराणमे रहितैक, तं होइत रहितैक। ताहि पर एकटा पंडा कहलकै जे ई सभ‌ गोटे अध्ययन-मनन कयलनि अछि जे बहुत पहिने एत्तहु कुंभ होइत रहैक। तात्कालीन सरकार बन्न करबा देलकै। आब समाज फेरसं कुंभ लेल माथ उठा रहल‌ छै, तं की बेजाय?
       बेजाय बातक चर्च शुरू भ' गेल छलैक। पंडा समाजमे एहि आयोजन ल' क' दू गोल भ' गेल रहैक। किछु नवयुवक एकर विरोध कयलकैक, "हे हौ! हमे बहुत तकलियै, मुदा अइ ज' कुंभ के कोनो इतिहास नञि भेटलैक। एना ज' लगाब' लगलै त' कत्ती जग्गह मे कुंभ मेला लागए लगतै?"
       "हे रे, लगतै त' तोरा की दिक्कत?"
       "हमर दिक्कत तोएं आर नञि बुझबें। तोरा आर के दिमागि लगाब' पड़तौ।"
       "बड़े काबिल छिकही त' बताबें अपन दिमागि के बात।"
       "सुनहो। अइ अर्द्ध कुंभ के सरकार मान्यता नञि देतै। कुंभ किए शुरू होलै, तइ कारण मे अपना आर के गंगाघाट नञि छिकै। तें ई समिति मासमेला के जौरे एकरा कए रहलै हन। मासमेला त' राजकीय मेला घोषित छिकै। अही जौरे करतै‌ त' प्रशासनिक काज निमहि जेतै। अइ दा पहिल बेर छिकै। एत्ते जल्दी के सब औतै‌ शाही-स्नान आ आर काजमे?"
        "सभे औतै। बड़का पंडित 'हं' बोलि देने छिकथिन। ऊ ओहिना 'हं' नहि बोलने होथिन। ओत्ती विद्वान लोक ओहिना मुंह नहि खोलब करै छै। ओकर एक-एक गो बोली के महत्व होब करै छै। कोनो बात तौलि क' बोलब करै छथिन। कहियो हुनकर दर्शन केलही हन?
       " अहं।" 
       "एकदा हुनकर दर्शन कए ले। दिमागि के खरबहा किल्ली जे छिकौ ने, से ठीक भ' जेतौ। हुनकर पहुंच बहुत ऊपर तक छिकनि। ऊ सब किछो मैनेज कए लेथिन।"
        "अइ मेला स' अपन क्षेत्र के कत्ती विकास होतै, से सोचब करही।"
        "सोचै छिकियै हमे। मासमेला के बाद गंगाघाट नरक सन होइ जाइ छै। हियां के लोक अपन जरुरति अनुसार साफ करब करै छै, बांकी सभ त' बाढ़ि‌ मे‌ गंगा माइ अपने साफ कए लै छिकथिन।"
       "साफ होइ जाइ छै ने रे?"
        "हं, से त' होइ चाइ छै। मुदा, सोचही! कुंभ मेला के बदला गंगा के सफाइ आ घाट के विकास पर खर्चा होइ त' कत्ती नीक होतै। ज' विष्णु भगवान के अमृत कलश स' बुन्न अइ ज' खसल रहितै‌ त' एकटा बातो। ई त' बजार लगायब होलै।"
        एहि वक्ताकें छोड़ि बाकी सभ, माने एके स्वर मे बाजि उठल, "रे बड़गाही। ई कमनिस्ट सन के बात बोलै हौ। एकरा बड़का पंडी जी स' भेंट कराना जरूरी छिकै।"
       तकर बाद एकाएकी बाज' लागल, "बाप रे! पंडा के बेटा कमनिस्ट होइ गेलै। हे गंगा माइ रक्षा करू। रक्षा करू मैया।"
        "हे रे सुनें, अपन दिमागि अपने जौर मे राख,  नञि त'...। अइ जए उनटल दिमागि बला के काज नञि‌ छिकै। जे होइ रहल‌ छिकै, एकदम सही छिकै। अमृत‌ के बुन्द जहां खसलै, से तोएं देखए गेल‌ रही? हमें कहब करै छियौ जे अहू ज' खसलै। तोहर‌ नजरिए ओहन‌ नञि छिकौ जे देख सकबें। घाटक पंडा आ छोट-पैघ दोकानदार आर के आमदनी बढ़तै। बुझल छौ? भोजनालय आ जलपान गृह बला आर गाम स' लोक मंगा रहल छै। ओतने नहि, गंगौटक थुम्हा बना-बना राखि रहलै हन। चुप रहें। ऐसन बात नहि बोल। जा क' बाबू जौरे सनसकिरीत सीख। अइ घाट पर उहे काज देतौ, उहे कलियाण करतौ।" तकर बाद जोरसं बाजल, "जय श्री राम । हर हर गंगे।" 
       जय श्री राम आ हर हर गंगेक स्वर आर सभ दोहरयलक, तेहरयलक। पूर्वक वक्ता जकरा ई सभ लुलुआ रहल छलैक, एकरा सभक उतारा देब' लेल उद्यत भेल कि फेर सभ डांटलकै ओकरा। एकटा बाजल, "लगै छै‌ ई कोनो गैंग के सदस्य बनि‌ गेलौ हन। एकर हियां रहब विनाशकारी होतौ। एकर बाबू के कहए पड़तौ जे एकरा सैंति क' राखय वा कत्तौ बाहर पठा दिअए।"
        दोसर बाजल, "लछमी दा, आब पता लगब' पड़त' जे एकर गैंग के आर लोक नञि ने घाट पर घुमब करै छै।"
        लक्ष्मी बाजल, "से पता लगो। भेटौ त' पहिले कहि दिहै जे गंगाघाट पर उहे रहि सकै छै जे मन-वचन-कर्म स' हियां के रहतै। जे रहब करै छै हियां आ सोचै छै कतौ आर के बारे मे, से हियां नञि रहतै। पहिने बुझा दीहै। नञि बुझतै त' उपाय छिकै ने रे!
       ओ वक्ता चुपचाप ओहिठामसं सहटि गेल।

बचनू खखरीकें डांटि तं देलकै, मुदा कहलकै‌ नहि जे किए मौन रहै? ओ जे बात कहलकै, से खखरी बूझि नहि सकलि। ओकरा जिलेबिया पर विश्वास छैक। वैह छौंड़ी बचनूसं पूछि सकैत अछि आ ओकर बात बूझि सकैत अछि। चंसगर छैक छौंड़ी।
        खखरी जिलेबिया के घाट दिस ताकि रहल छलि। ओकरा मोन पड़लै। ई सभ पहिने जे टिनही बाटी पटकए, तं कोनो लय‌ नहि बहराइक। सभ ढलाइ पर टिनही बाटी पटकए-बेसुरा। जिलेबिया सभ के लय मे पटक' सिखा देलकै। एकरा सभकें लय देलकै छौंड़ी।
       एकटा दोसर भिखमंगूसं खखरी पुछलकि, " जिलेबिया के देखलहो हन?"
       "से किए? तोरो किछ बोलल' हन‌ की?"
       "नञि, लेकिन..."
       "एगो मौगी ओकरा खिहारै रहै।"
       "किए?"
       "बोललै जे मलिकाइन, खाली गांग लहैने कुच्छो नञि‌ होत। हमरा आर के जे दान देबै, सेहे ओइ जनम भेटत। नञि देबै त' अइ जए आबि क' मांगए पड़त। अही पर ऊ मौगी अपना हाथक लोटा लए क' मार' दौगलै जिलेबिया के।"
       "तखन?"
       "तखन की? जिलेबिया लंक लेलकै। थुलथुल मौगी कत्ती दौगितै? छौंड़ी के बिखिन्न-बिखिन्न गारि पढैत घुरि अइलै।"
        खखरीक मोन कने हल्लुक भेलैक। ओ घुरल तं बचनू लग जिलेबियाकें देखलक। दुनू‌ बतिया रहल छल।
       "बुझलही नुनू। मेला समिति के एगो सदस्य हमरा बोलल हन जे मेला भरि ई जग्गह खाली कए दहो। सब भिखमंगा आर पुरना मुर्दघट्टी स' कने आगां चलि जाह। ओइ ज' तोरा आर के लेल खोपड़ी बनि रहल छह।"
       "से किए हौ बाबा?" जिलेबिया पुछलकि।
       "एत्ती गो मेला हेतै। बाहर स' बड़का-बड़का संत महात्मा औतै। भिखमंगा के‌ देखतै त' हियां के छवि खराप होइ जेतै। बोललै‌ जे जा मेला रहतै, ता पुरना मुर्दघट्टी लग के नबका खोपड़ी मे‌ तोएं आर चलि जाहो। मेला मे भीख मांगैत कोइ नजरि नञि एबहो। सब के खोराकी मिलत'।"
       खखरी बाजलि, "कहलहो नञि जे भिखमंगा आर सेहो धरम असथल के सोभा-सुन्दर होइ छिकै।"
       "हमे बहुत कहलियै, ऊ आर सुनै छै? एखनी सब एकबोलिया होइ गेलै हन। मुंह स' गिरलै, नञि मानबहो त' तेरहम बिदिया।" बचनू बाजल, "काल्हिए हमरा बोलल। आइ संझिया मे जवाब मांगलक। सेहे सोचि क' हमे गुम्म भए गेलियै।"
       जिलेबिया सुनि रहल छलि। ओकर देह तना रहल छलै।
       खखरी बाजलि, "त' भिखमंगा आर के बोलितहो ने। सलाह लितहो ने। की बोलबहो आइ?"
       खखरी डेरा गेलि। बहुत रास अधलाह स्थिति मोनमे नाच' लगलै। घाट परक एहन-एहन बहुत लीला ओ देखने अछि।
       "पहिने जे बात हमरे नीक नञि लगलै, से ओकरा आर के किए बोलितियै?" बचनू बाजल, "हमे बुझै छिकियै जे लोक के एहिना हटाएल जाइ छै। तोरा हटबै छियौ, से थोड़बे कहै छै? कोनो बहन्ना लगा क' हटौतौ। हमरा जेना पता लागल हन जे हियां कुंभ-द्वार बनौतै। तकर बाद जहां हमे आर जइबै, ऊ झग्गड़ बला जग्गह छिकै। ओन्नी के गौंआ बोलै छै जे हम्मर आ सरकार बोलै छै जे हम्मर। जकर होउ, उहो अपना आर के भगाइए देतै।"
       "तखन।" खखरी पुछलकि।
       "की?" बचनू बाजल, "राति भरि इहे सोचै रहियै जे हमरा आर के पोन त'र ने माटिए छै आ ने माथ पर अकासे।"
       एतेक कालसं चुप जिलेबिया बाजलि, "आखिर सोचलहो की? आइ सांझ खन अइत' त' की बोलबहो?"
       "सेहे ने फुराएब करै छै।‌ करेजा केरा के भालरि होइ गेल छै।" बचनू बाजल।
       "मोन स्थिर करहो बाबा। जे हेतै, देखल जेतै।" जिलेबिया बाजलि, "बोलियहो जे हमें आर इहें रहब। कहीं नञि जायब।"
       "तकर बाद की हेतै से अन्दाज‌ छौ?"
       "हं, छिकै। हमें आर डटल रहबै‌। तों स्थिर रहक। हमें सभ स' बतिआइ छिकियै।" जिलेबिया बाजलि, "जे करतै, से सब दुनिया जहान देखतै। अखबारि बला आर पढ़ैतै सब के। चैनल बला आर देखैतै।"
       "पोती! ऊ आर ओकर छोड़ि अपना आर के होतौ?" बचनू बाजल।
      "छोड़हो‌ ने बाबा। ऊ आर किछ नञि करतै, त' नञि करतै। एहन-एहन वीडियो बनबै बला बहुत रहै छै आ उहे आर भाइरल करब करै छै।" जिलेबिया बाजलि, "हमे आर ई जग्गह‌ नञि छोड़बै। बस। एतने।"
       बचनू जिलेबिया दिस तकलक। ओकरा लगलै जे जिलेबियाक आंखि स' धाह बहरा रहल‌ छै।
                        ######
पटना/ 27.03.2022

मेला उतर गया : प्रदीप बिहारी की मैथिली कहानी : हिंदी अनुवाद - अरुणाभ सौरभ

मैथिली कहानी

मेला उतर गया

प्रदीप बिहारी  
        
मेला उसर गया। मनभौका थका-माँदा घर लौटा। आँगन के द्वार पर रिक्शा खड़ा कर अन्दर आया। गोल गलेवाली अपनी गंजी के जेब से पैसे निकालकर बरामदा पर पड़ी चारपाई पर बिखेर दिया। दस....बीस....और पचास के नोट। एकाध् सौ के नोट भी थे। कुछ सिक्के भी।
          उसकी पत्नी बुचनी चारपाई की ओर आयी। चारपाई पर बिखड़े पैसे भूने हुए भुट्टे के दानों की तरह नजर आ रहे थे। वह पैसे समेटने लगी। पैसे देखकर हतोत्साह हो गयी। बोली, ‘‘मेले में आग लग गयी थी या भांग चढ़ाकर पड़े रह गए कहीं? सवारी को देखने-पकड़ने का प्रयास नहीं किया, तब तो इतने कम पैसे हुए। इतने कम पैसे देखकर मन बैठा जा रहा है। इतना खराब नहीं रहा होगा बाजार। दुर्गापूजा के मेले के लिए पूरे वर्ष नजर टिकाए रहते हैं। पर...।’’
          मनभौका भी अपनी आय से निराश था। विजयादशमी थी। मुख्य मेला और आमदनी इतनी कम? वह भी खींझकर ही घर लौटा था। रास्ते भर सोचता आ रहा था कि किस पर गुस्सा उतारे? पोते पर? नहीं। वैसे जब वह रिक्शा लेकर कमाने निकला था, तो पोते ने पीछे से टोक दिया था, ‘‘बाबा! लौटते समय मेले से बैलून लेते आना। अपनी दोनों बाहों से घेरा बनाते हुए दिखाकर कहा था, ‘‘इतना बड़ा।’’
          नहीं, पोते पर वह अपना गुस्सा नहीं उतारेगा। उसका क्या कसूर है? वह अबोध् है। उसे क्या पता कि पीछे से टोकने पर जतरा (शगुन) खराब हो जाता है।
          इस तरह विजयादशमी के दिन ही मनभौका का जतरा खराब हो गया। रिक्शे के पैडल पर पाँव और हैंडल पर दोनों हाथ रखकर मनभौका सोचने लगा कि रात भर मनोयोग से रिक्शा चलाएगा। पैसे बटोरेगा। कुछ ऐसे ग्राहक (दर्शनार्थी) भी मिल जाते हैं जो किराया के अलावे ‘पैरवी’ (टिप्स) भी देते है। इसके अलावे चाय-पान के लिए भी कुछ दे देते हैं। रात भर कमाकर कल सुबह पिछले वर्ष की तरह घर लौटेगा।
          पत्नी, बुचनी, फूस की एकल छत वाले कमरे में बिछावन कर चुकी होगी। उसे आँगन में देखते ही कहेगी, ‘‘जाओ। घर में बिछौना कर दिया है। पहले आराम कर लो। बाद में और कुछ।’’ वह हाथ-मुँह धोएगा। पैर पर पानी डालेगा। कुल्ला करेगा। उसके बाद सीधे घर में घुस जाएगा। गोल गले वाली गंजी की जेब को छुएगा। जेब भरी-भरी और उभरी सी नजर आएगी। होली में दामोदर बाबू के यहाँ बनने वाले मालपूए की तरह लगेगी उसकी जेब। जेब खाली कर पैसे सिरहाने में रखेगा और देह को बिछावन पर छोड़ देगा। नींद भी जल्दी नहीं आएगी। बुचनी कटोरी में सरसों तेल लेकर आएगी और पूरी देह मालिश कर देगी। उसके बाद...
          मनभौका सोच ही रहा था कि पोते ने टोक दिया।
          पत्नी पर गुस्सा उंड़ेलकर क्या करेगा? पत्नी उस पर बीस पड़ती है, यह बात वह कभी नहीं भूलता। पर, यह औरत दिमाग से गर्म भले ही हो, पर है होशियार। यह बात मनभौका भी मानता है। तब तो उसके परिवार को सँभाल कर रखा है बुचनी ने। उसके एकमात्र बेटे को काबिल बनाया। मनभौका को मना करने के बावजूद बेटे को बैटरी वाला रिक्शा खरीद कर दी। बुचनी ने जिद ठान लिया, ‘‘फेकना पैडिल वाला रिक्शा नहीं चलाएगा। सुकुमार है। टिक नहीं पाएगा। और जब देह-समांग ठीक नहीं रह पाएगा, तो कमाएगा क्या? क्यों कमाएगा?’’
          ‘‘मैने कैसे कमाया? मेरे माँ-बाप नहीं थे क्या? अनाथ था क्या?’’ मनभौका ने कहा था, ‘‘तुमने इसे जिस तरह सुकमार बना रखा है, मेरे माँ-बाप ने वैसा नहीं बनाया है मुझे। सुनो। मरद को सुकमार बनने से काम नहीं चलता। लड़के का मन मत बढ़ाओ। अभी जवान-जहान है। अभी मेहनत नहीं करेगा तो कब करेगा? दूसरी बात यह कि बैटरी वाले रिक्शा का दाम इस रिक्शा से बहुत ज्यादा है। उतने पैसे कहाँ से आएँगे?’’
          बुचनी अपनी जिद पर कायम थी, ‘‘सो जहाँ से आवे। पैसों की व्यवस्था तो करनी ही होगी, चाहे कर्जा की क्यों न हो। एक तो उसे ठीक से पढ़ा भी न सके।’’ कुछ रुककर बुचनी बोली, ‘‘वह नहीं कमाएगा क्या? कमाएगा और कर्जा सधाएगा। हमलोग भी मदद करेंगे।’’
          और मनमौका ने कर्ज लेकर बेटे के लिए बैटरी वाला रिक्शा खरीदा।
          बुचनी चारपाई से रुपये समेट चुकी थी। मनभौका ने उसके हाथ की ओर देखा। पैसों को निहारा। सोचा, ‘‘इतने कम पैसों से नहाएगा कितना और निचोड़ेगा कितना?
          उसे पोते की बात याद आयी। हाथ-पाँव धोकर घर में जाने के बदले चारपाई पर पड़े कुछ सिक्कों को समेटा और आँगन से बाहर निकलने लगा।
          बुचनी ने टोका, ‘‘कहाँ चले?’’
          '‘भोलुआ के लिए फुकना (बैलून) लाना भूल ही गया। चौक पर से लेकर आता हूँ।’’
          ‘‘लगता है ठीक ही भाँग खाकर नशे में चूर था।’’ बुचनी बोली, ‘‘काम धंधा नहीं था। गहिंकी (सवारी) नहीं था, तो इतनी बात भी याद नहीं रही। किस आशा से भोलुआ ने फुकना लाने को कहा था। जल्दी जाओ। अभी फेकना आएगा, तो जग जाएगा वह और फुकना नहीं देखेगा तो रोने लगेगा। अपना ही माथा पीटने लगेगा। देह नोचने लगेगा। फेकना भी रात भर का थका-माँदा आएगा। आराम करेगा कि...’’
          मनभौका आँगन से निकल गया। चौक की ओर चल दिया।
          वह चौका पर पहुँचा। दुकानें बन्द थी। थके-मांदे दुकानदार जहाँ-तहाँ सोये थे। एक-दो चायवाले जगे थे। उन्हीं से एक ने मनमौका को पुकारा, ‘‘भैया हो! आइए। चाह बनाते हैं।’’
          ‘‘नहीं रे।’’
          ‘‘दुकानदारी में नहीं कहता हूँ। भैयारी में बुलाता हूँ। आइए न। अभी साथ ही चाय पीएँगे दोनों भाई। बिजनेस अलग और संबंध अलग।’’
          मनभौका थोड़ा ठिठका। चाय पीने की इच्छा हुई। पर बोला, ‘‘नहीं रे। पोते ने फुकना लाने को कहा था, वह मैं लौटते समय भूल गया। संयोग कहो कि लड़का सोया हुआ है, नहीं तो रोने-चिल्लाने लगता। वह जब रोने-चिल्लाने लगता है तो जल्दी संभलता ही नहीं है। इसीलिए तुम्हारी भौजी ने कहा कि पहले उसके लिए फुकना लेते आओ।’’
          ‘‘पर अभी कहाँ मिलेगा? चाह पी लीजिए भैया। दिन थोड़ा और उठने दीजिए। दुकानें खुलेंगी तब तो मिलेगा। और तब भी अगर नहीं मिला तो जगाया जाएगा किसी को। पोता लाल का डिमांड तो पूरा करना ही होगा।’’
         मनभौका रुक गया। चाय पीने की ईच्छा हो गई। चायवाले की बातों में दम था। इस तरह के मेले में बैलून की दुकान कहीं स्थिर तो रहती ही नहीं। घूम-घूमकर बेचे जाते हैं बैलून। जहाँ-जहाँ बच्चों की भीड़ रहती है, वहाँ पहुँच जाते हैं बैलून बेचनेवाले। वैसे दूसरे दुकानदार भी बैलून रखते हैं, पर सामान के मेल के लिए ही। उनके पास वेरायटी नहीं रहती।
          मनभौका बेंच पर बैठ गया।
         पर उसके मन में एक प्रकार की अस्थिरता पैठ गई। मन स्थिर नहीं हो पा रहा था। जब तक बैलून नहीं खरीदेगा, मन स्थिर नहीं होगा। चायवाला चम्मच से चाय के गिलास में चीनी घोल रहा था। उससे जो आवाज निकलती थी, वह मनभौका के दिमाग में टनटना रही थी। रात भर जगने के कारण नींद भी परेशान कर रही थी। बेकार ही जगा। नींद खराब। पर उसी वक्त उसे डाक्टर साहेब याद आये।
          डाक्टर साहेब बूढ़े हो गये हैं। इतना कि खुद से चलने-फिरने में भी कठिनाई होती थी, पर अपने क्लिनिक पर बैठना उन्होंने नहीं छोड़ा। इतना ही नहीं, कहीं से बुलाहट आती, तो चल देते। बेटे या किसी स्टाफ के साथ कार या बाईक से निकल जाते। वे कहा करते थे, ‘‘ऊपरवाले ने सब के लिए मनिआर्डर भेजा है। उनका डाकिया सब के दरवाजे पर जाता है। लोग अगर अपना दरबाजा बन्द कर रखेंगे, तो क्या होगा? डाकिया लौटेगा ही।’’
          मनभौका ने डाक्टर साहेब के इस बात की गाँठ बाँध ली। इसीलिए रात भर अपने रिक्शे पर बैठा टुकुर-टुकुर देखता रहा। एकाध सवारी की कोई गिनती थोड़े ही होती है?
          चायवाले ने चाय देने के लिए उसकी देह हिलायी, तो वह साकांक्ष हुआ। चायवाले ने पूछा,‌ ‘‘कहाँ खो गये थे?’’
          ‘‘खोयेंगे कहाँ? झपकी आ गई थी?’’
          चायवाले ने पूछा, ‘‘अबकी मेला कैसा रहा?’’
          ‘‘वही सोच रहा था, तो आँख लग गई। अबकी मेले की तरह कहाँ लगा?’’ मनभौका बोला, ‘‘अब मेले में रिक्शे की दुकानदारी अच्छी तरह नहीं चलती है।’’
          ‘‘क्यों?’’
          ‘‘इतने फटफटिया (बाईक) आ गये है कि...। क्या बताऊँ? लोगों से कहता था- रिक्शा, रिक्शा। तो किसी ने जवाब भी नहीं दिया। उल्टे कुछ ने कहा-  ‘‘धुर मर्दे। इस भीड़ में रिक्शा से धुकुर-धुकुर जाएँगे, सो टहलते ही नहीं चले जाएँगे?’’
          ‘‘पर आज भीड़ भी बहुत थी।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘इतने लोग थे कि...। दूर से सब का माथा बराबर लग रहा था। एक ही तरह का। पलेन। अगर लोगों के माथे पर दरी बिछा देते, तो जरा भी ऊबड़-खाबड़ नहीं होता।’’
          '‘ठीक ही कहा तुमने।’’ मनभौका बोला, ‘‘उस पर ये फटफटिया वाले तो जहाँ-तहाँ घुस जाते थे। जाम कर देते थे। क्या कमाता? समझो कि इस मेले से अच्छा तो जेनरल दिन में कमा लेते हैं।’’
         चायवाले ने मनभौका की ओर देखा।
         मनभौका बोला, ‘‘पहले लोग रिक्शा से दूर-दूर तक जाते थे। हमलोग भी पूरे टाउन के दुर्गा जी के दर्शन कराने का ठेका ले लेते थे। कम-से कम दस-बीस पैसेंजर तो मिल ही जाते। पर अबकी सब खतम। सारे पैसेंजरों को ठेलेवाले ने समेट लिया।"
          '‘ठेलेवाले?’’
         ‘‘हाँ रे! मोटरवाला ठेला।’’ मनभौका बोला, ‘‘गाँवघर के लेाग साथ-साथ आते हैं। मोटर वाला ठेला में आसानी होती है। बस के छत की तरह बैठ जाते है। रजाई की मगजी की तरह चारों ओर पाँव लटका लेते हैं। कुछ बीच में भी बैठ जाते है। ज्यादे लोग अँट जाते है। ठेलेवाले को भी अच्छा पैसा मिला जाता है और बैठने वाले को भी एक-एक सिर पर कम पैसा आता है। समय भी कम लगता है।’’
          ‘‘यह तो अच्छी बात नहीं हुई।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘उनलोगों का बिजनेस सामान ढोना है। उन्हें आदमी को नहीं ढोना चाहिए। बिजनेस का कायदा होना चाहिए।’’
          मनभौका बोला, ‘‘बाबू। अब आदमी भी सामान ही हो गया है। बिजनेस का भी कोई कायदा रहा अब? तरह-तरह के बिजनेस करते हैं लोग। सबको पैसे कमाने हैं। कहीं से हो, जैसे भी हो, पैसा होना चाहिए। महँगी नहीं देखते हो। तुम ही बताओ। आमदनी कितनी है और जरूरत कितनी?’’
          ‘‘फिर भी। दूसरे का रोजगार नहीं मारना चाहिए।’’ चायवालों ने मनभौका को तुष्ट करना चाहा, ‘‘महँगी तो है ही। अब एक कमाई से काम चलनेवाला नहीं है। आपको तो एक सहारा भी है- फेकना। फेेकना भी कमाने लगा है, तो थोड़ा साँस लेने का समय होगा। मुझे देखिए। इसी दुकान के बल पर सब कुछ। ऊपर से बाल-बच्चों की फुटानी अलग से।’’
          ‘‘फुटानी करने में मेरा फेकना भी कम नहीं है। माई का सहयोग मिलता है, उड़ाता रहता है।’’ मनभौका बोला, ‘‘अब देखो! दो महीने पहले बहुरिया को मोबाइल खरीद दिया। हमको अच्छा नहीं लगा। पूछे कि इसकी क्या जरूरत? तुम्हारे पास तो है ही। पहले बैटरीवाला रिक्शा का लोन समाप्त कर रिक्शा को अपना बना लेते न। इस पर उसकी मैया ने हमीं को डाँट दी। खरीद लिया तो क्या हुआ? शौक हुआ तो खरीद लिया। फुर्सत में दोनों प्राणी बतियाएगा न। इससे इसको क्या होता है? खुद तो सभी शौक और सपना जलाता रहा...।’’
          ‘‘भौजी को बोले नहीं कि पैसे पर ही शौक होता है, सपना पूरा होता है और अच्छा भी लगता है। सुहाता भी है।’’
          '‘धुर बुड़बक। ऐसी औरतों को समझाने का मतलब है चालनी में पानी भरना।’’
          लाउडस्पीकर में फिल्मी धुन पर भगवती गीत आरंभ हो गया। दोनों की बातचीत में व्यवधान होने लगे।
          '‘हे देखिये। जोत दिया। अपने यहाँ एक कहावत है न- ‘भोर भेल बिख पादल कुजरनी, लेब भट्टा-मिरचाइ हे’ (सुबह-सुबह ही सब्जीवाली पादने लगी कि बैगन ले लो, मिर्ची ले लो...) वही शुरू कर दिया। अब दिन भर कान फाड़ता रहेगा। किसी बढ़िया लय-सुर में गाये तो एक बात भी...।
          ‘‘क्या करोगे? लोगों को यही अच्छा लगता है।’’
          ‘‘अच्छा क्या लगेगा? इन गीतों में सब कुछ सिनेमावाला रहता है, केवल नाम-गाँव भगवती का। गीत सुनेंगे तो ध्यान सिनेमा के सीन पर चल जाता है। भगवती पर ध्याने नहीं जाता है।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘और आजकल के सिनेमावाला गीत कैसा होता है, सो जानते ही हैं। बगैर लाज-धाक वाला गीत।’’
          '‘रे बाबू। फटफटिया पर बैठने का ढंग भी बदल गया। अब दोनों टाँगों के एक तरफ रखकर वही औरत बैठती है जो साड़ी पहने रहती है। बाकी सब दोनों टाँगोें को दोनों तरफ रखकर बैठती है। सो केवल जवान-जहान ही नहीं, हर उमेर वाली।’’
          ‘‘लाज-धक तो उठ ही गया बाबू!’’ मनभौका बोला, ‘‘अब रिक्शा को ही लो। पहले दो प्राणी रिक्शा पर बैठते थे तो धीरे-धीरे बतियाते रहते थे। ध्यान रखते थे कि रिक्शावाला सुन न ले। उसी तरह की बात करते थे। रिक्शा का ओहार लगा लेते थे और जैसे मन होता बैठते थे। पर अब देखो। रिक्शा क्या? फटफटिया पर इस तरह सट के बैठते हैं कि समझ पाना कठिन होता है कि दो बैठे हैं या एक।’’
          चायवाला बोला, ‘‘अब साड़ी पहनती ही कितनी है? कम ही न?’’
          '‘नहीं, साड़ी भी पहनती है।’’ मनभौका बोला, ‘‘छोड़ो, जिसे जो मन होता है, करता है। जिसे जो सुभीता होता है, करता है। अब कौन किसकी बात मानता है?’’
          '‘यह तो सही कह रहे हैं।’’
          मनभौका विदा होते हुए बोला, ‘‘अच्छा चलता हूँ।’’
          वह आगे बढ़ गया।

पाँच-सात दुकान के बाद बैलून बेचने वाले लड़के को देखा। वह लड़का सड़क के किनारे पड़ी एक चारपाई पर सो रहा था। बगल में गैस सिलिंडर था, जिसे उसने चारपाई के एक पाँव से बाँधकर आश्वस्त हो सो रहा था।
          मनभौका ने पहले पुकार कर जगाने की कोशिश की। पर लड़के की आँखें नहीं खुलीं। फिर उसकी देह पकड़कर हिलाया। फिर भी उसकी आँखें नहीं खुलीं। वह गहरी नीद में सोया था। पर मनभौका ने हार न मानी। उसे पकड़कर जोर-जोर से हिलाने लगा। पुकारता रहा, ‘‘उठ न रे बाबू! एक बड़ा सा फुकना दो।’’
          प्रायः लड़केे की नींद टूटी। पर उसने अपनी आँखें नहीं खोली। लेटे-लेटे बोला, ‘‘नहीं है।’’
         '‘रे। पहले उठो न। सुबह-सुबह के ग्राहक को लौटाना नहीं चाहिए। ग्राहक लक्ष्मी होता है रे बाबू।’’
          लड़का आँखें मलते हुए जगा। मनभौका की ओर देखकर इस कदर बोला मानों उसे पहचानता हो, ‘‘हो बूढ़ा! भोरे-भोर जगा दिए। बड़ा वाला फुकना गैस से फुलाकर मिलेगा।’’
          ‘‘नहीं रे बाबू। पम्प से फुलाकर दो न। पोता के लिए ले जाऊँगा। गैस वाला ले जाएँगे और अगर हाथ से छूट गया, तो गया भैंस पानी मे। उड़ ही जाएगा।’’
           लड़का हँसा, ‘‘आप भी पिछड़ले हो बूढ़ा। उड़ जाएगा तो हवाई जहाज थोड़े हो जाएगा? जमाना कहाँ से कहाँ गया। अब कोई फुकना वाला पम्प रखता है?’’
          मनभौका को लगा कि वह इस लड़के से बहुत छोटा है। उम्र में और बुद्धि में भी। उसने लड़के से कहा, ‘‘बाबू रे! मुँह से ही फुलाकर दो न।’’
          ‘‘इह! इतना बड़ा फुकना मुँह से फुलाएँगे तो गले में मरोड़ देने लगेगा।’’ लड़का बोला, ‘‘गैस वाला नहीं लेना है, तो ऐसा करिये कि फुकना ले जाइए और घर में फुलाकर पोता को दे दीजिएगा।’’
          पर यह मनभौका को मंजूर नहीं था। मेला से फुला हुआ बैलून ले जाने का ठाठ और आनन्द ही अलग होता है। वह खुद भी बैलून फुलाना नहीं चाहता था। अगर फुला नहीं सका और गले में मरोड़ आ गया तो अलग ही बात हो जाएगी। इस लड़के के समक्ष पोल खुल जाएगी। उसने एक उपाय किया। बैलून गैस से फुलाया और बड़ा सा धागा से बाँध दिया। इतना बड़ा कि अगर भूल से छूट भी जाय तो जब तक बैलून बहुत ऊपर जाय, वह धागा पकड़ सके।
          मनभौका घर की ओर चला। सोचा, भोलू जग गया होगा। उसे ढूंढ़ता होगा। बैलून को भी। नखरा कर रहा होगा। खैर बाप संभाल रहा होगा। आ गया होगा फेकना।
          वह चाय की दुकान पर रुक गया। चायवाले ने रोक लिया था उसे।
          मनभौका पूछा, ‘‘क्या बात है?’’
          चायवाला गंभीर था। उसने एक ओर ईशारा किया। मनभौका उधर देखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ है? किस बात का हल्ला-गुल्ला है?’’
          ‘‘फेकना घर लौटा?’’ चायवाले ने पूछा।
          ‘‘पता नहीं। मैं तो इधर ही हूँ। आया ही होगा।’’ मनभौका बोला, ‘‘पर क्या हुआ है? किस बात की भीड़ है?’’
          ‘‘अनर्थ हो गया।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘कल शाम में रावण को जलाकर निकलते समय भगदड़ मच गई। उसमें पैंतीस लोग मर गये। तैंतीस की लाशों की पहचान हो गई। दो लाशों की पहचान नहीं हो पायी है। सरकार से भी नहीं। उसी दोनों लाश का फोटो राम अशीष के टी.वी. पर दिखा रहा है।’’
          मनभौका आशंकित हुआ। डर गया। बोला, ‘‘चलो न। हम भी देखें। अगर पहचान गये तो...।’’
          चायवाले ने उसे मना किया, ‘‘क्या देखिएगा? जाइए। पोता जग गया होगा।’’
          एक प्रकार जबर्दस्ती ठेलकर चायवाले ने मनभौका को घर की ओर भेजा।
          मनभौका एक प्रबल वेग से घर पहुँचा। उसका मन बेचैन होेने लगा। आशंका से कलेजा उलटने लगा।
          दरवाजे पर पहुँचते ही जोर से बुचनी से पूछा, ‘‘फेकना आया?’’
          बुचनी बोली, ‘‘नहीं। नहीं आया है बौआ? क्या बात है?’’
          ‘‘भोलुआ के माई को कहो कि उसको मोबाइल लगाबे।’’
          तब तक चायवाला भी पहुँच गया। वह हाँफ रहा था। हाँफते ही पूछा, ‘‘फेकना आया?’’
          मनभौका से पहले बुचनी ने ही पूछा, ‘‘सो बात क्या है? बोलो न। क्या हुआ फेकना को? बोलो न। मेरा कलेजा उलट रहा है।’’
          मनभौका और चायवाला चुप। दोनों एक दूसरे को आशंका से देख रहे थे। चायवाले की साँसें लम्बी हो रही थीं।
          बुचनी की साँसों की गति बढ़ गयी। बोली, ‘‘आखिर बात क्या है? तुमलोग कुछ बोलते क्यों नहीं? क्या हुआ है?’’
          मनभौका की ओर देखते हुए चायवाला बोला, ‘‘पूरा-पूरा तो कोई पहचान नहीं पाया। पर, अपरिचित लाश को देखकर चौक के लोगों का कहना है कि कोई अपना ही आदमी है। मुँह थकुचा हुआ है, सो ठीक-ठीक पता ही नहीं चलता। मुझे भी लगा कि कोई अपना ही है।’’ बुचनी से कहा, ‘‘भौजी! चिन्ता मत कीजिए। स्थिर होइए।’’
          ‘‘स्थिर क्या रहें? बात नहीं बोलते हो तुमलोग और कहते हो स्थिर रहिये।’’ बुचनी बोली, ‘‘तुमको मेरी कसम। बोलो न! क्या हुआ है?’’
          मनभौका की देह डोलने लगी। चायवाला बोला, ‘‘जरूरी नहीं है कि अपना ही आदमी हो। अन्दाजा ही लगाते हैं सभी।’’
          बहू बरामदे पर आकर घूंघट की ओट से बोली, ‘‘मोबाइल रात से ही नहीं लग रहा है। पहुँच से बाहर कह रहा है। अभी भी वही कहता है।’’
          बहू के साथ पोता भी निकला था।
          चायवाले मनभौका को खींचते हुए बाहर ले जाने लगा, ‘‘चलिए। टेम्पू पकड़ लेते हैं। चौक के लोग भी गए हैं। अस्पताल में रखा है...।’’
          मनभौका के हाथ से बैलून छूट गया। बैलून उड़ गया।
          बुचनी उसी जगह बैठकर रोनी लगी।
          बहू ने सास को संभाला, ‘‘ऐसा क्यों करती हैं? जरूरी है कि वह भोलुए के पप्पा हों?’’
          लय में रोती हुई बुचनी बोली, ‘‘किसी का भी पप्पा ही होगा न गे रनियाँ। किसी का सोना जैसा बेटा ही होगा न गे रनियाँ...।
         भोलू दादी के कन्धे पर हाथ रखकर अवाक् था। मानों पूछ रहा हो- यह क्या हो गया?

                            -----

मैथिली से अनुवाद: अरुणाभ सौरभ

Thursday, September 29, 2022

मौगियाह (मैथिली कथा)- प्रदीप बिहारी


कथा

मौगियाह

प्रदीप बिहारी   

तरकारीक दोकान पर पहिने बेर देखने रहियै ओकरा। हमरे पार्श्वमे ठाढ़ भऽ तरकारी किनैत रहय। हमरासँ पहिने पहुँचल रहय, तें पहिने ओकरे भेटैत रहै तरकारी। हम प्रतीक्षारत रही।
       तरकारीक पाइ देबाक कला हमरा आकृष्ट कयलक। ओ उपरका जबीसँ पाइ बाहर कयलक। एक आइटमक भुगतान कयलक आ घुरती पाइ लेलक। पुनः बटुआसँ पाइ बहार कयलक। लुंगीक फाँड़सँ। आइटम सभक भिन्न-भिन्न ढंगसँ भुगतान कयलक।
        हमरा बूझि पड़ल जे अपना गामक हाट पर ठाढ छी।
        हम तरकारी लेब छोड़ि ओकरा निहारऽ लगलहुँ। भुगतान कयलाक बाद दोकान परसँ चलि गेल। हम ओकर चालि देखैत रहलहुँ। देखिते रहलहुँ।
        हमरा किछु भेटि गेल मने। एहने पात्र तकैत छलहुँ। मोन हल्लुक भेल।
        '‘की सब दिअऽ?’’ परिचित तरकारीबला टोकलक। साकांक्ष भेलहुँ।
        ‘‘ओकरा हिबै छलियै?’’ तरकारिएबला पुछलक।
        '‘हँ! देखलहक नहि। कोना माउगि सन गप्प करैत छलै। मुँह, आँखि, हाथ...सभ ओहिना चलैत छलै। चालि सेहो ओहिना। डाँड़ कोना लचकै छलै।’’ हम बजैत रहलहुँ।
        '‘से अपने आइ देखलियै हन। ई बड़गाड़ी मौगियाह हेबे करै।’’ बाजल तरकारीबाला, ‘‘की दू अपने के?’’
        हम तरकारी लेबऽ लगलहुँ। हमर मोन तरकारी लेबऽसँ बेसो ओकरे पर रहय।
        हम तरकारी लेलहुँ। बिदा होमऽ काल तरकारी बलासँ पुछलियै, ‘‘तोरा ओहिठाम बरोबरि अबैत छह?’’
       ‘‘हँ।’’ रहस्यमय मुस्की पसारैत बाजल तरकारीबला, ‘‘कोनो काम हय? बोला दू। एनही घुमब करै होतै बड़गाही।’’
       '‘नहि, छोड़ह।’’ हम मना कयलियै, ‘‘दोसर दिन भेंट करबै। कतऽ रहै छै?’’
        अचरज लगलैक तरकारीबलाकें, ‘‘अपने नञि जनै छिकियै?’’
        ‘‘अहंऽ।’’ 
        ‘'हमे बुझली जे अपने जनै छिकियै आ ओही जग के काम हय।’’ बाजल तरकारीबला, ‘‘इंडियन आयलमे रहै हइ। नाम हइ- मिरदंगी। काल्हि औते। अपने अइथिन, तऽ भेंट करा देबनि।’’
       हम बिदा भऽ गेलहुँ।
       मिरदंगी। ओकर नाम।
       इंडियन आयल।
       एहि शहरमे एकटा देह व्यापार केन्द्र छैक। इंडियन आयलक पेट्रोल पम्पसँ सटले कातमे। तें एहि केन्द्रकें लोक -'इंडियन आयल’ कहैत छैक। किछु गोटे 'पेट्रोल पम्प' सेहो। बेसी लोक ‘इंडियन आयल’ कहैत छैक।
       मिरदंगी माने ओही केन्द्रक टहला।
       राति भरि मिरदंगी हमरा मोनमे ढोल पीटैत रहल। ठीक एहने चरित्र छै प्रस्तावित नाटकमे। निर्देशन हमरे करबाक अछि। दोसर कलाकारकें सीखाबऽ पड़त। ई तँ प्राकृतिके अछि।
       दोसर दिन संस्थाक किछु वरिष्ठ कलाकार आ सहायक निर्देशकसँ मिरदंगीक मादे गप्प कयल। ओ लोकनि पहिने प्रतिवाद कयलनि। किछु प्रश्न ठाढ़ भेलै। ‘इडियन आयल’ मे रहै छै, तँ कोनो-ने-कोनो रोग होयतैक। अन्य कलाकार सभ सेहो प्रभावित भऽ सकैछ। आदि-आदि...।
       अंततः निस्तुकी ई भेलैक जे मिरदंगीक डाक्टरी परीक्षण कराओल जाय। जँ ठीक-ठाक रहल, तँ ओकरा आनल जाय। एकटा आर शर्त रहैक जे मिरदंगीक कोनो दोसर ठेकान कहल जाय- आन कलाकार सभकें।
       मुदा ई सभ मिरदंगी मानय तखन ने।
       मिरदंगी मानलक। मुदा हमरा पानि पिया कऽ। ठेकानक मादे फुसि बाजऽ लेल तैयारे ने रहय। बहुत रास गप्प आ तर्कक छान-पगहासँ मानलक।
       डाक्टरी परीक्षणकें अपन संस्थाक बीध कहि ओकरा लग रखने रही तं ओ गंभीर होइत बाजल रहल, ‘‘बूझि गेली। हमे आर जइ ठाँ रहै छिकियै, ओइ ठाँ के लोक के कोनो...। अपने जे बहन्ना बनबियौ। हमे बुझै छिकियै।’’
       मिरदंगी मानि गेलि। ओ नाटक करत।
       मिरदंगीक डाक्टरी परीक्षण भेलै। पूर्वाभ्यासमे आबऽ लागल।
       ओकर शर्तक अनुसार रिहर्सलक समय बदलऽ पड़ल। साँझक बदला भिनसर नओ बजेसँ।
       रिहर्सल चलऽ लगलैक। संवाद याद करबाक आ बजबाक अभ्यास चलैत रहैक।
       एकदिन, रिहर्सल समाप्त भेलाक बादो ओ बैसले रहय। आर-आर कलाकार सभ चलि गेल रहैक। जयबाकाल हम ओकरा बैसल देखलियै।
       ‘‘की मिरदंगी। आइ एखनि धरि?’’ हम पुछलियै।
       ‘‘अपने सऽ एगो काम रहै।’’ मिरदंगी बाजल।
       ‘‘की?’’
        '‘काम ई रहै जे...एगो काम रहै।’’
       मिरदंगीकें बाजऽ मे असुविधा होइत रहैक।
       ‘‘साफ-साफ बाजऽ ने। संकोच किए करै छह?’’
       ‘‘बात ई हइ जे ऊ कतेक दिन सऽ बोलब करै छलै किताब दऽ।’’
      ‘‘के ऊ?’’
       '‘उहे।’’
       ‘‘के?’’
       ‘‘आर के? हमरे जऽरे जे रहै हइ- मालती।’’
       ‘‘के मालती?’’
       ‘‘हम जहाँ रहै छिकियै, ओतै एगो छौड़ी हइ।’’ बाजल मिरदंगी, ‘‘सुन्दर हइ। सब सऽ सुन्दर! ड्राइवर, खलासी आउर के अपना भीरू बैठैयो ने दै हइ। ओकरा भिरू खाली साहेबे सन लोक आर अबै हइ।’’
       ‘‘हँ तँ की बात छै?’’
       ‘‘ओकरा पढ़ऽ के सऽख हइ। हमे जब इहाँ अयलियै, तऽ हमरा दिस खूब ताकब करै आ एक दिन...।’’
       मिरदंगीक खिस्सा हमरा रुचिगर लागऽ लागल।
       ‘‘हम तऽ पहिने ओकरा सऽ कोनो मतलब नञि रखियै। उहे हमरा पोल्हाबऽ लगलै। बरोबरि अपन हिस्सा सऽ दू-चारि गो रूपा देब करै।’’
       मिरदंगीक बजबाक शिल्प हमरा बेसो नीक लागय। हम ओकरासँ आगाँक खिस्सा पुछैत गेलहुँ। मिरदंगी बजैत रहल।
       ‘‘रूपा देबऽ सऽ मना केलकै ओकरा संगी, तऽ मालती बोललै जे कंजूसी कऽ कऽ की होतै? हमे बलू नीक लगै छिकैय मालती के। अपना संगी के कहलकै जे रूपा घटऽ लगतै तऽ हमरा लेल एगो गहिंकी आर बढ़ा लेतै। एत्ते गोरे भिरू सुतब करै हइ, तऽ एगो आर। की फरक पड़तै?’’
       हमरा कोनादन लगल। हम बुझयलियैक मिरदंगीकें। नीक लोकसँ सम्पर्क भऽ रहल छै। एहि तरहें नहि बाजक चाही।
       मिरदंगी मानि गेल। ओकरा गलतीक आभास भलैक। ओ बाजल, ‘‘मालती के किताब पढ़ऽ के आदति छइ। हमे बजार सऽ किताब लाबि दै छिकियै। आइ बोललै जे अहीं सऽ किताब लाबि देबऽ।’’ पढ़ि कऽ घुरा देत। हमहीं लाइ देब।’’
       ‘‘हमरा कोना चिन्हैत अछि ओ?’’ हम पुछलियैक।
       ‘‘अपने के बारे मे हमहीं बोललियै हन। किरिया खा कऽ बोलै छिकी जे ओकरा छोड़ि आर कोइ ने जनै हइ नाटक के बारे मे।’’ मिरदंगी बाजल, ‘‘मालती सेहो औतै नाटक देखऽ।’’
       हम चुप रहलहुँ।
       ‘‘किताब देबै ने?’’
       हमरा एकटा गपक जिज्ञासा भेल। हम कहलियै, ‘‘किताब देबौ मुदा एकटा गप कहऽ पड़तौ।’
       ‘‘की?’’
       ‘‘तोरा बड़ मानै छौ मालती?’’
       ‘‘बुझाइ हइ तहिना।’’
       ‘‘तों?’’
       ‘‘हमे ई गलती फेरो नञि करऽ चाहै छिकियै।’’ गंभीर होइत बाजल मिरदंगी, ‘‘मुदा आब एगो बात होइ हइ। पहिने मालती गहिंकी भिरू बन्द रहब करै छलै, तऽ हमरा कुच्छो नञि होइ रहय आ आब जे ऊ गहिंगी के लऽ कऽ कोठरी मे जाइ छै आ केबारी बन्द करै छै तखने हमरा मोन मे किछ कचकि जाइ हय।’’
       हम मिरदंगीक बात बुझलहुँ।
       दोसर दिन रिहर्सलमे ओकरा लेल एकटा साहित्यक पोथी नेने आयल रहियै। उपन्यास।
       ई क्रम चलैत रहलैक। प्रत्येक दू दिन पर पोथी घुरि कऽ आबि जाइक। कहाँ दन भरि दिन मालती उपन्यासे पढ़ैत रहैत छैक।
       रिहर्सल चलैत रहैक। संवाद यादि करबाक आ बजबाक अभ्यास पूरा भऽ गेल रहै।    
       कम्पोजिशन शुरू कयने रही। आंगिक अभिनय।
       एकदिन एकटा घटना घटि गेलै।
       नाटकमे एकटा दृश्य रहैक। नायिकाकें प्रेम करबाक अपराधमे ओकर माय भयंकर सजाय दऽ रहल छलैक। अभ्यास होइत रहैक।
       मिरदंगी एक कोनमे बैसल देखैत छल।
       दुनू महिला कलाकार अभ्यास कऽ रहलि छलि।
       अभ्यास होइत रहलैक।  एक...दू...तीन...           आ कि तखनहिं मिरदंगी बिजुली जकाँ अयलैक आ नायिकाक मायक भूमिका कयनिहारिकें गरदनि दबैत चिकरऽ लागलैक, ‘‘तोंए हमरा इन्दू के मारलही हन। हमे जीबय नञि देबौ...।’’
       सभ ‘हाँ-हाँ’ करैत मिरदंगीकें घीचलक। मिरदंगी हकमि रहल छल। ओ वर्तमान आबि गेल छल। माथ झुकि गेल छलैक।
       महिला कलाकारक प्राथमिक उपचार भेलैक। कने कालमे ओहो सामान्य भेलि।
       कलाकार सभ हमरे दोष देबऽ लागल। हमरे कारण ई घटना घटलै। ने हम मिरदगीकें अनितियैक आ ने एहन घटना घटितैक। एहिना स्थितिमे केओ अपन बेटीकें सस्थामे नहि आबऽ दतैक।
      बड़ी कालक बाद सभ एहि गपकें मानलक जे मिरदंगी कोनो-ने-कोनो असामान्य परिस्थितिमे एहन काज कयने होयत।
       सामान्य भेलाक बाद मिरदंगी ओहि महिला कलाकारक पयर छानि लेलक, ‘‘बहिन, हमरा से गल्ती होइ गेलऽ। माफ कऽ दहो। अनबुझमे हमरा सऽ गलती होइ गेलऽ। आब नञि होतऽ एना।’’
       मिरदंगीकें माफ कऽ देल गेलै। रिहर्सल ओहि दिन ओत्तहि समाप्त भऽ गेलैक।
       हम मिरदंगीकें अपना डेरा अनलहुँ। चाह पान भेलकै। स्थिर होइत ओहि घटनाक कारण पुछलियैक।
       ओ बाजल, ‘‘इहाँ सऽ पहिले हमे मुंगेर सरबन बजार मे रहियै। इहाँ तऽ तीन-चारि महिना पहिले अएलियै हन। उहाँ बहुत दिन रहलियै। एगो सऽ परेम होइ गेल रहै। बड़ सुन्नरि रहै। उहो हमरा बड़ मानै। हमरा लेल जान दै लेल तैयार। हमहूँ...।
       ओहिठाम के मलिकिनी सी नम्मर के बदमास रहै मौगी। हमरा दुनू के बारे मे ओकरा पता लगि गेल। बड़गाही हमरा आर के देखय नञि चाहै। कुभेला करय लगलै। ओकरा बेसी-सऽ-बेसी गंहिकी देबय लगलै। कतबो ऊ बोलै जे आब सहाज नञि होइ हय, तैयो...। सोलह-सतरह घंटा रहय पड़ै गहिंकी भिरू। कते सहाज करितै?
       हमे मना करियै ओकरा। ऊ कहब करय हमरा जे अइ जग सऽ भागि जो तऽ उगरास भेटत। मुदा, से होलै नञि।
       हमे उहाँ के छौंड़ी आर के बोललियै जे कम-सँ-कम गहिंकी भिरू जो। छौंड़ियो आर मानलकै। मलिकिनी भिरू बोलब शुरू कऽ देने रहै।
       मलकिनी डँटलकै। आर-आर छौंड़ी सभ चुप्प होइ गेलै। मुदा हमर ऊ नहि मानलकै। ओकरा हमरे बोली के निसाँ लागल रहै। मलिकिनी के हमरे पर शंका  होलै। हमरो मारलक आ ओकरो। ओकरा तऽ बोलै बलू ऐसन ठाम मे फाड़ धिपा कऽ दागि देबौ जे डागदरो जल्दी नञि देखतौ।
       करीब पनरह दिन के बाद हमे आर ठीक होलियै। ओकरा ठीक होइते जोतय लगलै। विदेशी टुरिस्ट सभ आयल रहै। सब के ओकरे भिरू पठबै। हमे एक दिन ओकरो आ मलिकिनियो के बोललियै, ‘‘ई गोरा आर बीमारी लऽ कऽ अबै छइ। मुदा मलिकिनी नञि मानलकै। ओकरा बोललियै तऽ हमरे दोष देलकै। बोलब करै, ‘‘हटा कऽ लऽ जो हमरा। तोरा सऽ बाहर हमे नञि ने छिकियौ।
       जे हमरा शंका छलै, उहे होलै। ऊ मरि गेलै। अखबार मे अपने आर पढ़ने होबै। सरबन बजार के दूगो वेश्या मरलै, जकरा बारे मे पटना के डागदर आर बोललै जे ’एड्स’ से मरलै हन। ओइ मे एगो उहो रहै।’’
       मिरदंगी कानऽ लागल। पुनः किछु कालक बाद स्थिर होइत बाजल, ‘‘हमरा गोस्सा उठि गेलै। हमे उठलौं आ मलिकाइन के गरदनि चापि देलियै। जा लोक आउर अइलै, मौगी अधमरू होइ गेलै। मरि नञि सकलै। लोक आउर बचा लेलकै। हमरा बहुत मारलक आ भगा देलक। नहियो भगाबितै तेयो हमे उहाँ नञि रहितियै।’’ किछु थम्हैत पुनः बाजल मिरदंगी, ‘‘आइ रिहल-सिहल बेरू उहे यादि आइ गेलै, तें...। आब ऐसन गलती नञि होतै।’’
       किछु काल धरि वातावरण शान्त रहल।
       मौन भंग करैत हमहीं पुछलियै, ‘‘मालतीकें बुझल छैक ई सभ?’’
       ‘‘नञि।’’ मिरदंगी बाजल, ‘‘ओकरा ई बात आर नञि छिकै बूझल।’’
       ‘‘तें ओ तोरासँ...।’’
       ‘‘से जे होइ। हमे नञि चाहै छिकियै जे ओकरा सऽ हेम-छेम बढ़बियै। मुदा ऊ कहाँ मानै छै। हमरा पर...।’’ किछु थम्हैत बाजल मिरदंगी, ‘‘असल बात ई हइ जे पढ़ल-लिखल लड़िकी हमरा निम्मन लागब करै हय। मालती पढ़ै-लिखै छै। काबिल छै। तें हमे ओकरा किताब लऽ जा कऽ दै छिकियै। ओ बूझै हय जे हमे ओकरा परेम...।’’
       ‘‘से बात तोरा कहि देबाक चाही। ओकरा अन्हारमे नहि राखक चाही।’’
       ‘‘सोचै तऽ हमहूँ छिकियै, मुदा कहि नञि पाबि रहलियै हन।’’
       हम मिरदंगीक चेहराक भाव पढ़लहुँ। हमरा लागल जेना एकटा नमहर बोझ उतरि गेल होइक ओकरा माथ परसँ।
       रिहर्सल चलैत रहलैक। प्रदर्शनक तिथिक घोषणा भऽ गेल रहैक।
       मिरदंगी रिहसलमे नहि आयल। एक दिन...दू दिन...।
       हमरा चिन्ता भेल। हम तरकारीबला लग गेलहुँ। पुछलियै। तरकारीबाला बाजल, ‘‘के? मौगियाहा? दू दिन पर आइ आयल हन। अपने अही जग रहियै। बोलि कऽ गेल हन।
       मिरदंगीकें ‘मौगियाहा’ कहैत छै, तँ हमरो बेजाय लगैत अछि आब।
       मिरदंगी आयल। हालचाल भेलै। दोसरे समस्या बाजल।
       मालती लग एकटा साहेब अबैत छैक। तीन-चारि बर्ख पहनहि ओकर पत्नी स्वर्गीय भऽ गेलै। ओ बरोबरिक ग्राहक छैक। सप्ताहमे दू दिन तँ अबस्से। एहिठामक मलिकिनीकें ओ ‘लाइसेंस’ लेबऽ कहलकैक।
       मुदा लाइसेंस तँ मात्र मोजराक लेल भेटतैक।    
       मलिकिनीकें नीक लगलैक। सोचलकि- मोजराक लाइसेंस भेटि गेने ओकर बिजनेस आओर बढ़तैक। एखनि जकाँ पुलिसक दमन एत्तेक नहि रहतैक। संभ्रान्त लोक सभकें सेहो कोनो असोकर्य नहि होयतैक।
       ड्राइवर आ खलासी सन ग्राहककें सेहो कोनो उपराग नहि रहतैक। कहयो काल तँ सिपहिया मलिकिनीयोसँ पाइ लैत छैक आ घूरऽकाल गहिंकियोसँ।
       यैह सभ विचार भेल रहैक। मिरदंगी एकर विरोध कयने रहय। मालती सेहो। ई दुनू कहलकै जे संगीत सन पवित्र बात एतऽ नहि होयतैक। जँ होयतैक तँ आन काज नहि होयतैक। मोजराक नाम नहि बिकयतैक। संगीतक अपमान नहि होयतैक। कसि कऽ विरोध कयने रहै दुनू।
       मिरदंगी किताब घुरा देलक आ बाजल, ‘‘हमे आइ मालती के सब बात बोलि देलियै।’’
       ‘‘कोन बात?’’
       ‘‘सरबन बजार बला बात।’’ बाजल मिरदंगी, ‘‘लाइसिंस बला बात के हमे आर जखन खूब विरोध केलियै, तऽ मारय-मारय कऽ दौगल हमरा आर के। मुदा मारलक नञि। किछ काल के बाद मालती बोलल जे बलू हमे ओकरा लऽ कऽ कतौ भागि जइयै। हमे सोचलौं- सरबने बजार बला कांड ने होइ जाइ, तैं हम ओकरा सब बात खुलस्ता बोलि देलियै। बोलि देलियै जे हम तोरा पियार नञि करै छिकियौ।’’
       हम चुप रही। मात्र निहारैत रही मिरदंगीकें।
       ‘‘ओकरा तऽ बुझयलै जेना कोइ अनचोके मे थप्पर मारने होइ।’’ बाजल मिरदंगी, ‘‘अहीं सोचियौ। ई संभव छै जे हम ओकरा लऽ कऽ कहीं इज्जति-परतिष्ठा सऽ रहि सकै छिकियै? दुनू तऽ ओइसने छिकियै- एकटा रंडी, दोसरा भरुआ।’’
       हमरा किछु नहि फुरायल। स्तब्ध रही। अन्तमे, दोसर दिन रिहर्सलमे अयबाक निश्चय कऽ मिरदंगी चलि गेल।
       दोसर दिन समय पर मरंदगी रिहर्सलमे आयल। मोनसँ काज कयलक। जयबाकाल हमरा एकटा कोनमे लऽ जा कऽ कहलक, ‘‘मालती अहाँ सऽ भेंट करऽ चाहै हय।’’
       ‘‘ई कोना संभव छै?’’ हम बजलहुँ।
       ‘‘सेहे तऽ हमहूँ बोललियै ओकरा, तऽ ऊ कहलक जे नाटक दिन अपने कने समय देबै ओकरा। कुछो बतिआइ के छै। ओकरा बड़ सऽख छै हमरा इस्टेज पर देखय के...नाटक देखय के...।’’
       ‘‘बेस। हेतै।’’ हम बजलहुँ, '‘लाइसेंस बला बात के की भेलौ?’’
       मिरदंगी बाजल, ‘‘बात बड़ अगाड़ी बढ़ल जाइ छै। हमे चुपचाप रहै छिकियै, मुदा सहाज नञि होइ हय। मालती के कहलकै जे नाच सीखय पड़तौ। मालती नञि मानलकै, तऽ राति खन लोहाक छड़ लऽ कऽ दुनू तरबामे मारलकै ओकरा। पयर फुलि गेलै हन। तैयो गहिंकी भिरू ठेलिये देलकै।’’
       मिरदंगी घुरि गेल। हम दोसर काजमे लागि गेलहुँ।
       रिहर्सल चलैत रहलै। मिरदंगी अबैत रहल। अभ्यास करैत रहल। जेना-जेना प्रदर्शनक तिथि लऽग आबऽ लगलैक, हमर व्यस्तता बढ़ैत गेल। मिरदंगीसँ कोनो नोक-बेजाय गप नहि भऽ सकल।
       प्रदर्शनसँ तीन दिन पहिने।
       चारि बजे साँझमे चौक पर गेलहुँ। चौक कोनो घटना विशेषक चर्चमे डूबल छल। जिज्ञासा कयलहुँ। तरकारीबला अभरल। पुछलियैक।
       तरकारीबाला बाजल, ‘‘पेट्रोल पम्प के मलिकिनी के मारि देलकै।’’
       "कोन पेट्रोल पम्प?
       "उहे, जकरा बगली मे मौगियाहा रहै हय।"
       हम प्रश्न दृष्टिएँ तकलहुँ, ‘‘केे?’’
       ‘‘आर के? मौगियाहा।’’ बाजल तरकारीबला।
       ‘‘नहि, मिरदंगी नहि मारने होयतैक।’’ हम बजलहुँ।
       ‘‘नञि मालिक।’’ तरकारीबला बाजल, ‘‘पुलिस भिरू अपने कबूल केलकै हन मौगियाहा।’’
                            .....

लेखन: बेगूसराय/ 30.10.1991 ई. 
 प्रकाशन: पूर्वाचल-3/1992



Saturday, September 24, 2022

बेल सं बबूर तर (मैथिली कथा) - प्रदीप बिहारी


कथा

बेल सं बबूर तर

प्रदीप बिहारी                


मोबाइल बजलै, तं निन्न टुटलै। आंखि बन्ने छलै। के भ' सकै छै? हलदिली पैसि गेलै मोनमे। जानि नहि ककरा की भेलै? सिरमा दिस हाथ बढ़ौलक, मोबाइल नहि ठेकनयलैक। सूतलमे कोम्हरो घुसकि गेल होयतैक। पत्नी मनाही करैत रहैत छथिन जे सिरमामे मोबाइल नहि राखू। अपने रहैत छथिन तं राखहि ने दैत छथिन। मुदा, पत्नीकें नहि रहने से ओकरा बुतें पार नहि लगैत छैक।

       मोबाइल बन्न भ' गेलै आ लगले फेर बाज' लगलैक। एहिबेर ओ कम्मल तरसं बहरायल। बौल बाड़लक। इजोतमे मोबाइल ताकलक। मोबाइल दोसर गेरुआक खोलमे घोसिआयल छलै जे सुतबाक क्रममे ओछाएने पर कोम्हरो ससरि गेल रहैक। ओ मोबाइल हाथमे लेलक। पत्नी छलखिन। सोचलक, ओ एतेक राति क' किएक फोन कयलखिन? हड़बड़ायल। जाबत कौल रिसिव करितय, मोबाइल फेर बन्न भ' गेलै। 

       वैह फोन कर' चाहलक आ कि मोबाइल बजलै। सावधान भ' रिसिव कयलक।

       "एतेक राति क'?"

        पत्नीक स्वरमे भय आ क्रोध मिझरायल छलनि। बाजलि, "डर होइए, तें फोन कयलहुं।"

       तकर बाद जाबत ओ किछु बजितय, पत्नी पुछलखिन, "फोन ने किए उठबैत रही?"

       "कथीक डर होइए? की भेल?"

       "से नहि बुझै छियै जे कथीक डर होइए, मुदा डर होइए।"

         "आहि रे बा! बुझब कथीक डर होइए तखन ने..."

        ओकर नजरि देबाल घड़ी दिस गेलै। दू बाजि रहल छलैक। जनवरीक जाड़। ओ कम्मल ओढ़ि लेलक। 

        "एत्तेकटा घरमे हम कतोक बेर असगर रहलहुं अछि, मुदा आइ डर होइए। एखनि धरि आंखि नहि मोड़ायल-ए। पिपनी नहि सटल-ए।"

        "मुदा, डर किएक होइए। घरक गेट सभ बन्ने होयत।" ओ पुछलक, "कोनो खट-खूट सुनलैए? कोनो चाल-चूल?"

        "नहि यौ। एतेक निशाभाग रातिमे...। सेहो जाड़क अन्हरिया राति। डर कोना ने हएत?" पत्नी बजलीह, "अहां के डिस्टर्ब नहि कर' चाहैत छलौं, मुदा डरे रहल नहि गेल, तं फोन कयलौं।"

        "से, डिस्टर्ब तं कइए देलहुं। मुदा बाजब जे कथीक डर होइए तखन ने..." ओ बाजल, "आ, जं डरे होइए तं हम एहि दू बजे रातिमे दू सय किलोमीटर उड़ि क' तं नहि चलि आयब। अपने हिम्मति राखू। कोनो अनट-सनट सपना देखलहुंए?"

          "नहि। आंखि मोरेबे ने कयल तं सपना की देखब?"

         "तखन? एतेक रातिमे हमरासं गप करबाक मोन भेलए? सांझखन तं गप भेले छल।"

        "दुर जाउ...हम डर सं एहि जाड़मे घामे-पसेने नहायल सन छी आ अहां के ठठ्ठा सुझैए।" पत्नी बजलीह, "ओ घटना मोन अछि?"

        "कोन?"

        "टाउनशिप मे जे अपना सभ संग घटल छल।"

        "हं। मुदा तकर आब नओ बर्ख भ' गेल। ताहि घटनाकें मोन पाड़बाक कोन प्रयोजन?"

        "प्रयोजन ई जे अहां मोन पाड़ू। रिक्शासं दुनू प्राणी घर अबैत रही। बीच टाउनशिप मे हमर बेग झपटि क' मोटरसाइकिलसं फुर्र भ' गेल। जाधरि हल्ला करी, रिक्शासं उतरि क' कात-करोटक लोककें चिचिया क' कहियै कि एकटा मोटरसाइकिल बला हितैषी बनि बाट छेकि लेलक।" पत्नी बजलीह।

         "हं, ओ मोटरसाइकिल बला ओकरे गुटक रहैक।"

         "से भोगनहि छी। एफ आइ आर पांच दिनक बाद भेल। भेटल किछु नहि।" पत्नी बजैत छलीह, "एखनो ओहि बेगक समान मोन पड़ैए, तं कोंढ़-करेज उनट' लगैए। बेटाक देल एकैस हजार टाका... हमर मोबाइल... अहांक टैब...दूटा कानक टाप्स सेहो छल। सभ चलि गेल। सेहो भरल दुपहरियामे। टेनेसं पछुऔने रहय। झपटि क' जाइ बला दृश्य आ ओकर अदंक बहुत मास धरि फिरीसान करैत रहल।"

          "से तं हमरो भेल रहय। हमहूं ओहि घटनाकें बिसरि नहि पाओल रही।" ओ बाजल, "मुदा, एखनि ओहि घटनाक चर्च किएक कर' चाहै छी? सुति रहू ने।"

         "ओ घटना तं अहांसं गप करैत काल मोन पड़ल। डर तं पहिने सं होइए।"

         "डर कथीक होइए से बाजब कि डर होयबाक घाटि फेनैत रहब। के कहलक ओत' रह' लेल? भने तं संगे जाइत रही आ अबैत रही। किएक रहि गेलहुं? रहि गेलहुं तं हिम्मत करू। अपनो जागल छी आ हमरो जगौने छी। बूझै नहि छियै जे काल्हि हमरा आफिसो जयबाक अछि।"

          "यौ, एना गोधनाइ किए छी? लगैए जेना सुतलोमे अहांक नाके पर तामस होअय ।" पत्नी बजलीह, "हम कोनो अपना लेल एत' एहि गेलहुंए?"

          "तं ककरा लेल? हमरा लेल? अपने ने कहलियै जे मोहल्लाक लोक सभसं भेंट-घांट कयला बहुत दिन भ' गेल। महिला-संसदक संध्याकालीन सत्रक सभापतित्व कयला बहुत दिन भ' गेल छल। तें ने रहि गेलहुं ।"

         "ओतबे किए कहै छी? अगिला मास जे बेटा-पुतौहु आ पोता-पोती सभ आओत, तकरो तैयारी करबाक अछि ने। ओ सभ की हमरे अछि, अहांक नहि?"

          "हमर किएक ने? मुदा से तैयारी तं बादोमे होइतै। आ तैयारिए की? कोन..."

         "चुप रहू। ताहि लेल कहियो तं एसगरे रह' पड़ितै। अहां छुट्टी ल' क' रहिते कते छी?"

         "हमरा छुट्टी भेटिते कहां अछि?"

         "तें ने कहलहुं जे...बुझल नहि अछि जे अदौरी-कुम्हरौरी पाड़बाक छल। कनियां कें बड़ पसिन छनि। पाड़ि नहि पबै छथि।"

        "पाड़ि नहि पबै छथि कि पाड़' नहि अबैत छनि?"

        "से, जे बुझियौ। नव-नौतार मे बेसी के नहिए अबै छै। ई सभ सीख' बेरमे आब अंगरेजिए पढ़' सं पलखति नहि भेटै छै, तं की करय ओ सभ? आ जं अबितो रहितनि तं महानगरक पड़बाक खोप सनक अपार्टमेन्ट मे कत' सरंजाम करती एते? कत' खोंटती? कत' सुखौती? आ कखन?"

        "हं, मोन पड़ल। कुम्हर ताक' मे सभ दशा भ' गेल छल हमर।"

        "से मोन छल आ सभटा बुझल छल तं भकुआयल सनक गप किएक करैत रही?"

        "अहूं हद करै छी। अइ हालतिमे गप करैत-करैत ककर भक लागल रहतै?"

         "तं तुरुछि क' किएक बजलहुं?"

         "तं की करितहुं? अहां अपन डरक कारण कहबे ने करै छी। अनेरे जगौने छी, तं की करी?"

        "वाह। हम डरे पानि भेल जाइ छी आ अहां..."

        "बेस। सौरी। एत्तेक काल गप कयलहुं, आब डर पड़ा गेल होयत? आंखि मोड़ि लिअ'।'

        "हमरा एखनो डर भ' रहल अछि। ई बात बुझियौ। बैंक बला पंडित जीक घरमे चोरि भेलै से बुझल अछि? आइ चारिए दिन भेलैए।'

         "हं, अहीं कहने रही ने। एके दिन लेल दरभंगा गेलाह। घर बन्न रहलनि आ हंसोथि लेलकनि। थाना-पुलिस किछु केलकै?"

        "की करतै? थाना-पुलिस नीक लोक लेल होइ छै? अखबारमे पढ़लियैए नहि?"

        "की?"

        "दरभंगा मे कहांदन थाना के बगले बला घर के बुलडोजर सं ढाहि देलकै आ घरक लोक के पेट्रोल ढारि  डाहि देलकै। से, दिना दिस्टी।"

        "हं, दू गोटे तं मरियो गेलै। भाइ आ एक बहिन।"

        "दुइएटा नहि मरलै। ओहि महिलाक पेटक बच्चा सेहो। ओहि परिवारक वर्तमान आ भविष्य के डाहि देलकै।"

        "चिन्ताक बात तं छैके, मुदा ई सभ किएक मोन पाड़ै छी? सुतबाक प्रयास करू।"

        "मोन किएक पाड़ब? मोन पड़ि जाइए। अहांके नहि कहने रही। सोचलहुं जे चिन्ता हएत। पंडित जीक घरमे‌ चोरि भेलनि तकर दोसरे दि‌न..."

        "की?"

        "फुलिया हमरा सं पुछलक।"

       "की पुछलक?

        "एत गो घर छिक'। नीचामे पांच गो कोठरी। ऊपरो मे, तकरो ऊपर। भरैतो (किरायादार) आर नइं छिक'। अकेले घर मे डर नइं लागब करै छ'।"

         क्षण भरिक चुप्पी।

         "तं अहां की कहलियै?"

         "कहलियै- डर किए होतै? अपना घर मे डर कथी के? ताहि पर पुछलक जे कोठरी बदलि-बदलि के सुतैत होबहो?"

         "की भेलै तं? फुलिया के जिज्ञासा हेतै तें पुछलक।"

         "हमरो छगुन्ता भेल जे फुलियाक मोन मे एहन बात किए उठलै। पनरह बरख सं अपना ओहिठाम‌ काज करैए। कहियो एहन प्रश्न नहि कयने छल।"

         "प्रश्न उठब उचित। मुदा हमर मोन कहैए जे फुलिया अपन परिवार सन बुझैए अपना सभकें। ओकरा मोनमे दोसर भाव किएक रहयै, जाहिसं लोक डेरायत।"

        "सैह तं। तैयो...। आ हमहीं की कम देने छियै आ एखनो दै छियै।"

        "हम सभ लाकडाउनमे ओकरा मासे-मास पाइ दैत रहलियै। एखनो मासमे चारि-पांच दिन रहै छियै आ पाइ पूरा दै छियै। एखनि एक सप्ताह सं अहां छी, सैह ने। हमरा विश्वास नहि होइए जे अपना सभक प्रति ओकरा आंखिक पानि सुखा जेतै।"

        "विश्वास तं हमरो नहि होइए। अपना घरसं एतेक समान भेटै छै, जे मोहल्लाक मौगी सभ कहैत रहैए- 'फुलिया को बहुत देते हैं आप। दाइ-नौरी को इतना दिया जाता है?' मुदा की करियै? जहिया पंडित जीक घरमे चोरि भेलनि ताहि सं एक दिन पहिने कहलक जे..."

       "की?"

       "भौजी! पछिला दा जे बिछौना देलहो, तइ पर बेटबा आ पुतहुआ घरमे सुतब करै छै। हम्मे पोतबा जौरे बरंडा पर एक दिस सुतै छिकियै। बरंडे पर दोसर दिस बुढ़बा सुतब करै छै। देह गरमेबे ने करै छै।नीचा स' सलकी मारब करै छै।"

        "ठीके कहलक । एसबेस्टस बला एकटा कोठरी आ तकर बरंडा। हेबे करतै कत्तेटा? नमहर कोठरी रहितै त' पोता माइए-बाप संग सुतितै ने? से, फुलिया के बेटा बंगलौरसं आबि गेलै।"

        "हं यौ। लौकडाउनमे एलै से घुरि क' कहां गेलैए। काजो नहिए सन करै छै। एकबाही बैसले बुझियौ। बुढ़बो रिक्शा चला क' कते कमाइत हेतै। बैटरी बला रिक्शा लग पैडिल बला रिक्शा तं मरहन्ने ने। सभ भार फुलिये पर छै। सैह कहैत रही जे ओही दिन फुलिया के छत पर ठाढ़ क' राखल दुजनिया चौकी द' देलियै।"

        "भने द' देलियै।"

        "प्रात भेने फुलिया कहलक- भौजी! तोएं जे चौकी देलहो, से बरंडा पर नइं अंटलै। ओकरा खड़ा कए देलियै। बुढ़बो के कहलियै जे ओही अ'ढ़ मे सुति रहय ले'। बीचमे पोतबा के सुताय लेलियै। से, भौजी राति खूब निन्न होल' हन।"

         "तें ने कहै छी जे फुलिया अपना सभक अनिष्ट सोचिए ने सकैए। ओकर बातकें शंका सन नहि मानू। शंकाकें मोनसं काछू।"

        "कोना काछि दिअ'। आइ सांझमे जे पुछलक से...।" 

        "की पुछलक? सांझखन हमरासं गप भेल छल तं नहि कहलहुं अहां।'

        "सोचलहुं नहि कहब। अहांकें चिन्ता होयत। मुदा राति ओछाएन पर ओकर बात मोन पड़ल तं डरे कंठ सुखा गेल। तखनसं जगले छी। डर बर्दासि नहि भेल तं अहांकें फोन कयलहुं। सोचलहुं, मोबाइले पर सही, एसगर नहि ने छी। दोसराइत तं छथि संग मे।"

        "से, फुलिया पुछलक की?"

        " काज क' क' जाइत काल बहरिया गेट लग चुपचाप पुछलक- भौजी! आइ राति कोन कोठरीमे सुतबहो? हम‌ ने उतारा द' सकलियै आ ने डांटिए सकलियै।

         चुप्पी।

         बड़ी काल धरि दुनू चुप। ओकरा बुझयलैक जे पत्नी अपन डरक कारण कहि निचैन भ' गेलीह अछि। निन्न पड़ि गेलीह अछि।

         ओ घड़ी देखलक। भोर भ' गेल रहैक। लोक कहै छै जे भोरमे नीक निन्न होइ छै, मुदा ओकरा निन्न नहि भेलै। डरे दुनू पिपनी दुनू दिस रहै।

                           ######

जीवकान्त की दो मैथिली कविताएँ : हिंदी अनुवाद- तारानन्द वियोगी

जीवकान्त की दो मैथिली कविताएं

जीवन के रास्ते                        

नहीं, ज्यादा रंग नहीं
बहुत थोड़ा-सा रंग लेना
रंग लेना जैसे बेली का फूल लेता है शाम को
रंग लेना बस जितना जरूरी हो जीवन के लिए
रंग लेते हैं जितना आम के पत्ते
नए कलश में ।

नहीं, ज्यादा गंध नहीं
गंध लेना बहुत थोड़ी-सी
बहुत थोड़ी-सी गंध जितनी नीम-चमेली के फूल लेते हैं
गंध उतनी ही ठीक जितना जरूरी हो जीवन के लिए
गंध जितनी आम के मंजर लेते हैं।

नही, बहुत शब्द नहीं
जोरदार आवाज नहीं
आवाज लेना जितनी गौरैया लेती हैं अपने प्रियतम के लिए
जरूरी हो जितनी जीवन के लिए
आवाज उतनी ही जिसमें बात करते हैं पीपल के पत्ते हवा से
थोड़ी-सी आवाज लेना
जितनी कि असंगन का जांता गेहूँ के लिए लेता है।

जीवन के रास्ते हैं बड़े सीधे
दिखावा नहीं, बिल्कुल दिखावा नहीं
बरसता-भिंगोता बादल होता है जीवन
बरसते बादल में लेकिन रंग होते हैं बहुत थोड़े
ध्वनि भी होती है उसमें
विरल गंध।
           ------

लौट-लौटकर आऊंगा फिर फिर

धुंध को पीया मैंने श्वास में
और अपने रक्त में मिला लिया
छोड़ा जो मैंने श्वास
वह जा बसा वनस्पतियों के उदर में
अड़हुल की लाल-लाल पंखुड़ियों में व्यक्त हो
खिलखिलाकर हंस पड़ा,
क्षण-क्षण बदला मैं
पाकड़ की टुस्सी में ।

दूब की मूंडी परिवर्तित होती है भेंड़ में
और मिमियाती है
बहती है कभी काली गाय के दूध में ।

देहान्त के बाद कोई खड़ा नहीं मिलता धरती पर
नारंगी के रस में
और बादलों के झुण्ड में
झहरकर बिलाती है उसके शोणित के धार।

हजार फूलों से अदला-बदली करते अंततः हुआ हूँ शब्द
मेरे हजार शब्द आए हैं जाने कितने दर्जन भाषाओं से
बीसियों-पचासों देशों से
श्रमजीवियों के श्वेद से,
मैं जो हूँ वह
अनेक शताब्दियों को थोड़ा-थोड़ा अंश हूँ
अनेक भू-भागों से तराश-तराश तिल-तिल
मैंने भरी है अपने प्राणों में सामर्थ्य ।

प्रत्येक क्षण होता है जाने कितनी भाषाओँ में विलीन
कितने-कितने वृक्षों के पत्तों में, नदियों के जल में
होता हूँ उत्सर्जित
और फिर पुनर्सृजित।
घूमता हूँ परिक्रमा में पृथ्वी के संग
एक पल के लिए भी कभी
होता नहीं बाहर उसकी चौहद्दी से।

पृथ्वी की गोद में स्थित हुआ मैं
खिलता रहूंगा कभी गेंदे के फूल में
कभी पीपल की टुस्सी में
लौट-लौटकर आऊंगा फिर फिर
दर्जन-दर्जन भाषाओं के
छोटे-छोटे शब्दों में ।
                ---
मैथिली से अनुवाद : तारानन्द वियोगी

तमसाइ छी तं हेरा जाइए (मैथिली कथा)- प्रदीप बिहारी

कथा

तमसाइ छी तं हेरा जाइए

प्रदीप बिहारी                       
         
साइड अपर बर्थ पर पड़ल छी। स्ट्रीट लाइट जरि रहल छैक आ हमर आंखि पर बल्बसं बहराइत किरिन कोण बना रहल अछि। तें निन्न नहि भ’ रहल अछि। दुनू उपरका बर्थ पर नव दम्पति अछि। ब'र-कनिया। दुनू एक-दोसराक बर्थसं पयर अंटका क' बैसल अछि।‌ कनियाक जांघ पर भोजनक प्लेट छैक आ दुनू खा रहल अछि।  भोजन समाप्त क' ब'र सुतबाक उपक्रम क' रहल अछि। मुदा, कनियाकें निन्न नहि भ' रहल छैक। ओ ब'रकें कहैत अछि, “टेनमे कोना निन्न होइत अछि अहांकें?”
             “ओहिना, जेना घरमे होइत अछि।“ ब'र जेबीसं किछु बहार क' कनियाकें दैत अछि, “ई राखू। हमरा जेबीमे मोड़ा जायत।“
        कनिया समान देखैत अछि। दू हजार आ पांच सयक एकहकटा नोट। बजैत अछि, “कार्ड सभ तं घुरा देब मुदा, ….।
        “से किएक?” ब'र कहैत अछि, “अहांकें तं देने रही टाका। दैते रहै छी, तखन ई…”
.       कनिया उपराग दैत सन बजैत अछि, “कोन धरानिए अहां हमरा टाका दैत छी, से बुझिते छी अहां। ओहि दिन जे देने रही से ओ पनसोइया हेरा गेल।“
      “से कोना?”
     “टाका दै सं पहिने जतेक ने तमसाइत छी, जे हेरा जाइत अछि।“ कनिया बजैत अछि, “जहिया-जहिया अहां तमसा क' टाका दैत छी, सभ बेर किछु ने किछु हेरा जाइए।“
      ब'र चुप अछि। कनिया कहैत छैक, “प्रेमसं तं किछु नहिए देल भेल अहां बुतें।“
.     ब'र चुप अछि। सुतबाक प्रयास करैत अछि। मुदा फेर कनिया टोकैत अछि, “अही‌ बर्थ पर आउ ने।“
      “से किएक? दुनू गोटें कोना अंटब एक्के बर्थ पर? दोसर बात ई जे लोक देखत तं की कहत?”
      “अहूं हद करै छी।‌ सूत' बेर ओहि बर्थ पर चलि जायब। एखनि एत' आबि क' बैसू ने।“
      ब'र कनियाक बर्थ पर चलि जाइत अछि। दुनू एक-दोसराक पार्श्व मे सटि क' बैसि जाइत अछि। 
      हम सोचैत छी, अबस्से ऋंगारिक गप कर' दुनू एकठाम बैसल अछि। दुनूक स्वर पहिने कने-कने सुनाइत छैक, फेर मद्धिम भ' जाइत छैक। 
     हमर कान ओम्हरे पाथल अछि।
     कनिया चाहैत छैक जे ब'र किछु-किछु बतिआय, मुदा ब'र चुप। कनिये टोकैत छै, "एत' अबिते मौनी बाबा भ' गेलियै?"
     ब'र चुप।
     "की सोचै छी? बाजू ने।‌ अहां चुप छी, त' हम बोर होइ छी।"
     "सोचै छी, की रही आ की भ' गेलहुं। गामघरक लोक सभ हमरा स' बहुत रास उमेद पोसने अछि।"
      "अनेरे ने। जे उधबा उठलै से सभ के बुझले छनि। जहिया रहय तहिया सभ के सहयोग कयनहि रहियनि।"
      "सैह कहै छी। सोचनहु ने रही जे काज बन्न भ' जायत। ठेला गुड़का क' एहन खाधि मे फेकि देत जे..."
       "सैह ने। करय केओ आ भरय केओ।"
       "एहिना होइ छै। अनचोके आगि लागि गेलै। ककरा, के आ की कहलकै? किनसाइत केओ ने देखलकै। सभ सुनते उपास पर चालू। जानि नहि, कत'-कत' नुकायल छलै बम-पेस्तौल-भाला-पजेबाक टुकड़ी आ पाथर सभ। लगलै जेना भारत-पाकिस्तानक लड़ाइ शुरू भ' गेल होइ। ठेला परक कपड़ा सभ जा-जा झांपि क' पड़ाइ, ताबते तीन-चारि टा पहुंचल आ ठेला के ठेलैत बाजल, "जान बेसी भ' गेलौए? खरच क' दियौ? भाग साला। हम त' पड़ेलहुं। ठेला कत', हम कत' आ कपड़ा सभ कत'? के जानय? तकर कनिये कालक बाद त' धधक' लगलै।"
       जहियासं ई घटना भेलैए, कनिया कतोक बेर ई बात सूनि चुकल अछि।‌ओकर बुझल छैक जे बजैत-बजैत ब'र असहज‌ भ' जाइत छैक। ओ टोकैत अछि, "ओह, कत' बहल जाइ छी? जे अहां लग नहि अछि, ओ अहांक नहि अछि। हम अहां लग छी, से सोहे ने आ कत'-कहांदन बौआइ छी।"
        ब'र साकांक्ष होइत अछि, "सौरी। अहां के कहने रही जे ओ स्थिति के मोन नहि पाड़ब। मुदा की कहू? बिसराइतो नहि अछि।  एहि स' नीक त'...।"
       "की?"
       "फेरिए बला काज नीक रहय। मोहल्ले-मोहल्ला घुमि-घुमि क' स्त्रिगणक कपड़ा सभ बेची। कुर्ता-सलवार, साड़ी, नाईटी, प्लाजो.."
       कनिया विनोद करैत अछि, "आ ताहि मे मोनो लागय। नहि यौ।"
      "मोन की लागय? साइकिल पर ओत्ते-ओत्ते समान ऊघब। बौआएब आ चिकड़ैत रहब...।"
      "तें छोड़ि क' ठेला ल' लेलियै?"
      "नहि, दोकनदारिए कम होम' लगलै। लोक सभ आनलाइने मंगाब' लगलै।‌ समान केहनो होइ, कमो दाम मे चमक-दमक भेटि जाइक।"
      "से त' भेलै।‌ आब बेसी लोक...ओना आनलाइन मे ठीके एक्के बेर मे पसिन पड़' बला समान सभ भेटि जाइ छै।"
      "चुप रहू। एकरे कारण हमरा सन-सन फेरीबला सभ मारल गेल।" ब'र बजैत अछि, "ओना मौगी सभ भुकबितो बड़ छल।"
      "माने?"
      "मोल-मोलाइ बड़ करैत छल। जत्ते दाम कहियै, तकर आधा स' शुरू करय।"
      "त' अहूं तेहने दाम कहियै ने- अढ़ाइ-तीन गुणा।"
      "नहि धरबितियै त' पार लगितै?"
      कनेकाल दुनू चुप।
      फेर कनियां पुछैत छैक, "अएं यौ! अपना सभक बियाह भेल तखन अहां‌ यैह काज करैत रही ने?"
      "हं।"
      "आ अहांक बाबू आ घटक कहलथि जे लड़का के रेडिमेडक बिजनेस छै। सखी सभ हमरा खौंझाबय, "जो ने रंग-बिरंगक, नया-नया डिजाइनक पहिरिहें। जखन अपने बिजनेस त' बाते की?"
      "त' अहां के हम तकर अभाव रह' देलहुं?"
      "से हम कहां कहै छी।" कनिया बजैत अछि, "खाली नगद नराएन दै मे हनछिन करैत रहै छी।"
      "हम संगे रहिते छी त' किए चाही...?" ब'र बजैत अछि, "लोक‌ जे कहने होअए, मुदा पहिले भेंट मे हम कहि देने रही ने जे हमर रेडिमेडक बिजनेस नहि अछि। हम फेरीबला काज करै छी।"
     "अहांक यैह ईमानदारी पहिले गप मे मोहि लेलक हमरा। बान्हि लेलक अपना संग।" कनियां बजैत अछि, "अएं यौ! एकटा बात पुछू।"
     "कहू।"
     "अहां के संगी सभ वा भाउजि सभ सिखौने नहि रहथि जे सुहागराति मे की सभ बतिएबाक चाही?"
      "से किए?"
      "अहां जे अपन व्यवसाय, आमदनी कीदन-कहांदन सभ बतिआएल रही, तें पुछलहुं। मोन अछि ने....।" बजैत कनियां कने आर सटि जाइत अछि।
      "ई सभ की बजै छी। लोक सभ सुनैत होयत।"
      "लोक की सुनत? सभ फोंफ काटि रहल अछि।" कनियां बजैत अछि, "दोसर बात जे हम सभ बतिआइतो छी कोबरे घर सन ने।"
      "बेस, छोडू ई गप। हम सोचै छी जे..."
      "आब फेर फेरिए बला काज करी।"
      "आब से चलत? आब त' आर..."
      "महानगर मे नहि, गाम मे।" ब'र बजैत अछि, "गाम मे ऑनलाइनक चलनसारि घनगर नहि भेलैए।"
       "बात त' नीक सोचै छी। मुदा, गाम मे कीननिहारि कत्ते भेटत? गाम मे आब लोके कत्ते रहै छै।"
       "जतबे छै ततबे। गामो मे रेडिमेडक दोकनदारी बांचल छै। स्त्रिगणक संग धीयापूताक कपड़ा सभ सेहो राखबै।"
       "तैयो, एक बेर सोचि लिअ'। दोकनदारी ग्राहकक अनुसार होमक चाही। बजार जेना बदलै छै, तहिना बिजनेसो बदलबाक चाही।"
      ब'रकें कनियांक बात नीक नहि लगैत छैक। तुरुछैत बजैत अछि, "से सभ बात बूझै छियै महरानी! ई सभ ओकरा लेल छै, जकरा लग अहगर स' पूंजी छै। हमरा सन के की? सभ दिन क' इनार खुनू आ पानि पीबू।" कने थम्हैत पुन: बजैत अछि, "भने कहैत रहय झलीन्दर।"
      "की?"
      "नहि जो बिहार। एत' जमल छौ दोकनदारी। ई उधबा जल्दीए थम्हि जेतै। दुनू दिसक नेतबा सभक मोन भरतै त' शान्त बन' जेतै। एकरा सभक एके क्षणक तामस सुड्डाह क' देलकै।"
       "से भाइ, तामस होइते छै तेहने। एहि एके क्षणक तामसक कारणे राजा सभक राज-पाट बोहा जाइ छै।"
        "तें कहै छिअ' भाइ। नहि जो बिहार। एतहि रह। हम सभ फेर स' जोड़ब ठेलाक पहिया।‌"
       ताहि पर हम कहलियै, "बात तं ठीके कहै छें भाइ। मुदा, देखलही नहि, बुलडोजर सं ढाहि देलकै रोडक काते कात। आब सभ टा नव हेतै। ठीकेदार नव, प्रशासन नव, पुलिस नव, हफ्ता नव। मुदा, व्यवस्था तं पुराने रहतै ने।"
      "ठीके कहलियै अहां।‌ मुदा एही व्यवस्था मे रह' पड़त ने। कोनो-ने-कोनो रूपमे सभ ठाम एक्के बात छै। एहि सं भागब ठीक नहि। अपने ठीक रहब जरूरी ।"
     "तं हम बेठीक कहिया भेलहुं? तैयो..."
      "से, त' मानै छी हम। मुदा, हमरा लागल जे अहांक जे स्थिति छल, ताहि‌ मे गाम दिस आयब जरूरी छल। जगह बदलि गेने मोन दोसर रंगक होयत। तें हम पप्पा के कहलियनि।" कनियां बजैत अछि, "चलू ने, किछ मास रहब। एम्हरो अजमा क' देखब।‌ ओना हमहूं किछ कर' चाहै छी।"
       ब'र बजैत अछि, "अरे वाह! की करब अहां?"
      "मिथिला पेंटिंग जे सिखने रही, तकरा आर मांजब। तकर बाद..."
      "बेस, बड़ भेल। आब सूति रहू।"
      "किए? अहां के ओंगही लगैए।"
      "लागत नहि त'?"
      "कने आर बैसू ने।' कनिया गप बदलैत छैक, “जखन-जखन भौजीक फोन अबैए, त' एतबे पुछैत छथि जे गुड न्यूज कहिया धरि सुनायब? आइ कहि देलियनि जे जाधरि नीक काज-रोजगार नहि हैत, ‘गुड न्यूज' नहि सुनब अहां।“
      ब'र चुप।
      "ठीक कहलियनि ने भौजी के? बेरोजगारक घर मे बच्चा? हम सभ त' दुखधनिया मे रहिते छी, पहिने नीक समय बनाबी, तखन ने गुड न्यूज।" 
     ब'र चुप।
     "अहां किछु बजै ने किए छी? हमर बात स' तामस उठैए?"  
      ब'रकें किछु मोन पड़ैत छैक, “समान सभ जे राख' देलहुं-ए, से ठीकसं राखू। कतहु…”
       “एखनि तमसा क' नहि ने देलहुंए। निश्चिन्त रहू। नहि हेरायत।
      कने काल दुनू फुसफुसाइत रहैत अछि। बूझ'मे नहि आबि रहल अछि हमरा।
      फेर ब'र अपन बर्थ पर चलि जाइत अछि। 
     कनेकालक बाद कनियाक स्वर सुनैत छी, “तखनसं सुतबा लेल हड़बड़ायल रही। आब की भेल?”
     “निन्न नहि भ' रहल अछि।“
     हम ब'र दिस तकैत छी। ओ बेर-बेर करोट फेरि रहल अछि। ओकर कछमछीक अनुभव भ' रहल अछि हमरा। 
     लगैए, जेना हमरो निन्न हेरा गेल होअय।

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