Thursday, October 6, 2022

साधो! देखह जग बौरायल (मैथिली कथा) : प्रदीप बिहारी

कथा

साधो! देखह जग बौराएल

प्रदीप बिहारी

बचनू गुम्म छल। मात्र लयमे टिनही बाटी पटकि-पटकि मांगि रहल‌ छल। ओहिदिन ओ किछु बाजि नहि रहल छल, से खखरीकें सोहाइत नहि छलैक। ओ बाजलि, "हे, मौनी बाबा किए बनल छहो? बिना मंगने के देत'?"
       मुदा, बचनू चुप। आर भिखमंगू सभ मांगि रहल छल। गंगनहौन‌ वा आने करतेबता बला श्रद्धालु सभ जहिना सिरहीसं धार दिस खंघरैत छल, भिखमंगू सभ अपन-अपन बाटी लयमे पटक' लगैत छल आ मंगैत रहैत छल- "दए दहो बाबू आर, मैयो आर, मामा (पितामही) आर, भैया आर, भौजी आर, बहिन आर...। धरम करहो, दान करहो, पुन्न करहो। दोहाइ गांग माइ के...दाता के कलियान करियौक...मनकामना पूरा करियौक...।
       किछु भिखमंगू एहुना बाजय, "दान करियौक दानी सब। भिखमंगा के जतबे देबै, सेहे फल। सेहे धरम। सेहे संग जायत। जय गंगा मैया। सब के रछिया करियौक।"
        एकटा श्रद्धालु महिला बजैत जाइत छलीह, "कतेक गन्दा छै ई सभ? नहाइ ने किए छै? एकरा सभ के पानिक कोन‌ संकट छै? जखन साक्षात् गंगे माइ छथिन, तखन...।"
        बाटे परसं श्रद्धालु सभक संग अबैत पंडा सभ बजैत रहैत अछि, "आबू जजमान। अइ बाटे आबू। ई सब अहिना काते-कात‌ भेटत। अपने गामक फल्लां बाबू सेहो हमरे जजमान छिका।"
       "से त' हेबे करत पंडा जी।‌ जखन हमर गामे अहांक जजमान अछि, तं सभ केओ हेबे करताह।"
       मुदा, बचनू चुप। बचनूक चुप रहब खखरीकें बेध' लगलै। 
       दाता सभ यथा साध्य बाटी सभमे खसबितो छलाह। जकरा बाटीमे जहिना किछु खसल, तहिना ओ द्रव्य वा खाद्य-वस्तु सभ अपन-अपन कपड़ाक धोकड़ीमे सहेजि लैत छल। बाटी खालिक-खालिए।
       खखरीकें बाटीक लयात्मक आवाज साफे नीक नहि लगैत छलैक। बाजलि, "है बुढ़बा! बोलब ने करै‌ छहो? गंगाघाटके लोक आर खुशी स' नाचब करै छै जे कुंभ लगतै। सबहक आमदनी बढ़तै। किछ सोचबहो कि...। बौकी देवी धए लेलक' हन?
       खखरीक इहो प्रयास खालिए गेलैक। बचनू नहि बाजल। खखरी सोचलकि- आर सभ बात त' ठीक, मुदा खखरीक मुंहसं अपना लेल 'बुढ़बा' शब्द नहि सुन' चाहय। एकबेर खखरी एहि शब्दसं संबोधन कयलकि तं तरंगि उठल बचनू । अबस्से कोनो विशेष बात छै। 
       खखरी अखियास' लागलि। कखन स' बचनू चुप रह' लागल छल? मोन पड़लै। काल्हि दुपहरमे बजार होइत मास मेलामे आब' बला श्रद्धालु सभक खोपड़ी देखैत मुर्दघट्टी दिस गेल। जाइ बेर स' पहिने बेस चरफर छल। जिलेबियासं बतिआयल। जानि नहि, घुरलाक बाद अनचोके स्वभाव किएक बदलि गेलैक।
       जिलेबिया जुआन भेल जाइत अछि। भरि मासमेला ओ एकरा सभक संग नहि बैसैत अछि। जेम्हर खालसा सभ बनैत छैक, ओम्हरे अपन अपन ग'र धरबैत अछि। भिखमंगू सभ बुझैत अछि जे जिलेबियाक बाप मंगनुआ, बचनूक बेटा नहि छैक, मुदा जिलेबिया बचनूक पोती छैक। तें एहि छौंड़ीकें सभ मानैत छैक। बचनू भिखमंगू सभक माइन्जने सन अछि। घाट परक भिखमंगुए सभ नहि, दोकानदार आ पंडो सभ बचनूकें गुदानैत छैक। तें जिलेबिया सभक दुलारू छैक।
       एहिठामक सभ भिखमंगू विभिन्न ठामसं लोहछल पेट आ पीठ ल' क' आयल छल। एकरा सभमे ककरो केओ नहि आ सभ सबहक। 
       जिलेबियाक माय कदमिया आ मंगनुआक बीच माया-पिरती भेलैक। नुकायल बात देखार होम' लगलैक। एकरा दुनूकें अन्दाज नहि भेलैक जे दुनूक माया-पिरतीक सुगंध घाटक भिखमंगू सबहक नाकमे पैसि जयतैक। ओकरा सभक समाजमे रंग-रंगक गप होम' लगलैक। नीक आ बेजाय, दुनू रंगक। 
       "इह, घर ने दुआरि आ मौगी डेबए लेल उताहुल।"
       "हे रे, अपना आर के की? जइ जए घ'र ओही जए ध'र। दिनो-दुनिया त' ओही जए ने?"
       "धु: बड़गाही। पेट मे ख'ढ़ ने आ सिंह मे तेल।"
       "दुनू मिलि कए कमैतै त' जरूरे आगां बढ़तै।"
       "रे बड़गाही! केतनो आगां बढ़तै, रहतै त' भिखमंगुए ने।"
       "नञि रे। रूपा भेने सब किछ बदलि जाइ छै। रूपा होतौ त' बितलाहा काल्हि गांग माइके पानि मे दहाय जेतौ। आबइ बला काल्हि बनतौ। आ रूपा नञि रहतौ त' किछ ने। आर सी सी बला सड़क पर गांड़ि रगड़ैत रह।" 
       "ताही ले' मुर्दघट्टी बला रस्ता दिस दुनू मांगब करै छै। दियौक हे दाता। दियौक हे कर्ता। दियौक हे मालिक के बेटा-भतीजा, सर-सम्बन्धी, गौंआ-घरुआ। अपने आर ले' केतना अरजि क' मालिक चलि गेला, से मोन राखियौ। राजा छियैक अपने आर। मालिक के बैकुण्ठक रस्ता क्लियर करियौक। आ से भिखमंगुए के देने होत। दोहाइ मालिक, दोहाइ गंगा माइ।"
       "से सब टा त' मुर्दघट्टी स' पहिने ने । मुर्दघट्टी लग ट'पौ ने दै छै। ओइ जए के गूहो डोमे राजा आ ठीकेदार के होइ छै।"
        पहिल बेर एकटा बजलैक, "हमरा बिचारे मंगनुआ आ कदमिया के बुझेबाक चाही। हमरा सब के भाग मे मांगनाइ टा छिकै। मौज-इलबाइस नञि छिकै।"
       "इह बड़गाही! पढुआ पढ़ब करै हय। तोरा पटितौ त' छोड़ि दितही रे? चुपें। होमए दही। बचनू दा छेबे करै।"
       सैह, बचनुएक कहला पर मंगनुआ आ कदमियाक बियाह भेलैक आ बियाहक साते मासक बाद जनमलै जिलेबिया‌। जनमिते छौंड़ी माय-बापक संग चर्चाक केन्द्रमे आबि गेलैक। गुल-गुल शुरुह भ' गेलैक। होउक ने किए? मुदा, एहू बातकें बचनुए दाबलक। ओ बाजल रहय, "जकर रहै, तकरा ज'रे छिकै। छोड़ि नञि ने देलकै। बच्चा पहिले के होइ या बाद के, एकरे दुनू के छिकै ने। की हरजा?
      बात सेरा गेलै। मुदा सेराइत-सेराइत बचनू आ खखरीक बियाहक चर्च सेहो शुरू भ' गेलै। कहांदन एकरो दुनूक मोन मिललैक आ पैसि गेल गंगा जी मे। दुनू संगहि डूब द' कछेरमे आयल आ बचनू खखरीके सिनुरा देलक। दुनू संगहि क'ल जोड़ि गंगा माइकें प्रणाम कयलक आ सिरही पर चढ़ैत पहुंचि गेल अपन-अपन जगह पर। पहिने सोझा-सोझी बैसि क' मांगैत छल। तकर बाद खखरी अपन मैल-कुचैल बैसका आ बाटी उठौलकि आ आबि क' बचनूक कातमे बैसि गेलि।
       जिलेबियाकें ताकि आयलि खखरी मुदा, छौंड़ी नहि भेटलैक। खखरी सोचलकि- छौंड़ी छोट रहै तखने स' पयर‌मे घुरघुरा छै। आ आब चेष्टगर भेल जाइ छै, त' पयर मे किनसाइत मोबिलो लागि गेल छै। 
       खखरीकें विश्वास छलै जे जिलेबियाक पुछने बुढ़बा जरूर बजतै। मुदा, छौंड़ी भेटै तखन ने। अनदिनो मेले सन रहै छै एत'।
       बचनूक चुप्पी खखरीकें घोंटने जा रहल छलैक।
       तखने खखरीकें अपन ब्रह्मास्त्रक सोह भेलैक। एकटा शब्द आर छैक जे बचनूकें पसिन नहि छैक। ई शब्द सुनितहि ओ बमकि जाइत अछि। ओना एकरो नाम "खखरी" पसिन नहि छैक बचनूकें। बियाहक किछुए दिनक बाद ओ बाजल छल, "तोहर नाम खखरी के रखलकौ?"
       "बुतरुआ के नाम के राखै छै? माइए-बाप या दादा-मामा ने।" खखरी बाजलि, "से किए?"
       "हमरा नीक नञि लागब करै हय ई नाम।"
       "हे हौ! हमें हीरोइन छिकियै जे बैजन्ती माला आ हेमामालिन नाम रहितै। कहांदन हमरा माइ-बाबू के बुतरुआ होइ आ मरि-मरि जाइ। हमें जलमलियै त' हमरा गाम के एगो बराहमन बोललखिन जे एकर नाम जेहन-तेहन राखि दही। तखन किनसाइत बांचि जाउक।‌ तखन हमर नाम पड़लै खखरी ।" कने चुप भ' क' फेर बाजलि, "नाम जैसन लोक होइयो जाइ छै। देखहो ने! हमें की छिकियै? खखरिए ने।"
       "है, चुपें। आब हमरा जौरे छिकहो से यादि राखल करहो।" बचनू बाजल, "हमें आर एक तरहे उमेर बितला पर ज'र होलियै, एकर माने ई नञि जे तोएं अपना के खखरी बुझहो। तोएं खखरी नञि, हमर पुष्ट धान छिकहो।"
       "जे बुझहो।" खखरी लजा गेलि। मुदा, एके पलमे बाजलि, "अपने सन के हमें तोरो नाम रखिय'?"
       "से तोएं किए रखबहो हमर‌ नाम? तोएं हमर माइ कि मामा?"
       "गोस्सा किए उठल'?" खखरी बाजलि, "परेम स' लोक सांइ के नाम नञि रखै छै?"
      बचनू मुस्किआइत बाजल, "बेस राखहो।"
       "हमें जैसन छिकियै, तैसने ने राखब'।"
       खखरी जखन नाम कहलकि तं पहिने मुस्किया देलक बचनू, मुदा बादमे कहलकै, "सांइ के नाम राखए के स'ख पूरा होइ गेल' ने। आब सुनहो! आब कहियो अइ नाम स' हमरा नञि बोलबिहो।"
       से सांचे। जहिया कहियो धोखो वा विनोदोमे खखरीक मुंहसं ओ नाम बहरयलैक, बचनू बमकि जाय। तें खखरी अपन ब्रह्मास्त्र ल' क' बचनू लग गेलि। बाजलि, "हे, खखरा। खखरी के सांइ खखरा। बोलबहो कि हमें चलि जइय' दोसर घाट पर। परेम स' पुछै छिअ' त' अगरायब करै छहो। हमें चललिय' दोसर घाट दिस। बूढ़ भेने अइसने अगरायब करै छै लोक। रह' बैसल। खखरा नहितन।"
       'खखरा' सुनितहिं बचनू ठीके बमकि उठल, "है, तोएं मौगी छिकहो कि मौगी के झ'र। जे मना करब' सेहे करबहो। हमें मौनी बाबा नञि बनल‌ छिकियै।"
       "त' एतना बोलैला पर मुंह किए ने खोललहो?"
       "सोचब करै रहियै।"
       "की?"
       "अपना आर के माथा पर अकास छिकै। ई अकास एतना उप्पर छिकै‌ जे अपना आर के छतो ने बनै छै। निच्चा छिकै सिमटी-रोड़ा-छड़ स' ढलाइ कयल जग्गह। अइ पर पोन छिलाइते रहै छै। माटि अपना आर लेल कहां छिकै? सेहे सोचै रहियै जे..."
       "जे की?"
       "छोड़हो। जा जइ घाट पर जाइ छ'।"
       "इह बुढ़बा! तोरा छोड़ि क' कतौ जइब' से? जाइए ले' सामने स' कात मे अइलिअ' हन।" 
       खखरीक मुंह पर मुस्की पसरि गेलै।


अर्द्ध कुंभक घोषणा भ' चुकल छलैक। समितिक संग विभिन्न राजनीतिक पार्टी सभक स्थानीय विधायक सभक सहयोग तय भ' गेल छलैक। दलगत राजनीतिसं ऊपर उठि क्षेत्रक विकास लेल कुंभ मेलाक आयोजन जरूरी बुझायल रहनि सभकें। घोषणा भेल रहैक जे कल्पवासेक समयमे‌ एकरो आयोजन होअय।
       बचनूक मोनमे जे प्रश्न उठलैक, से किछु आर गोटेक मोनमे सेहो उठल रहैक।‌ बचनू कतोक पंडासं पुछने छल जे पचासो बरखसं ओ एहिठाम अछि। कुंभ मेलाक आयोजन पहिल बेर सुनि रहल अछि। शास्त्र-पुराणमे रहितैक, तं होइत रहितैक। ताहि पर एकटा पंडा कहलकै जे ई सभ‌ गोटे अध्ययन-मनन कयलनि अछि जे बहुत पहिने एत्तहु कुंभ होइत रहैक। तात्कालीन सरकार बन्न करबा देलकै। आब समाज फेरसं कुंभ लेल माथ उठा रहल‌ छै, तं की बेजाय?
       बेजाय बातक चर्च शुरू भ' गेल छलैक। पंडा समाजमे एहि आयोजन ल' क' दू गोल भ' गेल रहैक। किछु नवयुवक एकर विरोध कयलकैक, "हे हौ! हमे बहुत तकलियै, मुदा अइ ज' कुंभ के कोनो इतिहास नञि भेटलैक। एना ज' लगाब' लगलै त' कत्ती जग्गह मे कुंभ मेला लागए लगतै?"
       "हे रे, लगतै त' तोरा की दिक्कत?"
       "हमर दिक्कत तोएं आर नञि बुझबें। तोरा आर के दिमागि लगाब' पड़तौ।"
       "बड़े काबिल छिकही त' बताबें अपन दिमागि के बात।"
       "सुनहो। अइ अर्द्ध कुंभ के सरकार मान्यता नञि देतै। कुंभ किए शुरू होलै, तइ कारण मे अपना आर के गंगाघाट नञि छिकै। तें ई समिति मासमेला के जौरे एकरा कए रहलै हन। मासमेला त' राजकीय मेला घोषित छिकै। अही जौरे करतै‌ त' प्रशासनिक काज निमहि जेतै। अइ दा पहिल बेर छिकै। एत्ते जल्दी के सब औतै‌ शाही-स्नान आ आर काजमे?"
        "सभे औतै। बड़का पंडित 'हं' बोलि देने छिकथिन। ऊ ओहिना 'हं' नहि बोलने होथिन। ओत्ती विद्वान लोक ओहिना मुंह नहि खोलब करै छै। ओकर एक-एक गो बोली के महत्व होब करै छै। कोनो बात तौलि क' बोलब करै छथिन। कहियो हुनकर दर्शन केलही हन?
       " अहं।" 
       "एकदा हुनकर दर्शन कए ले। दिमागि के खरबहा किल्ली जे छिकौ ने, से ठीक भ' जेतौ। हुनकर पहुंच बहुत ऊपर तक छिकनि। ऊ सब किछो मैनेज कए लेथिन।"
        "अइ मेला स' अपन क्षेत्र के कत्ती विकास होतै, से सोचब करही।"
        "सोचै छिकियै हमे। मासमेला के बाद गंगाघाट नरक सन होइ जाइ छै। हियां के लोक अपन जरुरति अनुसार साफ करब करै छै, बांकी सभ त' बाढ़ि‌ मे‌ गंगा माइ अपने साफ कए लै छिकथिन।"
       "साफ होइ जाइ छै ने रे?"
        "हं, से त' होइ चाइ छै। मुदा, सोचही! कुंभ मेला के बदला गंगा के सफाइ आ घाट के विकास पर खर्चा होइ त' कत्ती नीक होतै। ज' विष्णु भगवान के अमृत कलश स' बुन्न अइ ज' खसल रहितै‌ त' एकटा बातो। ई त' बजार लगायब होलै।"
        एहि वक्ताकें छोड़ि बाकी सभ, माने एके स्वर मे बाजि उठल, "रे बड़गाही। ई कमनिस्ट सन के बात बोलै हौ। एकरा बड़का पंडी जी स' भेंट कराना जरूरी छिकै।"
       तकर बाद एकाएकी बाज' लागल, "बाप रे! पंडा के बेटा कमनिस्ट होइ गेलै। हे गंगा माइ रक्षा करू। रक्षा करू मैया।"
        "हे रे सुनें, अपन दिमागि अपने जौर मे राख,  नञि त'...। अइ जए उनटल दिमागि बला के काज नञि‌ छिकै। जे होइ रहल‌ छिकै, एकदम सही छिकै। अमृत‌ के बुन्द जहां खसलै, से तोएं देखए गेल‌ रही? हमें कहब करै छियौ जे अहू ज' खसलै। तोहर‌ नजरिए ओहन‌ नञि छिकौ जे देख सकबें। घाटक पंडा आ छोट-पैघ दोकानदार आर के आमदनी बढ़तै। बुझल छौ? भोजनालय आ जलपान गृह बला आर गाम स' लोक मंगा रहल छै। ओतने नहि, गंगौटक थुम्हा बना-बना राखि रहलै हन। चुप रहें। ऐसन बात नहि बोल। जा क' बाबू जौरे सनसकिरीत सीख। अइ घाट पर उहे काज देतौ, उहे कलियाण करतौ।" तकर बाद जोरसं बाजल, "जय श्री राम । हर हर गंगे।" 
       जय श्री राम आ हर हर गंगेक स्वर आर सभ दोहरयलक, तेहरयलक। पूर्वक वक्ता जकरा ई सभ लुलुआ रहल छलैक, एकरा सभक उतारा देब' लेल उद्यत भेल कि फेर सभ डांटलकै ओकरा। एकटा बाजल, "लगै छै‌ ई कोनो गैंग के सदस्य बनि‌ गेलौ हन। एकर हियां रहब विनाशकारी होतौ। एकर बाबू के कहए पड़तौ जे एकरा सैंति क' राखय वा कत्तौ बाहर पठा दिअए।"
        दोसर बाजल, "लछमी दा, आब पता लगब' पड़त' जे एकर गैंग के आर लोक नञि ने घाट पर घुमब करै छै।"
        लक्ष्मी बाजल, "से पता लगो। भेटौ त' पहिले कहि दिहै जे गंगाघाट पर उहे रहि सकै छै जे मन-वचन-कर्म स' हियां के रहतै। जे रहब करै छै हियां आ सोचै छै कतौ आर के बारे मे, से हियां नञि रहतै। पहिने बुझा दीहै। नञि बुझतै त' उपाय छिकै ने रे!
       ओ वक्ता चुपचाप ओहिठामसं सहटि गेल।

बचनू खखरीकें डांटि तं देलकै, मुदा कहलकै‌ नहि जे किए मौन रहै? ओ जे बात कहलकै, से खखरी बूझि नहि सकलि। ओकरा जिलेबिया पर विश्वास छैक। वैह छौंड़ी बचनूसं पूछि सकैत अछि आ ओकर बात बूझि सकैत अछि। चंसगर छैक छौंड़ी।
        खखरी जिलेबिया के घाट दिस ताकि रहल छलि। ओकरा मोन पड़लै। ई सभ पहिने जे टिनही बाटी पटकए, तं कोनो लय‌ नहि बहराइक। सभ ढलाइ पर टिनही बाटी पटकए-बेसुरा। जिलेबिया सभ के लय मे पटक' सिखा देलकै। एकरा सभकें लय देलकै छौंड़ी।
       एकटा दोसर भिखमंगूसं खखरी पुछलकि, " जिलेबिया के देखलहो हन?"
       "से किए? तोरो किछ बोलल' हन‌ की?"
       "नञि, लेकिन..."
       "एगो मौगी ओकरा खिहारै रहै।"
       "किए?"
       "बोललै जे मलिकाइन, खाली गांग लहैने कुच्छो नञि‌ होत। हमरा आर के जे दान देबै, सेहे ओइ जनम भेटत। नञि देबै त' अइ जए आबि क' मांगए पड़त। अही पर ऊ मौगी अपना हाथक लोटा लए क' मार' दौगलै जिलेबिया के।"
       "तखन?"
       "तखन की? जिलेबिया लंक लेलकै। थुलथुल मौगी कत्ती दौगितै? छौंड़ी के बिखिन्न-बिखिन्न गारि पढैत घुरि अइलै।"
        खखरीक मोन कने हल्लुक भेलैक। ओ घुरल तं बचनू लग जिलेबियाकें देखलक। दुनू‌ बतिया रहल छल।
       "बुझलही नुनू। मेला समिति के एगो सदस्य हमरा बोलल हन जे मेला भरि ई जग्गह खाली कए दहो। सब भिखमंगा आर पुरना मुर्दघट्टी स' कने आगां चलि जाह। ओइ ज' तोरा आर के लेल खोपड़ी बनि रहल छह।"
       "से किए हौ बाबा?" जिलेबिया पुछलकि।
       "एत्ती गो मेला हेतै। बाहर स' बड़का-बड़का संत महात्मा औतै। भिखमंगा के‌ देखतै त' हियां के छवि खराप होइ जेतै। बोललै‌ जे जा मेला रहतै, ता पुरना मुर्दघट्टी लग के नबका खोपड़ी मे‌ तोएं आर चलि जाहो। मेला मे भीख मांगैत कोइ नजरि नञि एबहो। सब के खोराकी मिलत'।"
       खखरी बाजलि, "कहलहो नञि जे भिखमंगा आर सेहो धरम असथल के सोभा-सुन्दर होइ छिकै।"
       "हमे बहुत कहलियै, ऊ आर सुनै छै? एखनी सब एकबोलिया होइ गेलै हन। मुंह स' गिरलै, नञि मानबहो त' तेरहम बिदिया।" बचनू बाजल, "काल्हिए हमरा बोलल। आइ संझिया मे जवाब मांगलक। सेहे सोचि क' हमे गुम्म भए गेलियै।"
       जिलेबिया सुनि रहल छलि। ओकर देह तना रहल छलै।
       खखरी बाजलि, "त' भिखमंगा आर के बोलितहो ने। सलाह लितहो ने। की बोलबहो आइ?"
       खखरी डेरा गेलि। बहुत रास अधलाह स्थिति मोनमे नाच' लगलै। घाट परक एहन-एहन बहुत लीला ओ देखने अछि।
       "पहिने जे बात हमरे नीक नञि लगलै, से ओकरा आर के किए बोलितियै?" बचनू बाजल, "हमे बुझै छिकियै जे लोक के एहिना हटाएल जाइ छै। तोरा हटबै छियौ, से थोड़बे कहै छै? कोनो बहन्ना लगा क' हटौतौ। हमरा जेना पता लागल हन जे हियां कुंभ-द्वार बनौतै। तकर बाद जहां हमे आर जइबै, ऊ झग्गड़ बला जग्गह छिकै। ओन्नी के गौंआ बोलै छै जे हम्मर आ सरकार बोलै छै जे हम्मर। जकर होउ, उहो अपना आर के भगाइए देतै।"
       "तखन।" खखरी पुछलकि।
       "की?" बचनू बाजल, "राति भरि इहे सोचै रहियै जे हमरा आर के पोन त'र ने माटिए छै आ ने माथ पर अकासे।"
       एतेक कालसं चुप जिलेबिया बाजलि, "आखिर सोचलहो की? आइ सांझ खन अइत' त' की बोलबहो?"
       "सेहे ने फुराएब करै छै।‌ करेजा केरा के भालरि होइ गेल छै।" बचनू बाजल।
       "मोन स्थिर करहो बाबा। जे हेतै, देखल जेतै।" जिलेबिया बाजलि, "बोलियहो जे हमें आर इहें रहब। कहीं नञि जायब।"
       "तकर बाद की हेतै से अन्दाज‌ छौ?"
       "हं, छिकै। हमें आर डटल रहबै‌। तों स्थिर रहक। हमें सभ स' बतिआइ छिकियै।" जिलेबिया बाजलि, "जे करतै, से सब दुनिया जहान देखतै। अखबारि बला आर पढ़ैतै सब के। चैनल बला आर देखैतै।"
       "पोती! ऊ आर ओकर छोड़ि अपना आर के होतौ?" बचनू बाजल।
      "छोड़हो‌ ने बाबा। ऊ आर किछ नञि करतै, त' नञि करतै। एहन-एहन वीडियो बनबै बला बहुत रहै छै आ उहे आर भाइरल करब करै छै।" जिलेबिया बाजलि, "हमे आर ई जग्गह‌ नञि छोड़बै। बस। एतने।"
       बचनू जिलेबिया दिस तकलक। ओकरा लगलै जे जिलेबियाक आंखि स' धाह बहरा रहल‌ छै।
                        ######
पटना/ 27.03.2022

मेला उतर गया : प्रदीप बिहारी की मैथिली कहानी : हिंदी अनुवाद - अरुणाभ सौरभ

मैथिली कहानी

मेला उतर गया

प्रदीप बिहारी  
        
मेला उसर गया। मनभौका थका-माँदा घर लौटा। आँगन के द्वार पर रिक्शा खड़ा कर अन्दर आया। गोल गलेवाली अपनी गंजी के जेब से पैसे निकालकर बरामदा पर पड़ी चारपाई पर बिखेर दिया। दस....बीस....और पचास के नोट। एकाध् सौ के नोट भी थे। कुछ सिक्के भी।
          उसकी पत्नी बुचनी चारपाई की ओर आयी। चारपाई पर बिखड़े पैसे भूने हुए भुट्टे के दानों की तरह नजर आ रहे थे। वह पैसे समेटने लगी। पैसे देखकर हतोत्साह हो गयी। बोली, ‘‘मेले में आग लग गयी थी या भांग चढ़ाकर पड़े रह गए कहीं? सवारी को देखने-पकड़ने का प्रयास नहीं किया, तब तो इतने कम पैसे हुए। इतने कम पैसे देखकर मन बैठा जा रहा है। इतना खराब नहीं रहा होगा बाजार। दुर्गापूजा के मेले के लिए पूरे वर्ष नजर टिकाए रहते हैं। पर...।’’
          मनभौका भी अपनी आय से निराश था। विजयादशमी थी। मुख्य मेला और आमदनी इतनी कम? वह भी खींझकर ही घर लौटा था। रास्ते भर सोचता आ रहा था कि किस पर गुस्सा उतारे? पोते पर? नहीं। वैसे जब वह रिक्शा लेकर कमाने निकला था, तो पोते ने पीछे से टोक दिया था, ‘‘बाबा! लौटते समय मेले से बैलून लेते आना। अपनी दोनों बाहों से घेरा बनाते हुए दिखाकर कहा था, ‘‘इतना बड़ा।’’
          नहीं, पोते पर वह अपना गुस्सा नहीं उतारेगा। उसका क्या कसूर है? वह अबोध् है। उसे क्या पता कि पीछे से टोकने पर जतरा (शगुन) खराब हो जाता है।
          इस तरह विजयादशमी के दिन ही मनभौका का जतरा खराब हो गया। रिक्शे के पैडल पर पाँव और हैंडल पर दोनों हाथ रखकर मनभौका सोचने लगा कि रात भर मनोयोग से रिक्शा चलाएगा। पैसे बटोरेगा। कुछ ऐसे ग्राहक (दर्शनार्थी) भी मिल जाते हैं जो किराया के अलावे ‘पैरवी’ (टिप्स) भी देते है। इसके अलावे चाय-पान के लिए भी कुछ दे देते हैं। रात भर कमाकर कल सुबह पिछले वर्ष की तरह घर लौटेगा।
          पत्नी, बुचनी, फूस की एकल छत वाले कमरे में बिछावन कर चुकी होगी। उसे आँगन में देखते ही कहेगी, ‘‘जाओ। घर में बिछौना कर दिया है। पहले आराम कर लो। बाद में और कुछ।’’ वह हाथ-मुँह धोएगा। पैर पर पानी डालेगा। कुल्ला करेगा। उसके बाद सीधे घर में घुस जाएगा। गोल गले वाली गंजी की जेब को छुएगा। जेब भरी-भरी और उभरी सी नजर आएगी। होली में दामोदर बाबू के यहाँ बनने वाले मालपूए की तरह लगेगी उसकी जेब। जेब खाली कर पैसे सिरहाने में रखेगा और देह को बिछावन पर छोड़ देगा। नींद भी जल्दी नहीं आएगी। बुचनी कटोरी में सरसों तेल लेकर आएगी और पूरी देह मालिश कर देगी। उसके बाद...
          मनभौका सोच ही रहा था कि पोते ने टोक दिया।
          पत्नी पर गुस्सा उंड़ेलकर क्या करेगा? पत्नी उस पर बीस पड़ती है, यह बात वह कभी नहीं भूलता। पर, यह औरत दिमाग से गर्म भले ही हो, पर है होशियार। यह बात मनभौका भी मानता है। तब तो उसके परिवार को सँभाल कर रखा है बुचनी ने। उसके एकमात्र बेटे को काबिल बनाया। मनभौका को मना करने के बावजूद बेटे को बैटरी वाला रिक्शा खरीद कर दी। बुचनी ने जिद ठान लिया, ‘‘फेकना पैडिल वाला रिक्शा नहीं चलाएगा। सुकुमार है। टिक नहीं पाएगा। और जब देह-समांग ठीक नहीं रह पाएगा, तो कमाएगा क्या? क्यों कमाएगा?’’
          ‘‘मैने कैसे कमाया? मेरे माँ-बाप नहीं थे क्या? अनाथ था क्या?’’ मनभौका ने कहा था, ‘‘तुमने इसे जिस तरह सुकमार बना रखा है, मेरे माँ-बाप ने वैसा नहीं बनाया है मुझे। सुनो। मरद को सुकमार बनने से काम नहीं चलता। लड़के का मन मत बढ़ाओ। अभी जवान-जहान है। अभी मेहनत नहीं करेगा तो कब करेगा? दूसरी बात यह कि बैटरी वाले रिक्शा का दाम इस रिक्शा से बहुत ज्यादा है। उतने पैसे कहाँ से आएँगे?’’
          बुचनी अपनी जिद पर कायम थी, ‘‘सो जहाँ से आवे। पैसों की व्यवस्था तो करनी ही होगी, चाहे कर्जा की क्यों न हो। एक तो उसे ठीक से पढ़ा भी न सके।’’ कुछ रुककर बुचनी बोली, ‘‘वह नहीं कमाएगा क्या? कमाएगा और कर्जा सधाएगा। हमलोग भी मदद करेंगे।’’
          और मनमौका ने कर्ज लेकर बेटे के लिए बैटरी वाला रिक्शा खरीदा।
          बुचनी चारपाई से रुपये समेट चुकी थी। मनभौका ने उसके हाथ की ओर देखा। पैसों को निहारा। सोचा, ‘‘इतने कम पैसों से नहाएगा कितना और निचोड़ेगा कितना?
          उसे पोते की बात याद आयी। हाथ-पाँव धोकर घर में जाने के बदले चारपाई पर पड़े कुछ सिक्कों को समेटा और आँगन से बाहर निकलने लगा।
          बुचनी ने टोका, ‘‘कहाँ चले?’’
          '‘भोलुआ के लिए फुकना (बैलून) लाना भूल ही गया। चौक पर से लेकर आता हूँ।’’
          ‘‘लगता है ठीक ही भाँग खाकर नशे में चूर था।’’ बुचनी बोली, ‘‘काम धंधा नहीं था। गहिंकी (सवारी) नहीं था, तो इतनी बात भी याद नहीं रही। किस आशा से भोलुआ ने फुकना लाने को कहा था। जल्दी जाओ। अभी फेकना आएगा, तो जग जाएगा वह और फुकना नहीं देखेगा तो रोने लगेगा। अपना ही माथा पीटने लगेगा। देह नोचने लगेगा। फेकना भी रात भर का थका-माँदा आएगा। आराम करेगा कि...’’
          मनभौका आँगन से निकल गया। चौक की ओर चल दिया।
          वह चौका पर पहुँचा। दुकानें बन्द थी। थके-मांदे दुकानदार जहाँ-तहाँ सोये थे। एक-दो चायवाले जगे थे। उन्हीं से एक ने मनमौका को पुकारा, ‘‘भैया हो! आइए। चाह बनाते हैं।’’
          ‘‘नहीं रे।’’
          ‘‘दुकानदारी में नहीं कहता हूँ। भैयारी में बुलाता हूँ। आइए न। अभी साथ ही चाय पीएँगे दोनों भाई। बिजनेस अलग और संबंध अलग।’’
          मनभौका थोड़ा ठिठका। चाय पीने की इच्छा हुई। पर बोला, ‘‘नहीं रे। पोते ने फुकना लाने को कहा था, वह मैं लौटते समय भूल गया। संयोग कहो कि लड़का सोया हुआ है, नहीं तो रोने-चिल्लाने लगता। वह जब रोने-चिल्लाने लगता है तो जल्दी संभलता ही नहीं है। इसीलिए तुम्हारी भौजी ने कहा कि पहले उसके लिए फुकना लेते आओ।’’
          ‘‘पर अभी कहाँ मिलेगा? चाह पी लीजिए भैया। दिन थोड़ा और उठने दीजिए। दुकानें खुलेंगी तब तो मिलेगा। और तब भी अगर नहीं मिला तो जगाया जाएगा किसी को। पोता लाल का डिमांड तो पूरा करना ही होगा।’’
         मनभौका रुक गया। चाय पीने की ईच्छा हो गई। चायवाले की बातों में दम था। इस तरह के मेले में बैलून की दुकान कहीं स्थिर तो रहती ही नहीं। घूम-घूमकर बेचे जाते हैं बैलून। जहाँ-जहाँ बच्चों की भीड़ रहती है, वहाँ पहुँच जाते हैं बैलून बेचनेवाले। वैसे दूसरे दुकानदार भी बैलून रखते हैं, पर सामान के मेल के लिए ही। उनके पास वेरायटी नहीं रहती।
          मनभौका बेंच पर बैठ गया।
         पर उसके मन में एक प्रकार की अस्थिरता पैठ गई। मन स्थिर नहीं हो पा रहा था। जब तक बैलून नहीं खरीदेगा, मन स्थिर नहीं होगा। चायवाला चम्मच से चाय के गिलास में चीनी घोल रहा था। उससे जो आवाज निकलती थी, वह मनभौका के दिमाग में टनटना रही थी। रात भर जगने के कारण नींद भी परेशान कर रही थी। बेकार ही जगा। नींद खराब। पर उसी वक्त उसे डाक्टर साहेब याद आये।
          डाक्टर साहेब बूढ़े हो गये हैं। इतना कि खुद से चलने-फिरने में भी कठिनाई होती थी, पर अपने क्लिनिक पर बैठना उन्होंने नहीं छोड़ा। इतना ही नहीं, कहीं से बुलाहट आती, तो चल देते। बेटे या किसी स्टाफ के साथ कार या बाईक से निकल जाते। वे कहा करते थे, ‘‘ऊपरवाले ने सब के लिए मनिआर्डर भेजा है। उनका डाकिया सब के दरवाजे पर जाता है। लोग अगर अपना दरबाजा बन्द कर रखेंगे, तो क्या होगा? डाकिया लौटेगा ही।’’
          मनभौका ने डाक्टर साहेब के इस बात की गाँठ बाँध ली। इसीलिए रात भर अपने रिक्शे पर बैठा टुकुर-टुकुर देखता रहा। एकाध सवारी की कोई गिनती थोड़े ही होती है?
          चायवाले ने चाय देने के लिए उसकी देह हिलायी, तो वह साकांक्ष हुआ। चायवाले ने पूछा,‌ ‘‘कहाँ खो गये थे?’’
          ‘‘खोयेंगे कहाँ? झपकी आ गई थी?’’
          चायवाले ने पूछा, ‘‘अबकी मेला कैसा रहा?’’
          ‘‘वही सोच रहा था, तो आँख लग गई। अबकी मेले की तरह कहाँ लगा?’’ मनभौका बोला, ‘‘अब मेले में रिक्शे की दुकानदारी अच्छी तरह नहीं चलती है।’’
          ‘‘क्यों?’’
          ‘‘इतने फटफटिया (बाईक) आ गये है कि...। क्या बताऊँ? लोगों से कहता था- रिक्शा, रिक्शा। तो किसी ने जवाब भी नहीं दिया। उल्टे कुछ ने कहा-  ‘‘धुर मर्दे। इस भीड़ में रिक्शा से धुकुर-धुकुर जाएँगे, सो टहलते ही नहीं चले जाएँगे?’’
          ‘‘पर आज भीड़ भी बहुत थी।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘इतने लोग थे कि...। दूर से सब का माथा बराबर लग रहा था। एक ही तरह का। पलेन। अगर लोगों के माथे पर दरी बिछा देते, तो जरा भी ऊबड़-खाबड़ नहीं होता।’’
          '‘ठीक ही कहा तुमने।’’ मनभौका बोला, ‘‘उस पर ये फटफटिया वाले तो जहाँ-तहाँ घुस जाते थे। जाम कर देते थे। क्या कमाता? समझो कि इस मेले से अच्छा तो जेनरल दिन में कमा लेते हैं।’’
         चायवाले ने मनभौका की ओर देखा।
         मनभौका बोला, ‘‘पहले लोग रिक्शा से दूर-दूर तक जाते थे। हमलोग भी पूरे टाउन के दुर्गा जी के दर्शन कराने का ठेका ले लेते थे। कम-से कम दस-बीस पैसेंजर तो मिल ही जाते। पर अबकी सब खतम। सारे पैसेंजरों को ठेलेवाले ने समेट लिया।"
          '‘ठेलेवाले?’’
         ‘‘हाँ रे! मोटरवाला ठेला।’’ मनभौका बोला, ‘‘गाँवघर के लेाग साथ-साथ आते हैं। मोटर वाला ठेला में आसानी होती है। बस के छत की तरह बैठ जाते है। रजाई की मगजी की तरह चारों ओर पाँव लटका लेते हैं। कुछ बीच में भी बैठ जाते है। ज्यादे लोग अँट जाते है। ठेलेवाले को भी अच्छा पैसा मिला जाता है और बैठने वाले को भी एक-एक सिर पर कम पैसा आता है। समय भी कम लगता है।’’
          ‘‘यह तो अच्छी बात नहीं हुई।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘उनलोगों का बिजनेस सामान ढोना है। उन्हें आदमी को नहीं ढोना चाहिए। बिजनेस का कायदा होना चाहिए।’’
          मनभौका बोला, ‘‘बाबू। अब आदमी भी सामान ही हो गया है। बिजनेस का भी कोई कायदा रहा अब? तरह-तरह के बिजनेस करते हैं लोग। सबको पैसे कमाने हैं। कहीं से हो, जैसे भी हो, पैसा होना चाहिए। महँगी नहीं देखते हो। तुम ही बताओ। आमदनी कितनी है और जरूरत कितनी?’’
          ‘‘फिर भी। दूसरे का रोजगार नहीं मारना चाहिए।’’ चायवालों ने मनभौका को तुष्ट करना चाहा, ‘‘महँगी तो है ही। अब एक कमाई से काम चलनेवाला नहीं है। आपको तो एक सहारा भी है- फेकना। फेेकना भी कमाने लगा है, तो थोड़ा साँस लेने का समय होगा। मुझे देखिए। इसी दुकान के बल पर सब कुछ। ऊपर से बाल-बच्चों की फुटानी अलग से।’’
          ‘‘फुटानी करने में मेरा फेकना भी कम नहीं है। माई का सहयोग मिलता है, उड़ाता रहता है।’’ मनभौका बोला, ‘‘अब देखो! दो महीने पहले बहुरिया को मोबाइल खरीद दिया। हमको अच्छा नहीं लगा। पूछे कि इसकी क्या जरूरत? तुम्हारे पास तो है ही। पहले बैटरीवाला रिक्शा का लोन समाप्त कर रिक्शा को अपना बना लेते न। इस पर उसकी मैया ने हमीं को डाँट दी। खरीद लिया तो क्या हुआ? शौक हुआ तो खरीद लिया। फुर्सत में दोनों प्राणी बतियाएगा न। इससे इसको क्या होता है? खुद तो सभी शौक और सपना जलाता रहा...।’’
          ‘‘भौजी को बोले नहीं कि पैसे पर ही शौक होता है, सपना पूरा होता है और अच्छा भी लगता है। सुहाता भी है।’’
          '‘धुर बुड़बक। ऐसी औरतों को समझाने का मतलब है चालनी में पानी भरना।’’
          लाउडस्पीकर में फिल्मी धुन पर भगवती गीत आरंभ हो गया। दोनों की बातचीत में व्यवधान होने लगे।
          '‘हे देखिये। जोत दिया। अपने यहाँ एक कहावत है न- ‘भोर भेल बिख पादल कुजरनी, लेब भट्टा-मिरचाइ हे’ (सुबह-सुबह ही सब्जीवाली पादने लगी कि बैगन ले लो, मिर्ची ले लो...) वही शुरू कर दिया। अब दिन भर कान फाड़ता रहेगा। किसी बढ़िया लय-सुर में गाये तो एक बात भी...।
          ‘‘क्या करोगे? लोगों को यही अच्छा लगता है।’’
          ‘‘अच्छा क्या लगेगा? इन गीतों में सब कुछ सिनेमावाला रहता है, केवल नाम-गाँव भगवती का। गीत सुनेंगे तो ध्यान सिनेमा के सीन पर चल जाता है। भगवती पर ध्याने नहीं जाता है।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘और आजकल के सिनेमावाला गीत कैसा होता है, सो जानते ही हैं। बगैर लाज-धाक वाला गीत।’’
          '‘रे बाबू। फटफटिया पर बैठने का ढंग भी बदल गया। अब दोनों टाँगों के एक तरफ रखकर वही औरत बैठती है जो साड़ी पहने रहती है। बाकी सब दोनों टाँगोें को दोनों तरफ रखकर बैठती है। सो केवल जवान-जहान ही नहीं, हर उमेर वाली।’’
          ‘‘लाज-धक तो उठ ही गया बाबू!’’ मनभौका बोला, ‘‘अब रिक्शा को ही लो। पहले दो प्राणी रिक्शा पर बैठते थे तो धीरे-धीरे बतियाते रहते थे। ध्यान रखते थे कि रिक्शावाला सुन न ले। उसी तरह की बात करते थे। रिक्शा का ओहार लगा लेते थे और जैसे मन होता बैठते थे। पर अब देखो। रिक्शा क्या? फटफटिया पर इस तरह सट के बैठते हैं कि समझ पाना कठिन होता है कि दो बैठे हैं या एक।’’
          चायवाला बोला, ‘‘अब साड़ी पहनती ही कितनी है? कम ही न?’’
          '‘नहीं, साड़ी भी पहनती है।’’ मनभौका बोला, ‘‘छोड़ो, जिसे जो मन होता है, करता है। जिसे जो सुभीता होता है, करता है। अब कौन किसकी बात मानता है?’’
          '‘यह तो सही कह रहे हैं।’’
          मनभौका विदा होते हुए बोला, ‘‘अच्छा चलता हूँ।’’
          वह आगे बढ़ गया।

पाँच-सात दुकान के बाद बैलून बेचने वाले लड़के को देखा। वह लड़का सड़क के किनारे पड़ी एक चारपाई पर सो रहा था। बगल में गैस सिलिंडर था, जिसे उसने चारपाई के एक पाँव से बाँधकर आश्वस्त हो सो रहा था।
          मनभौका ने पहले पुकार कर जगाने की कोशिश की। पर लड़के की आँखें नहीं खुलीं। फिर उसकी देह पकड़कर हिलाया। फिर भी उसकी आँखें नहीं खुलीं। वह गहरी नीद में सोया था। पर मनभौका ने हार न मानी। उसे पकड़कर जोर-जोर से हिलाने लगा। पुकारता रहा, ‘‘उठ न रे बाबू! एक बड़ा सा फुकना दो।’’
          प्रायः लड़केे की नींद टूटी। पर उसने अपनी आँखें नहीं खोली। लेटे-लेटे बोला, ‘‘नहीं है।’’
         '‘रे। पहले उठो न। सुबह-सुबह के ग्राहक को लौटाना नहीं चाहिए। ग्राहक लक्ष्मी होता है रे बाबू।’’
          लड़का आँखें मलते हुए जगा। मनभौका की ओर देखकर इस कदर बोला मानों उसे पहचानता हो, ‘‘हो बूढ़ा! भोरे-भोर जगा दिए। बड़ा वाला फुकना गैस से फुलाकर मिलेगा।’’
          ‘‘नहीं रे बाबू। पम्प से फुलाकर दो न। पोता के लिए ले जाऊँगा। गैस वाला ले जाएँगे और अगर हाथ से छूट गया, तो गया भैंस पानी मे। उड़ ही जाएगा।’’
           लड़का हँसा, ‘‘आप भी पिछड़ले हो बूढ़ा। उड़ जाएगा तो हवाई जहाज थोड़े हो जाएगा? जमाना कहाँ से कहाँ गया। अब कोई फुकना वाला पम्प रखता है?’’
          मनभौका को लगा कि वह इस लड़के से बहुत छोटा है। उम्र में और बुद्धि में भी। उसने लड़के से कहा, ‘‘बाबू रे! मुँह से ही फुलाकर दो न।’’
          ‘‘इह! इतना बड़ा फुकना मुँह से फुलाएँगे तो गले में मरोड़ देने लगेगा।’’ लड़का बोला, ‘‘गैस वाला नहीं लेना है, तो ऐसा करिये कि फुकना ले जाइए और घर में फुलाकर पोता को दे दीजिएगा।’’
          पर यह मनभौका को मंजूर नहीं था। मेला से फुला हुआ बैलून ले जाने का ठाठ और आनन्द ही अलग होता है। वह खुद भी बैलून फुलाना नहीं चाहता था। अगर फुला नहीं सका और गले में मरोड़ आ गया तो अलग ही बात हो जाएगी। इस लड़के के समक्ष पोल खुल जाएगी। उसने एक उपाय किया। बैलून गैस से फुलाया और बड़ा सा धागा से बाँध दिया। इतना बड़ा कि अगर भूल से छूट भी जाय तो जब तक बैलून बहुत ऊपर जाय, वह धागा पकड़ सके।
          मनभौका घर की ओर चला। सोचा, भोलू जग गया होगा। उसे ढूंढ़ता होगा। बैलून को भी। नखरा कर रहा होगा। खैर बाप संभाल रहा होगा। आ गया होगा फेकना।
          वह चाय की दुकान पर रुक गया। चायवाले ने रोक लिया था उसे।
          मनभौका पूछा, ‘‘क्या बात है?’’
          चायवाला गंभीर था। उसने एक ओर ईशारा किया। मनभौका उधर देखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ है? किस बात का हल्ला-गुल्ला है?’’
          ‘‘फेकना घर लौटा?’’ चायवाले ने पूछा।
          ‘‘पता नहीं। मैं तो इधर ही हूँ। आया ही होगा।’’ मनभौका बोला, ‘‘पर क्या हुआ है? किस बात की भीड़ है?’’
          ‘‘अनर्थ हो गया।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘कल शाम में रावण को जलाकर निकलते समय भगदड़ मच गई। उसमें पैंतीस लोग मर गये। तैंतीस की लाशों की पहचान हो गई। दो लाशों की पहचान नहीं हो पायी है। सरकार से भी नहीं। उसी दोनों लाश का फोटो राम अशीष के टी.वी. पर दिखा रहा है।’’
          मनभौका आशंकित हुआ। डर गया। बोला, ‘‘चलो न। हम भी देखें। अगर पहचान गये तो...।’’
          चायवाले ने उसे मना किया, ‘‘क्या देखिएगा? जाइए। पोता जग गया होगा।’’
          एक प्रकार जबर्दस्ती ठेलकर चायवाले ने मनभौका को घर की ओर भेजा।
          मनभौका एक प्रबल वेग से घर पहुँचा। उसका मन बेचैन होेने लगा। आशंका से कलेजा उलटने लगा।
          दरवाजे पर पहुँचते ही जोर से बुचनी से पूछा, ‘‘फेकना आया?’’
          बुचनी बोली, ‘‘नहीं। नहीं आया है बौआ? क्या बात है?’’
          ‘‘भोलुआ के माई को कहो कि उसको मोबाइल लगाबे।’’
          तब तक चायवाला भी पहुँच गया। वह हाँफ रहा था। हाँफते ही पूछा, ‘‘फेकना आया?’’
          मनभौका से पहले बुचनी ने ही पूछा, ‘‘सो बात क्या है? बोलो न। क्या हुआ फेकना को? बोलो न। मेरा कलेजा उलट रहा है।’’
          मनभौका और चायवाला चुप। दोनों एक दूसरे को आशंका से देख रहे थे। चायवाले की साँसें लम्बी हो रही थीं।
          बुचनी की साँसों की गति बढ़ गयी। बोली, ‘‘आखिर बात क्या है? तुमलोग कुछ बोलते क्यों नहीं? क्या हुआ है?’’
          मनभौका की ओर देखते हुए चायवाला बोला, ‘‘पूरा-पूरा तो कोई पहचान नहीं पाया। पर, अपरिचित लाश को देखकर चौक के लोगों का कहना है कि कोई अपना ही आदमी है। मुँह थकुचा हुआ है, सो ठीक-ठीक पता ही नहीं चलता। मुझे भी लगा कि कोई अपना ही है।’’ बुचनी से कहा, ‘‘भौजी! चिन्ता मत कीजिए। स्थिर होइए।’’
          ‘‘स्थिर क्या रहें? बात नहीं बोलते हो तुमलोग और कहते हो स्थिर रहिये।’’ बुचनी बोली, ‘‘तुमको मेरी कसम। बोलो न! क्या हुआ है?’’
          मनभौका की देह डोलने लगी। चायवाला बोला, ‘‘जरूरी नहीं है कि अपना ही आदमी हो। अन्दाजा ही लगाते हैं सभी।’’
          बहू बरामदे पर आकर घूंघट की ओट से बोली, ‘‘मोबाइल रात से ही नहीं लग रहा है। पहुँच से बाहर कह रहा है। अभी भी वही कहता है।’’
          बहू के साथ पोता भी निकला था।
          चायवाले मनभौका को खींचते हुए बाहर ले जाने लगा, ‘‘चलिए। टेम्पू पकड़ लेते हैं। चौक के लोग भी गए हैं। अस्पताल में रखा है...।’’
          मनभौका के हाथ से बैलून छूट गया। बैलून उड़ गया।
          बुचनी उसी जगह बैठकर रोनी लगी।
          बहू ने सास को संभाला, ‘‘ऐसा क्यों करती हैं? जरूरी है कि वह भोलुए के पप्पा हों?’’
          लय में रोती हुई बुचनी बोली, ‘‘किसी का भी पप्पा ही होगा न गे रनियाँ। किसी का सोना जैसा बेटा ही होगा न गे रनियाँ...।
         भोलू दादी के कन्धे पर हाथ रखकर अवाक् था। मानों पूछ रहा हो- यह क्या हो गया?

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मैथिली से अनुवाद: अरुणाभ सौरभ