Friday, October 13, 2023

मैथिली नाट्याकाशमे पसरल भफाइत चाहक जिनगी


आलेख

मैथिली नाट्याकाशमे पसरल भफाइत चाहक जिनगी

प्रदीप बिहारी

      (नाटककार : सुधांशु शेखर चौधरी)

सुधांशु शेखर चौधरी मैथिलीक बहुविधावादी रचनाकार रहलाह अछि। मैथिली साहित्यक प्रायः सभ विधा हिनक लेखनीसँ परिपूरित भेल अछि। सभ विधाक सांगह कयलनि अछि।
मैथिलीक सुप्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका ‘मिथिला मिहिर’क बाइस बर्ख (1960 सँ 1982) धरि सम्पादन कयलनि। मिथिला मिहिरक हिनक सम्पादन-काल कतोक दृष्टिएँ उत्कृष्ट रहल अछि। पत्रिकाक स्तरकें अक्षुण्ण रखबाक संगहि मैथिली साहित्यक नवीनतम पीढ़ीक कतोक प्रतिभाशाली साहित्यकारकें प्रकाशमे अनलनि।

मिथिला मिहिरक स्तरीयताकें अक्षुण्ण रखबाक हेतु वा ओकर स्तरीयताकें आर उत्कृष्ट बनयबाक हेतु हिनका जाहि-जाहि विधाक प्रयोजन बुझयलनि, ताहि विधा सभमे स्वयं मूल आ कतोक छद्म नामसँ लिखलनि आ आन-आन रचनाकार सभसँ सेहो सृजन करौलनि।

उपन्यास, कथा, कविता, नाटक, एकांकी, रेडियो रूपक, निबन्ध, समालोचना आदि विधा सभमे साहित्य सृजन कयलनि। ‘तर पट्टा ऊपर पट्टा’, ‘ई बतहा संसार’, ‘दरिद्र छिम्मड़ि’ आ ‘निवेदिता’ हिनक उपन्यास थिक। ई उपन्यास सभ मिथिला मिहिरमे धारावाहिक छपल छल, जाहिमे ‘ई बतहा संसार’ 1979 मे पुस्तकाकार भेल आ 1980 मे साहित्य अकादेमी पुरस्कारसँ सम्मानित कयल गेल। हिनक समीक्षात्मक निबंध संग्रह ‘सन्दर्भ’ 1981 मे प्रकाशित भेल। हिनक नाट्य कृति ‘भफाइत चाहक जिनगी’ (1975), ‘लेटाइत आँचर’ (1976), ‘पहिल साँझ’ (1982) आ ‘लगक दूरी’ प्रकाशित अछि। एकर अतिरिक्त हिनक कृति सभ विभिन्न पत्र-पत्रिकामे प्रकाशित अछि, जे अपन मूल नाम आ ‘पराशर’ ओ ‘कामरूप’क छद्म नामसँ रचित अछि।
दरभंगाक मिश्रटोलामे 3 नवम्बर 1922 कऽ हिनक जन्म भेलनि। विभिन्न जीविकाक संदर्भमे कलकत्ता आ जमशेदपुरमे रहलाह। किछु दिन उच्च विद्यालयक शिक्षक सेहो रहलाह आ तकर बाद मात्र रचनाकार आ सम्पादकक रूपमे बाँचब आ रचब स्वीकारलनि।

मिथिला मिहिरक किछु निबन्ध संग्रह आ एकांकी-संग्रहक सम्पादन स्वतंत्र आ सहयोगीक रूपमे कयने छथि।

मैथिलीसँ पहिने हिन्दीमे लिखैत छलाह। हिन्दी नाटकक एकटा अनिवार्य रचनाकार छलाह सुधांशु शेखर चैधरी। हिन्दीएक लेखन हुनक रोजी-रोटी छलनि। प्रो. सुरेन्द्र झा ‘सुमन’क प्रेरणासँ मैथिलीमे लिखब प्रारंभ कयलनि आ तकर बाद मैथिलीयोक अनिवार्य रचनाकार बनि गेलाह। जखन रोजी-रोटी मैथिली देलकनि तँ हिन्दी दिस घुरियो कऽ नहि तकलनि।

प्रायः सभ विधामे रचनाकर्म करैत रहलाक बादो सुधांशु शेखर चैधरी स्वयंकें मूलतः नाटककार मानैत छलाह। मुदा मैथिली नाटक लिखलनि अपन जीवनक उत्तरार्द्धमे। मैथिलीमे हिनक पहिल नाटक प्रकाशित भेलनि- ‘भफाइत चाहक जिनगी’।

सुधांशु शेखर चैधरी मैथिलीमे ताहि समयमे नाटक लिखब शुरुह कयलनि जखनि ओ अपन जीवन आ लेखनक उत्तरार्द्धमे छलाह, मुदा आधुनिक मैथिली नाटकक आ रंगमंचक विकासक दृष्टिएँ ओ समय उठानक छलैक। आने भाषा जकाँ मैथिलीमे सेहो मनोरंजनक लेल आ देवी-देवताक आख्यान वर्णनक स्वरूप कतोक नाटक लिखल गेल। ओहि नाटक सभक साहित्यिक महत्वक बात स्वीकारल/अस्वीकारल गेल। मुदा कतोक नाटक लोकरंजक नहि भऽ सकल। तकर एक कारण इहो मानल जा सकैत अछि जे रंगमंचक दृष्टिसँ अधिकांश नाटक असमर्थ होइत रहल। अधिकांश नाटककार मंचक तकनीक आ ओकर सीमाकें बुझबामे चेष्टगर नहि छलाह।

नाटक लिखबाक लेल मंचक सीमाक परिज्ञान आवश्यक होइछ। मंच आ दर्शककें ध्यानमे राखि नाटक लिखक चाही। मैथिलीमे ई काज तखन शुरुह भेलैक जखन आन-आन भाषाक नाटक आ रंगमंच विकासक क्रममे दौगबाक स्थितिमे छल वा ई कहल जा सकैछ जे दौगि रहल छल। दोसर रूपें इहो कहल जा सकैछ जे जखन आन-आन भाषाक रंगमंच दौगि रहल छल तखन मैथिली नाटक अपन नव भावबोध, आधुनिक रंग तकनीक, मंचक सीमा आ दर्शकक मनोविज्ञानक संगहि नाटकक आन तत्व सभ पर गंभीरतापूर्वक विचार करैत डेगाडेगी देवऽ लागल। एहि क्रममे आ कालमे सेहो तीन गोट नाटककार सर्वथा उल्लेखनीय छथि जे मैथिली नाटकमे कथ्य आ शिल्प दुनूक स्तर पर नवीनता अनलनि। ओ सभ थिकाह- मुंशी रघुनन्दन दास (मिथिला नाटक), ईशनाथ झा (चीनीक लड्डू) आ गोविन्द झा (बसात)। एहि तीनू नाटकक कथा तत्व समाजक स्थिति परिस्थितिसँ निर्मित अछि। सामाजिक जागरण, इष्र्या, द्वेष, कुरीति आ वैवाहिक असंतुष्टि जनित समस्या सभक चित्रण कौशलपूर्वक कयलनि अछि तीनू नाटककार। जेना किसान रस्सी बाँटलाक बाद पोआर लऽ कऽ रस्सीकें रगड़ि-रगड़ि कऽ माँजैत अछि जे अनावश्यक पटुआ सभ झड़ि जाइक आ रस्सी मोलायम आ गप्स भऽ जाय, तहिना ई तीनू नाटककार अपन-अपन नाटकक कथा तत्वकें माँजलनि, से मंच पर अपन शिल्प आ प्राणतत्वक अक्षुण्णताक चमकसँ दर्शककें आकर्षित कयलक।

तकर बादहिं नाट्य-लेखन आ रंगमंचक विुपल अनुभव लऽ कऽ अयलाह सुधांशु शेखर चैधरी। मैथिलीमे ओ पहिल नाटक लिखलनि-‘भफाइत चाहक जिनगी’ आ तकर बाद ‘लेटाइत आँचर’, ‘पहिल साँझ’ आ ‘लगक दूरी’। ओना चैधरीजीसँ पहिने महेन्द्र मलंगिया अपन प्रयोगधर्मी एकांकी सभक संग प्रवेश कऽ चुकल छलाह। मुदा, जेना कि चैधरी जी सेहो कतोक ठाम वक्तव्य देने छथि जे ओ महेन्द्र मलंगियाके नाटककार नहि मानैत छथि। विभूति आनन्द अपन ‘स्मरणक संग’ नामक पोथीमे लिखैत छथि- ‘‘महेन्द्र मलंगियाक ‘जाइन्ट इन्ट्री’सँ संपादकजी भीतरसँ सहमल रहथि, तें पहिने तँ महेन्द्र मलंगियाकें नाटककार मानऽ लेल तैयारे नहि रहथि। बादमे मोनकें मना कऽ कहुना एकांकीकारक रूपमे स्वीकार कयलनि। मुदा एहि बात पर अंत धरि अडिग रहलाह जे मैथिलीमे प्रयोगधर्मी नाटक सभसँ पहिने हमहीं आनल।’’ जें महेन्द्र मलंगियाक नाटक ‘एक कमल नोरमे’, ‘लक्ष्मण रेखा खंडित’, ‘जुआयल कनकनी’ आ कतोक एकांकी ‘भफाइत चाहक जिनगी’सँ पूर्वहिं आयल आ अपन प्रयोगधर्मकें स्थापित कऽ स्वतंत्र पहिचान बनौलक तें स्वीकारबा योग्य बात ई जे सुधांशु शेखर चैधरी मैथिलीमे अधुनातन रुपें महेन्द्र मलंगियाक बाद अयलाह।

मुदा प्रश्न ई नहि जेे पहिने के अयलाह? पहिने आ बादमे आयब महज एकटा संयोगक रूपमे लेल जा सकैछ। विचार करबा योग्य बात ई जे कोनो लेखक अपन लेखनक विकासक ग्राफकें कतऽ धरि बढ़ौलनि? ताहि दृष्टिएँ एहि दुनू नाटककारक ग्राफ मैथिली नाटकक विकासमे रेखांकित करबा योग्य प्रगति कयलक। दुनू गोटेक प्रयोगधर्मी नाटक सभ मैथिली नाटकक परिचितिकें आन-आन भाषा सभक समक्ष ठाढ़ कयलक।

सुधांशु शेखर चैधरी स्वयंकें मूलतः नाटककार मानैत छलाह, तकर मूल कारण इहो स्वीकारल जा सकैछ जे नाटकक तकनीकक हिनका खूब व्यावहारिक अनुभव छलनि आ तकर प्रयोग हिनक नाटककारकें सफल आ लोकप्रिय बनौलकनि। ‘भफाइत चाहक जिनगी’क आत्मकथ्यमेे ओ कहैत छथि- ‘‘नाटक क्षेत्रमे हमर किछु मोजर अछि, से एहि उक्तिक आधार पर अछि जे हिन्दीमे कैक-कैक संस्करणमे प्रकाशित दर्जनक करीब ओहि नाटक सभक प्रचार आ मंचीकरण जे केवल मिथिला किंवा बिहारक सीमामे आबद्ध नहि रहल, अपितु देशक सुदूर जनपदमे, हिन्दी बहुल क्षेत्रमे जा कऽ अपन नीक स्थान बना लेलक। किन्तु ई हम अपन दुर्भाग्ये मानैत छी जे इच्छा अछैत हम अपन मातृभाषामे गोटेको सम्पूर्ण नाटक नहि लिखि पौने छलहुँ। ताहि लेल हमरा हृदयमे कचोटो कम नहि छल। हम कृतज्ञ छियनि आकाशवाणी, पटनाक बटुक भाइक, चेतना समितिक वर्तमान सचिव गजेन्द्र नारायण चैधरीक जे ठोंठ मोकि हमरासँ ‘भफाइत चाहक जिनगी’ लिखा लेलनि आ हम मैथिलीक नाटककारक रूपमे चीन्हल आ जानल जा सकलहुँ। हमरा सन जड़ आ रोगग्रस्त व्यक्तिसँ मैथिली रंगमंचक पूजामे गोटेको फल चढ़बा लेल गेल, हम अपन जीवनक महत्वपूर्ण घटना मानैत छी।’’

आगाँ ओ फेर कहैत छथि- ‘‘हम रंगमंच पर स्वयं अभिनेताक रूपमे प्रायः 25 बर्ख धरि कार्य कऽ चुकल छी, स्वतंत्र रूपसँ निर्देशन आ मंच निर्देशनक अवसर सेहो दीर्घ काल धरि भेटैत रहल अछि आ तें हम आधुनिक मंचक क्रिया-प्रक्रिया ओ कठिनता-बाधासँ परिचित छी। हमरा भय छल जे ‘भफाइत चाहक जिनगी’ जँ मंच पर असफल भेल तँ मैथिलीभाषी समाज हमरा कहियो क्षमा नहि करत। कहत, जे व्यक्ति हिन्दीमे एतेक अर्थ आ यश कमायल अछि से जानि-बूझि कऽ मातृभाषाक ठाढ़ होइत मंचकें दूरि कऽ देलक। हमरा संतोष अछि जे अपेक्षित ध्वनि-प्रकाश ओ उपयुक्त प्रेक्षागृहक अभावोमे चेतना समिति द्वारा चुनल कलाकारक टीम ने हमर यश ओ गौरवक सुरक्षा प्रदान कयलक, अपितु हमरा पुनः मैथिली नाटक लिखबा लेल प्रेरणा देलक।’’
‘भफाइत चाहक जिनगी’क पहिल मंचन सन् 1974क विद्यापति पर्वक अवसर पर भेल छल। 1975 मे पहिल बेर पुस्तकाकार प्रकाशित भेल। ई एकटा एहन समय छल जखन देशक सामाजिक आ राजनैतिक स्थिति करोट फेरलक। चर्चित छात्र आन्दोलन आ जय प्रकाश नारायणक सक्रिय नेतृत्वसँ ई कालावधि रेखांकित करबा योग्य रहल अछि। एहन समयमे ‘भफाइत चाहक जिनगी’क कथातत्वक सामाजिक परिवेश, बेरोजगारी आ समकालीन कतोक विषमता दर्शककें नितान्त अप्पन सन लागब स्वाभाविके छल। दर्शक एहि ‘अप्पन’ वस्तुकें मोनसँ स्व्ीकारलक आ एहि नाटककें लोकप्रिय बनौलक। एहि हेतु नाटककारक दृष्टि अबस्से प्रशंसा योग्य कहल जा सकैछ जे ओ देश आ कालक नाड़ीकें चिन्हलनि, टोलनि आ बड़ सहजतापूर्वक पाठक वा दर्शकक मानसपटल पर चिरकाल धरि अंकित रहबा योग्य रचना कयलनि।

मैथिलीमे मौलिक रूपसँ नाट्य-लेखनक आरंभ 1904 ई. मे जीवन झाक ‘सुन्दर संयोग’सँ भेल अछि। आ सुधांशु शेखर  चैधरीक पहिल नाटक ‘भफाइत चाहक जिनगी’क पहिल मंचन 1974 ई. मे भेल। एहि कालावधि पर विचार कयने ई बात स्पष्ट रुपें सोझाँ अबैत अछि जे मैथिलीमे प्रयोगधर्मी नाटकक डेगा-डेगी बड़ विलम्बसँ शुरुह भेल अछि। मुदा एतेक धरि अबस्से कहल जा सकैछ जे विलम्बेसँ हो मुदा समधानल डेग उठौलक मैथिली नाटक आ तकरा सम्पुष्ट करबाक प्रयास आ प्रयोग अनवरत भऽ रहल अछि। मैथिली नाटकक आ देशक कालखंड, सामाजिक-राजनैतिक स्वरूप, शिल्प आ तकनीकक प्रायोगिक ‘टर्निंग प्वाइंट’ पर ‘भफाइत चाहक जिनगी’ अपन सुदृढ़ उपस्थिति बनौलक।
‘भफाइत चाहक जिनगी’ मध्यवर्गीय जीवन, अनुभव आ परिवेशसँ सोझाँ-सोझी साक्षात्कार करऽ बला एकटा सार्थक नाटक थिक। वर्तमान मैथिल समाज, ओना ई कहल जाय जे वर्तमान भारतीय परिवारक तँ कोनो हर्ज नहि, केर सामाजिक, आर्थिक आ राजनैतिक विडम्बनाक किछु सघन विन्दु सभक संग स्त्री-पुरुष सम्बन्धक संगति/विसंगतिक जीवन्त रेखांकन करैत अछि ई नाटक। एहि नाटकक यथार्थपरक कथ्यकें बुझबाक लेल भारतीय परिप्रेक्ष्यमे मध्यवर्गक अवधारणाकें मोन पाड़ब समीचीन बुझना जाइछ।

मनुक्ख एकटा सामाजिक प्राणी अछि। सामाजिक, आर्थिक आ मनोवैज्ञानिक दृष्टिसँ समाज व्यक्ति-समूहक कतोक वर्गमे विभक्त भऽ जाइत अछि। कोनो व्यक्तिकें वर्ग विशेषमे राखबाक लेल ओकर आमदनी, सम्पति, वंश-परम्परा, आर्थिक दृष्टिकोण, जीबाक स्तर आ शिक्षाकें ध्यानमे राखल जाइछ। आदिम कबीला सभक आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था मानव जातिक वर्ग विहीन समाजक संकैत दैत अछि। मुदा, तकर बादक समाज आ विशेषतः मध्ययुगमे उत्पादन-वृद्धि आ व्यक्तिगत सम्पत्तिक लिलसा समाजकें मुख्यतः दू वर्गमे बाँटि देलक- उच्च (शोषक) आ निम्न (शोषित)। वैज्ञानिक प्रगति, औद्योगिक क्रांति आ पूंजीवादी व्यवस्था विश्वक आर्थिक-सामाजिक आ बौद्धिक अवस्थाकें एहि तरहें प्रभावित कयलक जे अठारहम शताब्दीक अंतिम चरणमे उच्च आ निम्न वर्गक बीच एकटा तेसरे वर्ग जन्म लेलक, जकर मध्यवर्ग कहल गेलैक। किछु आर्थिक-सामाजिक चिंतक आ टिप्पणीकारक अनुसार 1812 ई. सँ पहिने कोनो वर्गक लेल ‘मध्यवर्ग’ शब्दक प्रयोग नहि कयल गेल छलैक। एकर माने ई जे उनैसम शताब्दीक शुरुहमे मध्यवर्ग उभरल आ पूंजवादी औद्योगिक व्यवस्थाक संग बढ़ैत चलि गेल। वर्ग-संघर्षक एहि ऐतिहासिक विकासक विवेचना करैत मार्क्स उच्च, निम्न आ मध्यवर्गकें क्रमशः ‘बुर्जुआ’, ‘प्रोलेतेरियत’ आ ‘पैटी बुर्जुआ’ कहलनि अछि।
भारतीय परिप्रेक्ष्यमे जँ देखल जाय तँ आदिम वर्गविहीन समाजक बाद एहिठाम प्रचलित वर्ण-व्यवस्था एक तरहें वर्ग-व्यवस्थाक सामाजिक रूप अछि। अंग्रेजसँ पहिने भारतमे संयुक्त परिवार, कृषि-व्यवस्था आ घरैया उद्योग पर आधारित व्यवस्था स्वयंमे एकटा पूर्ण इकाई छल। सोलहम शताब्दीमे किछु पाश्चात्य देशक सम्पर्कक कारणें भारतीय जीवन आ समाजमे एकटा सुगबुगाहटि अनुभव कयल गेलैक। मुगल शासनक पतनक बाद शासन तंत्र अंग्रेजक हाथमे चलि गेलैक। अंग्रेजी साम्राज्यवादक कारणें भारतमे मध्यवर्गक विकासमे अंग्रेजी शिक्षाक अतिरिक्त औद्योगिक विकास, शहरीकरण, अर्द्धविकसित पूंजीवादी व्यवस्था, व्यापार, बैंकिंग प्रणाली, प्रेस, संचार आ यातायातक साधनक महत्वपूर्ण भूमिका भेलैक। देशक आजादीक संग भेल विभाजनक आ आजादीक बाद भेल बहुआयामी विकास आ बढ़ैत गेल भ्रष्टाचारक कारणें मध्यवर्गक असंतुलित विकास भेल, जकर कारणें मध्यवर्गक तीनटा स्पष्ट स्तर उभरि कऽ आयल- उच्चवर्ग, मध्यवर्ग आ निम्न-मध्यवर्ग।
मध्यवर्ग मूलतः पढ़ल-लिखल लोक सभक वर्ग थिक। ब्रिटिश शासनमे ओकर नोकरशाहीकें चलाबऽ बला आ ओकर विरोध कऽ स्वतंत्रताक लड़ाइ लड़ऽ बला बुद्धिजीवी एही वर्गसँ आयल छल। अपन महात्वाकांक्षाक कारणें अपन वर्गसँ, किछुओ कऽ कऽ, अपनासँ उपरका वर्गमे जयबा लेल अपस्याँत आ प्रयत्नशील ई वर्ग परिस्थितिक डांगसँ आहत भऽ लगातार निचला वर्गमे पहुँचि जाइत अछि। एकर कारणें एहि वर्गमे सतत तनाओ आ.  अंतरद्वंद्वक   स्थिति पाओल जाइछ। अपन सुरक्षा आ सुविधाक लेल ई वर्ग प्रायः कोनो प्रकारक समझौता आ अवसरवादिताक लेल तैयार रहैछ। सोचब, कहब आ करब सनक खाधि आ आत्म-प्रदर्शनक भावना एहि वर्गक विशेषता छैक। एहने कतोक परिस्थितिक कारणें एहि वर्गक उदयक संगहि संयुक्त परिवारक व्यवस्था टुटैत गेल। भारतीय समाजमे परम्परागत मूल्यमे परिवर्तनक प्रक्रिया छठम-सातम दशकमे महानगरसँ शुरुह भेल आ क्रमशः छोट-छोट शहर दिस पसरल आ गाम दिस सेहो गेल। मनोवैज्ञानिक स्तर पर मध्यवर्ग असंतुष्ट, अनिश्चित, आत्म-प्रदर्शनकारी, खौंझायल, निराश आ कुंठित होइत गेल।

‘भफाइत चाहक जिनगी’क कथावस्तु एहने मध्यवर्गक, वा ई कही जे निम्न मध्यवर्गक तँ बेसी नीक, कथा थिक। नाटकक कथावस्तु विद्यापति पर्व समारोह परिसरक एकटा कातक चाह आ पान दोकान पर शुरुह होइछ आ ओत्तहि समाप्त होइछ। नाटकक नायक महेश मिथिलाक कोनो गामसँ पटना आयल अछि। बेरोजगारीसँ संघर्ष करैत, सामान्य मैथिल युवक सन मात्र नोकरीएटाकें विकल्प बुझबाक अवधारणाकें छोड़ि, ओ पटनामे चाहक दोकान करैत अछि। ई गप्प गाममे ओकर पिताकें नहि  बूझल छनि। उच्च जातिक मैथिल चाहक दोकान करय, ई ककरो सोहाओन होमऽ बला नहि छैक आ तें पर्व परिसरमे ओकर स्टाॅलकें चाहक आर्डर तँ भेटैत छैक मुदा स्वयं ओकरा प्रति पर्व समारोहक कार्यकर्तालोकनिक व्यवहार अवडेरल सन छैक। दर्शक आ श्रोताक आवाजाहीसँ चाह-पानक दोकानक बिक्री शुरुह होइत छैक। लोकक आवाजाहीक क्रममे महेशक ग्रामीण दिगम्बर अभरैत छैक।

दिगम्बर सेहो नोकरीक ताकाहेरीमे पटना आयल अछि। बेकारीक डांग सहैत ओ नोकरीएटाकें विकल्प बूझि बहिनोइक डेरा पर रहि रहल अछि। ओ एखनो एही मान्यतामे जीबि रहल अछि जे उच्च जातिक लेल वणिकक काज अनुचित थिक। मुदा महेश संगक वार्तालाप ओकर मोनकें डोलबैत सन लगैत छैक।

दोसर दृश्य परिवर्तनमे नाटककार मैथिलक कतोक प्रकारक चरित्र स्थापित कयलनि अछि। दिगम्बरक प्रस्थानक बादहिं एकटा दम्पति- उमानाथ आ चन्द्रमा चाहक दोकान पर अबैत अछि। चेतना समितिक पर्व समारोहमे आयल उमानाथ हिन्दीमे महेशसँ संभाषण शुरुह करैछ। ई एकटा सत्य थिक। सत्ये नहि, विद्यापति पर्व समारोहमे आयल उमानाथ सनक इंजीनियर सभक स्वाभाविक भाषा-चरित्र सेहो। महेशक भाषा-प्रेम ओकरा टोकैत छैक आ दुनूमे पहिने टंटे-घंट शुरुह होइत छैक।

जखन ओ दुनू दम्पति चाह पीबाक लेल सुभ्यस्त होइछ, तँ चाहक दाम आ चाहमे चीनी बला संदर्भ एकटा रोचकता उत्पन्न करैत छैक। महेशक मानब छैक जे मैथिल चाह नहि, मीठ पीबैत अछि, तें ओ चीनीक हिसाबसँ चाहक दाम रखने अछि। ई ओहि समयक गप थिक जखन चीनीक बिक्री पर सरकारी आँकुस रहैक। कोटामे भेटैक चीनी तें ब्लैक मार्केटिंग बेसी होइक। ओना ई कहल जाय जे ब्लैकेसँ चीनी भेटैक तँ अतिशयोक्ति नहि।

महेश चाह बनबऽ लगैत अछि तँ माइक पर कवि सम्मेलनक शुरुआतक घोषणा होइत छैक। चन्द्रमा साकांक्ष होइत अछि आ पति उमानाथकें उद्घोषणा दिस ध्यानाकर्षित करैछ, मुदा उमानाथ लेल धन सन। आम मैथिल जकाँ कविता पाठकें कविलोकनिक मेमिअयनी सन बुझैछ ओ। पतिक सांस्कृतिक मान्यतासँ चन्द्रमा आहत होइत अछि। उमानाथ एहन अवसर पर पत्नीक कारणें आ किछु परिचित सभसँ भेंट भऽ जयबाक लोभें अबैत अछि। चन्द्रमा स्वीकारैत अछि जे ओ एकसरि नहि आबि सकैत अछि तें उमानाथ ओकरा संग अबैत छैक।

उमानाथक नजरि ककरो पर पड़ैत छैक आ ओ चाह पीब छोड़ि मंच परसँ बहरा जाइछ, तँ चन्द्रमा महेशकें उमानाथक परिचय छैत छैक- एक हजार पाबऽ बला इंजीनियरक रूपमे। पाइ आ पदक सोझाँ मैथिलत्वक रक्षार्थ अपन चिन्ता आ अवधारणाकें कहैत अछि महेश। तखनहिं पुनः माइक पर उद्घोषणा होइत छैक - ‘‘महेश जी जतऽ कतहु होथि, काव्य पाठक लेल मंच पर चल आबथि। एकर बाद हुनके कविता पढ़बाक छनि।’’

महेश चन्द्रमाकें दोकान देखैत रहबाक बात कहि हड़बड़ायल बिदा होइछ।

महेशकें जइतहिं कार्यकर्ता गोपालजी पान लेबाक लेल मंच पर अबैत अछि। गेनासँ पानक पतौड़ा लेलाक बाद ओ चाहक दोकान पर महेशकें नहि पाबि चिन्तित होइत अछि आ चन्द्रमासँ महेशक मादे पुछैत अछि। संगहि तुरते चाह नहि भेटने बेज्जति भऽ जयबाक बात सेहो कहैत अछि। चन्द्रमा टहला सभसँ चाह बनयबाक लूरि दऽ पुछैत अछि आ अंततः ई सुनि जे गोपालजीकें संगहि चाह लऽ कऽ जयबाक छैक, ओ चाह बनाबऽ लगैत अछि। गोपाल जीकें अचरज होइत छैक। ओ चन्द्रमा आ महेशक सरोकारी बूझऽ चाहैत अछि। चन्द्रमा मुस्किआइत कहैत अछि-‘‘पत्नी नहि, अपन लोक...विश्वासक आधर परक अपन लोक...।’’

गोपालजीकें गेलाक बाद मंच पर एकटा वयस्क आ युवकक प्रवेश होइत अछि। दुनूमे पहिने तँ वैचारिक दुटप्पी होइछ। वयस्क कहैत छथि जे नाटक आ नाच-गानमे बड़का-बड़का जाति आ हाकिमक बहु-बेटी भाग लैत छैक, से हुनका छगुन्ता होइत छनि। एहि बातकें भ्रष्टतासँ जोड़ि कऽ देखैत वयस्क समाजक दिशा पर चिन्तित होइत छथि। मुदा एकर बादो नाच-गान हुनका नीके लगैत छनि। ओलोकनि सेहो चाहक स्टाॅल दिस अबैत छथि। चाहक दोकान पर एकटा भद्र स्त्रीकें देखि फरमाइसक हिम्मति नहि होइत छनि दुनूकें। एहिठाम नाटककार बड़ कौशलसँ गमैया वयस्क आ गामसँ आयल शहरी होइत युवकक मनःस्थितिक प्रतिस्थापन कयलनि अछि। ई मनोवैज्ञानिक स्थिति दर्शककें गुदगुदी लगयबाक प्रयासमे सेहो सफल होइछ। अंततः वयस्के फरमाइस करैते छथि आ हुनक फरमाइसकें पूरा करबाक क्रममे उमानाथ अबैत अछि। चन्द्रमाकें दोकान चलबैत देखि ओ तामसे माहुर भऽ जाइछ। देखार होयबाक कारणें अपन परिचितकें नुका लैछ आ बेंच पर बैसि जाइछ। ओत्तहिसँ चन्द्रमाकें संकेतसँ चलबाक लेल कहैत अछि, मुदा चन्द्रमा सेहो गहिंकीसँ नजरि बचा कऽ महेशक अनुपस्थितिक कारणें अपन असमर्थता व्यक्त करैछ।

उमानाथक संग चन्द्रमा गहिंकीए सन व्यवहार करऽ लगैछ, मुदा ओ व्यवहार कने स्नेहासिक्त होइछ। मुदा ओही अनुपातमे उमानाथक पारा आर गर्म होमऽ लगैत छैक। ओ तामसकें घोंटैतो अछि आ बोकरितो अछि। एही वार्तालापमें वयस्कक टिप्पणी सभ जे प्रयुक्त भेल अछि, से दर्शककें फेरसँ गुदगुदी लगबैत छैक। अंततः उमानाथ धमकी दैत ओतऽसँ बहार भऽ जाइछ आ चन्द्रमा लोकक आँखि बचा कऽ अपन कपार ठोकैत अछि। एकटा आशंका आ उद्विग्नताक कारणें मोनहि मोन डोलऽ लगैत अछि।
तकर बाद दू टा व्यक्ति गंगानाथ आ दयानन्द पंडालसँ बहरा कऽ दोकान दिस अबैत अछि। दुनू पनखौक अछि आ पीक फेकबाक असुविधाक कारणें बेसीकाल पंडालमे रहि नहि पबैत अछि, तें एम्हर आयल अछि। ओकरा दुनूकें समारोह समितिक प्रक्रियासँ असंतोष छैक आ मैथिली भाषा-साहित्यक प्रति आम मैथिलक उदासीनतासँ तामस सेहो। महेश सन चाहबलाकें काव्य पाठक अवसर देबाक कारणें ओ दुनू समितिक खिधांस करैत अछि आ मैथिलीक पोथी आ पत्र-पत्रिका किनबाक नाम पर जऽर लगैत मैथिलक चरित्र विशेषक प्रति तमसाइत अछि। चाहक संग आर-आर कथूक फरमाइसक क्रममे महेशक प्रवेश होइत छैक आ ओकरा देखितहिं मंच परक कविक रूपमे चिन्हबाक प्रयास करैछ।
महेश विलम्बक लेल चन्द्रमासँ क्षमा मंगैछ आ ओकरा प्रति कृतज्ञता सेहो ज्ञापित करैछ। माइक परक उद्घोषणाक बात स्मरण रखैत चन्द्रमा कहैत छैक जे ओ महेशक मादे बूझि गेल छलि जे ओकर चाहक दोकान मात्र जीवकोपार्जन लेल छैक, पहिने ओ मूलतः कवि अछि। एते कालक दोकानक हिसाब-किताब महेशकें दैछ।

एक-दोसराक संग वार्तालापक संगहि महेश दोकानक काज करऽ लगैत अछि आ चन्द्रमा स्टाॅलक भीतरमे कुर्सी लगा कऽ बैसैत अछि। हरिकान्त आ शिवानन्द नामक दू गोट पात्र आबि कऽ बैसैत अछि बेंच पर। ई दुनू बहरिया लोक अछि, जे पटनाक विद्यापति पर्व समारोह देखऽ आयल अछि आ सिनेमाक गीतक भास पर विद्यापति गीत सुनि कऽ क्षुब्ध अछि। एहिमे एकटा पात्र हरिकान्त संस्कृतिकें भसिया जयबाक चिन्तासँ ग्रसित सेहो अछि।

दुनू पात्रक बीच संस्कृतिक पुरातन आ अधुनातन स्वरूप पर चर्च शुरुह होइत छैक जे राजनीति पर अबैत छैक। दयानन्द आ गंगानाथ एहि गप्पमे सम्मिलित होइत अछि। कांग्रेस आ विरोधी दलक शासनक समयमे मिथिलाक स्थिति पर बहस होमऽ लगैत छैक जकरा पर पानि ढ़ारल जाइत अछि गोपालजीक प्रवेशसँ। गोपालजी समिति द्वारा प्रकाशित पोथी सभ लऽ कऽ अबैत अछि आ हिनकालोकनिसँ पोथी किनबाक लेल आग्रह करैत अछि। पोथी किनबा लेल ओलोकनि एक-दोसराकें उकसाबैत छथि। मात्र शिवानन्द एकटा पातर सन पोथी कीनैत अछि। मुदा महेश आ चन्द्रमा प्रकाशित सभटा पोथीक एक-एक प्रति कीनैत अछि। दुनू सेट पोथीक दाम चन्द्रमा दैत अछि, मुदा महेश अपन कीनल पोथीक दाम स्वयं दैत अछि। चन्द्रमाक अनुनय जे ओ उपहारमे पोथी दऽ रहलि अछि, कें नहि स्वीकारैछ महेश। ओ कहैत अछि जे मैथिलीक पोथी कीनियेटा कऽ पढ़ि सकैत अछि। ओकर संकल्प छैक जे मैथिलीक पोथी उपहारमे वा मंगनीमे नहि पढ़त। अंततः दुनू लालटेमक इजोतमे पोथी उनटाबऽ लगैत अछि।

ताबते महेशक सहपाठिनी सरिता धड़फड़ायलि मंच पर अबैत अछि। ओ महेेशेक नोट्ससँ पढ़ि कऽ एम.ए. मे फस्र्ट क्लास फस्र्ट भेल छलि आ आब एकटा आइ. ए. एस.क पत्नी अछि। संगमे नोकर छैक- एकटा गुलथुल नेनाकें कोरामे नेने। पति नहि छैक संगमे। ओ कार्यक्रम देखबाक हड़बड़ीमे अछि, मुदा चाह पीबा लेल बैसबाक उद्यत होइतहिं महेशकें चिन्हि जाइत अछि। महेश ओकरासँ अपन परिचिति नुकयबाक बात कहैत अछि। ओ एतेक धरि कहैत अछि जे ई स्टाॅल चन्द्रमाक छैक आ ओ नोकर अछि, मुदा चन्द्रमा ओकर बातकें कटैत अछि। तकर बाद दुनू स्त्री अपन-अपन विवशताक बखान करैत अछि। सरिताक पतिकें पलखति नहि छैक जे ओ आकरा संग घुमय। ओकरा टूरे-टूर रहैत छैक। चन्द्रमाक पति संग आयल छलैक, तमसा कऽ चलि गेलैक, तें ओतऽ लटकलि अछि। सरिताक आग्रह जे ताबत पंडालमे जा कऽ किछु देखय-सुनय, कें सेहो पतिक डरें स्वीकारि नहि पबैछ चन्द्रमा।

महेश आ सरिताक बीच अतीत आ वर्तमानक चर्च सभ होमऽ लगैत छैक। एही बीच दिगम्बर अबैत अछि आ महेशकें काव्य पाठक लेल बधाइ दैत छैक आ कहैत छैक-‘‘आब अहाँक दिन घुरि जायत। सभ चिन्हिये गेल। कतहु-ने-कतहु नोकरी लागिए जायत।’’ मुदा महेश नोकरीकें अपन अभीष्ट नहि होयबाक बात बेर-बेर मोन पाड़ैत छैक दिगम्बरकें। ओकर अभिप्राय इहो छैक जे जें लोक नोकरीकें अभीष्ट बुझैए तें बेकारी छैक। जीविकाक संदर्भमे महेशक ई संवाद (पृष्ठ-6) एकटा प्रतिमान ठाढ़ करैछ- ‘‘जें आइ सभ नवयुवकक लक्ष्य नोकरिये भऽ गेलैए, तें सभतरि निराशाक वातावरण बनि गेल छै। चाही ई जे नोकरियोकें  एक साधन बुझल जाय। जेना ई संसार अनन्त अछि, तहिना साधनो असीमित छैक। मोनकें एके खुट्टासँ बन्हने रहब मनुक्खक मर्यादाकें आ ओकर सामथ्र्यक अपमान करब थिक।’’

दिगम्बरकें गेलाक बाद तुरते सरोष उमानाथक प्रवेश होइत छैक। ओ महेशक हाथसँ चाहक कप-प्लेट छीनि नीचाँमे पटकि दैछ आ ओकर गट्टा पकड़ि कुरसी दिस लऽ जाइछ। उमानाथकें एहिबातक तामस छैक जे महेश ओकर पत्नीसँ बहिकिरनीक काज करौलक अछि। लगैत छैक जे उमानाथ बुतें कोनो नमहर घटना भऽ जयतैक। तखने चन्द्रमा अपन पतिकें टोकैत अछि। सरिता सभ किछु अपरतिभ भऽ देखैत रहैछ। चन्द्रमा पतिकें कहैत छैक जे चाह बना कऽ पिऔने लोक छोट नहि भऽ जाइछ। ओहो घरमे चाह बनबैत अछि। उमानाथ महेशकें छोड़ि तँ दैत अछि मुदा एक्कहु क्षण ओतऽ ठाढ़ होमऽ नहि चाहैत अछि। चन्द्रमाकें चलबाक लेल कहैत अछि। सरिताक आग्रह होइत छैक जे चलि कऽ प्रोग्राम देखल जाय, मुदा ओ नाटकक प्रति अपन इंटरेस्ट नहि होयबाक बात कहैत अछि। ताबते महेश एक कप चाह उमानाथ आ दोसर चन्द्रमा दिस बढ़बैत अछि। उमानाथ चाह पीबऽ नहि चाहैछ। चन्द्रमा कहैत छैक जे प्रेमसँ दैत छथि, पीबि लियौ। सरिता सेहो अनुरोध करैछ। महेश सरिताक मादे कहैछ जे ई दोकान हिनके छनि, मुदा सरिता बातक खंडन करैछ जे दोकान महेशक छैक आ महेश ओकर काॅलेजक सहपाठी छैक। उमानाथकें अचरज होइत छैक। ओकरा मुँहसँ बहराइत छैक्- ‘‘पढ़ल-लिखल युवक आ चाहक दोकान....।’’

ताबते नेपथ्यसँ उद्घोषणा होइत छैक- ‘‘आब अपनेलोकनिक समक्ष प्रस्तुत अछि श्री सुधांशु शेखर चैधरीक लिखल मैथिली नाटक- भफाइत चाहक जिनगी।’’

सरिता हड़बड़ायलि जाइत-जाइत महेशकें कहैछ जे ओ घुरति तँ पाइ दऽ देति आ महेश ओकरा दिससँ सेहो चाह पीबि लिअय।

महेशकें छोड़ि सभ गोटें मंच दिस जाइत अछि। नाटक एतहि समाप्त होइछ।

एहि तरहें यैह कहल जा सकैछ जे ‘भफाइत चाहक जिनगी’क कथावस्तु एकटा आम मध्यवर्गक जीवनक कथावस्तु थिक। एहिमे जीवन संघर्ष, सांस्कृतिक संघर्ष आ सामाजिक-राजनीतिक संघर्षकें बड़ कौशलसँ स्थापित कयलनि अछि नाटककार। ई कथावस्तु सोझाँ-सोझी बड़ सहज आ सरल लगैछ, मुदा अपन अन्तर्निहित व्यंग्यकें सेहो धरगर बनौने अछि। भफाइत चाह पर जीबाक लेल अहुरिया कटैत जनक भीतरमे बैसल लोककें चिन्हबाक लेल बाध्य करैछ ई नाटक। आजुक सभसँ पैघ सामाजिक संकट थिक- मनावताकें जोगा कऽ राखब आ एहू परिप्रेक्ष्यमे ‘भफाइत चाहक जिनगी’ आइयो प्रासंगिक अछि।

स्त्री पात्र आइयो मैथिली रंगमंचक एकटा चैलेंज अछि। आइयो मैथिली रंगमंचकें स्त्री पात्रक ओहिना अभाव छैक जेना पहिने रहैक। पटना सन शहरक किछु स्थापित नाट्य-संस्थाकें स्त्री पात्रक अभावमे नाट्य-प्रस्तुति बन्न करऽ पड़ैत छैक। कलकत्ता सन महानगरमे एखनहुँ बंगाली स्त्रीक खगता होइते छैक मैथिली रंगमंचकें। एहना स्थितिमे आइसँ करीब बत्तीस-तैंतीस बर्ख पहिने जखन 1974 ई. मे ‘भफाइत चाहक जिनगी’क मंचन भेल आ लेखक एहि नाटकक रचना कयलनि, तखन निश्चये हुनका सोझाँ स्त्री पात्रक अकालक बात रहल होयतनि। मुदा एहि मानेमे शेखरजी कोनो समझौता नहि कयलनि अछि एहि नाटकमे। कथानकक अनुसार दूटा स्त्री पात्रक सृजन कयलनि अछि। आइयो जे नाटक लिखल जा रहल अछि, ताहिमे स्त्री पात्रक संख्या औसत दू या तीनटा होइछ। ई सृजन आइयो महिला कलाकारक अभावकें ध्यानमे रखैत होइत अछि।
‘भफाइत चाहक जिनगी’मे दू गोट नारी चरित्र आयल अछि- चन्द्रमा आ सरिता। चन्द्रमा एहि नाटकक मुख्य पात्री अछि। चन्द्रमा एकटा इंजीनियरक पत्नी अछि आ मैथिली भाषा-साहित्य पढ़ने अछि। तें ओकरा मैथिलीक सांस्कृतिक कार्यक्रम आ कवि सम्मेलन आदिसँ रुचि छैक। मैथिलीक पोथी पढ़बामे सेहो रुचि छैक। चन्द्रमाक चरित्रकें गढ़बामे लगैछ जे नाटककार अपन दूरदर्शिताक परिचय देलनि अछि। कारण, जाहि कालखंडक ई नाटक थिक, ओहि समयक मैथिलानी चन्द्रमा सनक चरित्र कनेक अस्वाभाविक लगैछ। जेना - ओ एतेक बोल्ड नहि अछि जे एकसरि विद्यापति पर्व देखऽ आबि सकैत अछि, मुदा एकटा अपरिचित चाहक दोकानदार महेशक अनुपस्थितिमे ओकर स्टाॅल पर चाह बनाबऽ लगैछ...दोकान चलाबऽ लगैछ। अनचोके एतेक बोल्ड भऽ जायब अस्वाभाविक सन लगैछ। नाटकक अंतिम चरणमे चन्द्रमाक एकटा संवाद, जे ओ सरिताकें कहैछ, एहि अस्वाभाविकताक पुष्टि करैछ - ‘‘अहाँ नहि चिन्है छियनि हुनका। हुनकर इच्छाक विपरीत जँ हम किछु कऽ ली तँ ताहि दिन अनर्थे बुझू।’’
पाठक/दर्शकक सोझाँ एकटा प्रश्न ठाढ़ भऽ जाइत छैक- जाहि स्त्रीकें अपन पतिक इच्छाक विरुद्ध जयबाक एतेक भय छैक ओ एकटा अपरिचितक चाहक दोकान चलयबाक साधंस कोना कयलकि? जँ ई मानि लेल जाय जे महेशक ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ वा मैथिलत्व चन्द्रमाकें प्रभावित कयने होइक वा महेशकें कविता पढ़बाक आमंत्रणक ध्वनि माइक पर सुनब आ महेशक आकस्मिकताक संग प्रस्थान करबसँ चन्द्रमा प्रायः बूझि गेलि जे महेश कवि अछि, जकर खुलासा ओ नाटकक पृष्ठ 19-20 पर कयलकि अछि वा महेशक व्यक्तित्वक इहो भाग जँ चन्द्रमाकें प्रभावित कयने होइक, तैयो चन्द्रमा द्वारा चाहक दोकान चलायब सनक साधंस अस्वाभाविक लगैछ।

जँ नाटककार चन्द्रमाक एहि कार्य-व्यापारकें कतोक बर्खक बादक मैथिलानीक रूपमे प्रस्तुत कयलनि अछि वा नाटकक कथातत्वक उत्प्रेरकक रूपमे गढ़लनि अछि, जाहिसँ वयस्क आ युवकक चरित्र...गंगानाथ आ दयानन्दक चरित्र चमकि सकैक, तँ दोसर बात।
नाटकक दोसर स्त्री पात्र सरिता एकटा आइ.ए.एस.क पत्नी अछि आ नायक महेशक सहपाठिनी सेहो। महेशेक नोट्ससँ पढ़ि ओ टाॅपर भेलीह अछि। महेशक स्थितिसँ आहत होइछ सरिता। मुदा ओकर अपनो आन्तरिक दुख कम नहि छैक। एहि पात्रक गढ़नि बड़ स्वाभाविक रूपसँ भेल अछि।

स्त्री-विमर्शक दृष्टिएँ देखने लगैछ जे ‘भफाइत चाहक जिनगी’क दुनू नारी पात्र एक्के दंशमे जीबि रहल अछि। दुनू सुशिक्षिता आ सम्पन्न परिवारक होइतहुँ पति परमेश्वर रूपी लक्ष्मण रेखामे सिसकैत रहबाक लेल अभिशप्त अछि। चन्द्रमाक चाह दोकान परक क्रिया-कलापकें एहि लक्ष्मण रेखासँ बहरयबाक मनोवैज्ञानिक प्रतीकक रूपमे लेल जा सकैछ, मुदा आगाँ जा कऽ इहो भ्रम बनि जाइत अछि।

प्रस्तुत नाटकमे पात्रक परिवेशगत आम जनक भाषाक प्रयोग कयल गेल अछि। भाषाक प्रयोगमे नाटककार सुधांशु शेखर चैधरी निष्णात छलाह आ नाटकहुमे हुनक ई विशेषता परिलक्षित होइत अछि। छोट-छोट आ सटीक संवाद एहि नाटकक गुणवत्ताकें बढ़बैत अछि। ओहुना शेखर जीक सम्पूर्ण नाट्य-लेखनकें बदलैत सामाजिक, राजनैतिक आ मानवीय सम्बन्धक संदर्भमे उचित नाट्य-भाषाक खोज कहल जा सकैछ। हिनक नाटक सभमे उचित नाटकीय शब्द आ संवादमे ओकर उचित आ सार्थक स्थान ताकबाक छटपटाहटि आ प्रयोगशीलता देखल जाइछ।
‘भफाइत चाहक जिनगी’मे आजुक मध्यवर्गीय मैथिल जीवनक सूक्ष्म आ जटिल अनुभव, अनुभूत आ अर्द्ध अनुभूत संवेदना आ बहुआयामी वैविध्यपूर्ण परिस्थितिमे जीबैत पात्र सभक मनःस्थितिकें मुहाबरा आ आमलोकक सृजनात्मक भाषामे सफल नाटकीय अभिव्यक्ति भेटलैक अछि। यथा- पोथीक पृष्ठ 2 पर महेशक संवाद- ‘‘एखनि तँ बियनिक मारि लगलौए, मारि लातसँ पटहा कऽ देबौ।’’ पृष्ठ 16 पर गंगानाथक संवाद- ‘‘हमरा तँ देह जरऽ लगैए, जखन लोककें दिन-राति मैथिली-मैथिली रटैत देखैत छिऐ आ जखन मैथिलक काजक असली बेर भेलै कि सटक सीताराम।’’ पृष्ठ 18 पर दयानन्दक ई संवाद देखल जा सकैछ- ‘‘देखियौ ने, केहन घुट्ठीसोहार भऽ रहल छै।’’

‘भफाइत चाहक जिनगी’क भाषाक एकटा विशेषता इहो छैक जे एहिमे प्रचलित आ पारंपरिक पैघ-पैघ प्रतीकक प्रयोग नहि कऽ आम जिनगीक दैनन्दिनीमे प्रयुक्त साधारण वस्तु सभकें गहींर आ नव अर्थ दऽ प्रतीकक गरिमा प्रदान कयल गेल अछि। जेना चन्द्रमाकें चाहक दोकान पर देखि वयस्क आ युवक द्वारा फरमाइस करबामे असोकर्य। ई एकटा छगुन्ताक संग ‘इनफेरिटी’क गप्प सेहो कहैत अछि। एहने सनक स्थितिक प्रयोग ओत्तहु जतऽ गंगानाथ आ दयानन्द चाहक स्टाॅल दिस अबैत अछि। चन्द्रमाकें देखि आनन्द मेलाक भ्रम होइत छैक आ वयस्ककें चाहक दोकान पर बैसल देखि दयानन्दक संवाद- ‘‘नः। देखै नै छियनि बूढ़कें चाह सुरकैत। चलू एकदम निडर भऽ कऽ।’’
शब्द स्वयंमे महत्वपूर्ण नहि होइछ, ओकर अपन पड़ोसिया शब्दक संग सम्बन्ध, संदर्भ आ प्रयोग ओकरा अर्थपूर्ण बनबैत छैक। तें नव-नव शब्द आ वाक्यांशसँ संवाद गढ़बाक अपेक्षा ओकर संदर्भ-लय आ नाटकक चरित्रक आंतरिकतासँ उपजैत लयक अनुसार भाषा सृजन आ संवाद लेखन सेहो नाटककें महत्वपूर्ण बनबैत छैक आ नाटककारकें भीड़सँ फराक ठाढ़ कऽ ओकर महत्ताकें स्थापित करैत छैक।

‘भफाइत चाहक जिनगी’क बहुलांश संवाद सहज, साधारण आ अभिधात्मक लगैछ, मुदा ओकर व्यंग्यात्मक अर्थ बड़ गहींर आ तिक्ख अछि। किछु संवादक बानगी लेल जा सकैछ। महेशक संवाद - ‘‘काल्हि भाषणक फेंट-फाँट छलैक, आइ एकछाहे नाच-गान छियै। गीत-नाद लेल लोक आफन तोड़ने फिरैए।’’ (पृष्ठ 2)।
‘‘अहाँ तँ जुलूम चाह बनबै छी।’’ दिगम्बरक संवाद (पृष्ठ 6)।
‘‘मैथिल चाह तँ नै पिबैए, मीठ पिबैए। कतबो चाहमे चीनी देने रहबै...ऊपरसँ एक वा दू चम्मच आर चाही।’’ महेशक संवाद (पृष्ठ 9)।
‘‘आ धौत्! कविता पाठ। जमा भेल होयता कविकाठीलोकनि...। एखनिसँ मेमिअयता घंटा भरि।’’ उमानाथक संवाद (पृष्ठ -10)।
पृष्ठ 15 पर दयानन्दक संवाद - ‘‘औ जी, एकटा बात बुझलिएै-अए। कहाँदन एकटा चाहो बला आइ कविता पढ़लकै-अए। कहू, मैथिली ने भेल, खेल भऽ गेल...हरही-सुरही सभ कवि भऽ गेल छै।’’ कें देखल जा सकैछ।

नाटकमे संवादक वास्तविक अर्थ चरित्र द्वारा उच्चारित शब्द या वाक्येटासँ नहि होइत छैक। अपितु मौनमे सेहो एकटा संवाद होइत छैक। चरित्र द्वारा ओकर मुख-मुद्रा, भंगिमा आ रंग-चर्यासँ मंच पर बनैत दृश्य बिम्ब सेहो ओकर शाब्दिक संवादक पर्याय होइत छैक। ‘भफाइत चाहक जिनगी-मे मौन भाषाक प्रयोग नहि देखल जाइछ मुदा दृश्य बिम्बक संवादात्मकता बड़ सफलतापूर्वक उकेरल गेल अछि जे एहि कृतिकें महत्वपूर्ण बनबैत अछि।

संरचना माने ओ बनौट जाहिमे नाटककार अपन विषय-वस्तुकें गढ़ैत अछि वा बुनैत अछि। नाट्य शास्त्रक भारतीय आ पाश्चात्य मतक अनुसार नाट्य-संरचनाक एकटा नियम आ सिद्धान्त अछि। नाटकमे कतेक अंक होअय? ओकरा दृश्य सभमे बाँटल जाय वा नहि? जँ बाँटल जाय तँ दृश्य कतेक आ केहन हो? नाटकक आरंभ, मध्य आ अंत केहन हो? कार्य-व्यापारकें कोना संयोजित कयल जाय जे समपूर्ण नाटक धरि पाठक/दर्शकक जिज्ञासा बनल रहैक? तत्व आ अवयव सभक ई अनुपात आ औचित्य कोना राखल जाय जाहिसँ नाटकक उद्देश्य आ प्रभाव खंडित नहि होअय? एहिमे वर्जित दृश्य राखल जाय वा नहि? संकलन-त्रयक केहन आ कतेक महत्वकें स्वीकारल जाय? ओकरा स्वीकारलो जाय वा नहि? एहन बहुत रास प्रश्न सभ छैक जाहिसँ मैथिलीए नहि हिन्दी आ आनो भाषाक प्रत्येक गंभीर आधुनिक नाटककार फिरीसान रहलाह अछि। विभिन्न प्रयोग कऽ अपन रचनाक माध्यमे एकर संगत उतारा ताकबाक प्रयास करैत रहलाह अछि। सुधांशु शेखर चैधरी सेहो एहने प्रयोगधर्मी नाटककार छथि। ओन मैथिलीक अपन एहि पहिल कृति ‘भफाइत चाहक जिनगी’मे ओ स्पष्ट रूपें एहि प्रश्नक उतारा ताकि लेलनि अछि। तकर एकटा इहो कारण भऽ सकैछ जे ओ अपन पर्याप्त रंगमंचीय अनुभव हिन्दी आ बांग्लासँ लऽ कऽ अयलाह आ मैथिलीमे ई नाटक लिखलनि।

मंच पर पात्रक प्रवेश-प्रस्थानक विशेष महत्व होइछ। ओकर प्रवेश-प्रस्थान आ अन्य मंचीय क्रिया-कलाप अतिनाटकीय नहि भऽ कऽ स्वाभाविक आ संप्रयोजनीय होमक चाही। ‘भफाइत चाहक जिनगी’मे प्रवेश-प्रस्थान कलात्मक, नाटकीय आ स्वाभाविक रूपें समायोजित कयल गेल अछि। नाटकमे साफ-साफ दृश्य बन्धक प्रावधान नहि रखलनि अछि नाटककार। तें प्रकाश आ पात्रक आयब-जायबसँ दृश्य आ कथावस्तुक संदर्भकें बदलबाक बात पाठक/दर्शकक सोझाँ अबैत छैक आ नाटक आगाँ बढ़ैत छैक। नाटककार एक बेरमे मंच पर बेसी पात्रक भीड़ जमा करबासँ परहेज कयलनि अछि। कम-सँ-कम पात्रक माध्यमे अपन गप कहबाक नाटककारक प्रयोग सफल भेल अछि। समय, स्थान आ कार्य-व्यापारक एकता ‘भफाइत चाहक जिनगी’क कथ्यकें विश्वसनीय आ प्रभावशाली बनबैत अछि।

विभिन्न प्रकारक ध्वनि आ रंग-चर्याक अर्थपूर्ण आ नाटकीय प्रयोगमे सेहो दूरदर्शिताक परिचय देलनि अछि नाटककार। एहि हेतु स्वयं बहुत निर्देश नहि दऽ निर्देशकक लेल बहुत ठाम सृजित कयलनि अछि जतऽ एकर प्रयोग कऽ नाटककें आओर प्रभावशाली बनाओल जा सकैछ। एक्कहि वस्तु आ चर्याकें विभिन्न प्रकारक प्रयोग कयने सृजित ध्वनिसँ भिन्न-भिन्न अर्थ आ प्रभाव उपजयबाक कतोक ठाम अवसर देल गेल छैक। यथा- कप-प्लेटक ध्वनि, चम्मचसँ चीनी घोंटबाक ध्वनि। कथावस्तुक प्रकृति अनुसार महेश द्वारा चाहमे चीनी मिलायब आ चन्द्रमा द्वारा चीनी मिलयबाक ध्वनिमे परिवर्तन कऽ निर्देशककें नव-नव भावबोधक उपस्थापनाक अवसर भेटि सकैत छैक। कप-प्लेटकें गहिंकी द्वारा बेंचक नीचाँमे रखबाक आ नाटकक अंतमे उमानाथ द्वारा महेशक हाथसँ नीचाँमे रखबाक ध्वनि आ नाटकक प्रारंभमे नेना सभक द्वारा कप-प्लेटक खनखनयबाक ध्वनि फराक-फराक प्रभाव आ अर्थ उत्पादित कऽ सकैछ। ध्वनिक संदभमे तेहने प्रयोग बाल्टीनक पानिसँ मग लऽ कऽ प्लेट धोयबाक आ पानक दोकान बला द्वारा सरोतासँ सुपारी काटबाक सेहो कयल जा सकैछ। संक्षेपमे, ई कहल जा सकैछ जे ध्वनि आ रंग-चर्या सभक सेहो बहुत रास अवसर छैक जकर उपयोगसँ निर्देशक प्रस्तुतिकें उत्कृष्ट बना सकैत अछि।
सार्थक आ महत्वपूर्ण नाटकमे दृश्य-बंध आ मंच-उपकरण मात्र सजयबा लेल नहि होइत अछि। ओ चरित्रक अपेक्षित देश-काल आ विश्वसनीय परिवेशक संग नाटकक मूल मंतव्य आ चरित्रक प्रमुख विशेषताकें सेहो स्थापित करैत अछि। ‘भफाइत चाहक जिनगी’क मंच-उपकरण यथा- चाहक स्टाॅल परक बोइयाम, कप-प्लेट, केटली, चाहक छन्ना, पथरकोइलाक चूल्हि, पान दोकानक आगाँ लटकल एकरंगा, कथ-चूनक बासन, रंग-बिरंगी डिब्बामे कथ-चून-जर्दा, बीड़ी, सिकरेट आ सिकरेट सुनगएबा लेल बरैत डिबिया नाटकक परिवेश आ नाट्य-भाषाक प्रभावी अंग बनि गेल अछि।

वेशभूषा नाटकक रंग-शिल्पक एकटा आवश्यक आ महत्वपूर्ण तत्व होइछ। जेना नाटकक एक-एक शब्द नाटकक सम्पूर्ण कथ्यक लेल अर्थपूर्ण होमक चाही, तहिना वेशभूषाक प्रत्येक भागकें नाटकक अर्थ आ पात्रक चरित्रकें उभारबाक लेल सहयोगी होमक चाही। आ ई तखने भऽ सकैछ, जँ वेशभूषा पात्रक स्वभाव, वर्ग, बयस, सामाजिक स्थिति, व्यक्तिगत पसिनक वस्तु, मनोदशा आ ओकर चरित्रकें ध्यानमे राखि परिकल्पित कयल जाय, संगहि ओहि चरित्रक कोनो-ने-कोनो खास विशेषताकें उभारय। वेशभूषाक परिकल्पना करबा काल रंगक मादे सेहो सोचल जयबाक चाही। रंगक गुण आ ओकर स्थायी भावक संग चरित्रक स्वभाव, मनोदशा आ विशेषता आदि मेल खाइत होमक चाही। ‘भफाइत चाहक जिनगी’मे नाटककार स्वयं ई काज कऽ देलनि अछि, कहबामे बेसी असोकर्य नहि होयत। नाटककार पात्रक वेशभूषाक मादे सेहो कहलनि अछि। जेना- ‘‘पानक दोकानदार थिक गेना जे लुंगी पर खाली गंजी पहिरने रहैत अछि। गोपालजी धोती-कुरता पहिरने अछि आ ओकर कुरता पर समारोहक बैज पिन कयल छैक। दिगम्बर धोती पर बुश-शर्ट पहिरने अछि। धोती तरक ओकर धारीबला अण्डरवेयर ओहिना देखाइत दैत छैक।’’ चन्द्रमा आ उमानाथक वेशभूषाक मादे सेहो लिखैत छथि- ‘‘26-27 वर्षक एक युवती आ 33-34 वर्षक एक युवकक प्रवेश। युवती नील साड़ी, नील ब्लाउज पहिरने आधुनिका सन सजावटिमे अछि आ युवक सूट पर टाइ चढ़ौने।’’

एहिठाम एकटा देखबा योग्य बात ई जे नील रंग प्रारंभिक रंग थिक आ एहि रंगकें ‘कूल कलर’ कहल जाइत छैक। एहि रंगक कतोक स्थायी भावमे एकटा थिक शान्ति। चन्द्रमाक पात्रक स्वभावसँ एहि रंगक स्थायी भाव मेल खाइत छैक तें नाटककार ओकरा ओही रंगक परिधान पहिरौलनि अछि। नाटकमे वयस्क आ युवकक प्रवेशक समय नाटककार परिचय दैत छथि जे वयस्क ग्रामीण छथि आ युवक कालेजक छात्र। गंगानाथ आ दयानन्दक बयस 30-32 वर्षक। गंगानाथ धोती आ कमीज पहिरने अछि आ दयानन्द पैण्ट-बुशशर्ट। हरिकान्त खादीक धोती-कुरता आ शिवानन्द पैण्ट-बुशशर्ट पहिरने। हरिकान्तक बयस 40 वर्षक आ शिवानन्द तीसक करीब। तहिना सरिताक मादे नाटककार लिखैत छथि- एकटा सम्पन्न महिला। जें कि नाटकमे समय, स्थान आ कार्य-व्यापारमे कोनो परिवर्तन नहि होइत छैक, तें पात्रे वेशभूषाक परिवर्तनक खगता नहि लगैछ।

कहबाक तात्पर्य ई जे ‘भफाइत चाहक जिनगी’मे वेशभूषा सम्बन्धी विचार हेतु बेसी काज जे निर्देशकक भागक होमक चाही से नाटककार स्वयं कऽ देलनि अछि। तकर अतिरिक्तो निर्देशकक लेल बहुत रास स्थान छोड़ने छथि, जतऽ ओ अपन कौशलक परिचय दऽ सकय। तकर कारण एकटा इहो कहल जा सकैछ जे शेखर जीकें मैथिली रंगमंचक सीमा बुझल छलनि।

‘भफाइत चाहक जिनगी’मे शेखर जी प्रकाश-व्यवस्था सम्बन्धी रंग-निर्देश मात्र नाटकक अंतमे दैत छथि- ‘‘मंच पर क्रमिक अन्हार होइत अछि।’’ जेना कि कहल गेल अछि जे मैथिली रंगमंचक सीमा बुझल छलनि शेखरजीकें, तें प्रायः नाटकक पूरा छायालोकक परिकल्पना निर्देशकक लेल छोड़ि देलनि अछि। एकर माने इहो भऽ सकैछ जे एकर नाट्य-मंचन सरल भऽ सकय। गामघरमे पेट्रोमैक्स पर सेहो एकर मंचन भऽ सकय आ अधुनातन शहरी रंगमंच पर सेहो एकर मंचनमे छायालोकक पूरा-पूरा प्रयोग कयल जा सकय। नाटकमे बहुत ठाम प्रकाश-वृत्त (स्पाॅटलाइट्स)क प्रयोगक संगहि आन-आन छायालोकीय प्रयोगक संभावना छैक। प्रकाशक संग रंग-संयोजनसँ नाटकक चारित्रिक गुण आ कथावस्तुक ग्राफकें प्रस्तुत कयल जा सकैछ...पात्रक मनोदशाकें उभारल जा सकैछ।

छायालोकक परिकल्पने जकाँ नाट्य-संगीतक मादे सेहो नाटककार चुप छथि। इहो काज ओ निर्देशकेक लेल छोड़ि देने छथि। मुदा पूरा नाटकमे नाट्य-संगीतक प्रयोग हेतु बहुत रास अवसर देलनि अछि नाटककार।

अन्तमे ई कहल जा सकैछ जे ‘भफाइत चाहक जिनगी’ मैथिली नाटक आ रंगमंचक विकासक मोड़ पर अपन सार्थक योगदान देलक अछि, संगहि ग्रामीण आ शहरी रंगमंच पर सेहो एकर सफलतम प्रस्तुति हेतु ठोकि-ठठा कऽ नाट्य-तत्व सभक प्रयोग कयलनि अछि नाटककार सुधांशु शेखर चौधरी ú
     बेगूसराय/19/02/2007