Thursday, October 6, 2022

मेला उतर गया : प्रदीप बिहारी की मैथिली कहानी : हिंदी अनुवाद - अरुणाभ सौरभ

मैथिली कहानी

मेला उतर गया

प्रदीप बिहारी  
        
मेला उसर गया। मनभौका थका-माँदा घर लौटा। आँगन के द्वार पर रिक्शा खड़ा कर अन्दर आया। गोल गलेवाली अपनी गंजी के जेब से पैसे निकालकर बरामदा पर पड़ी चारपाई पर बिखेर दिया। दस....बीस....और पचास के नोट। एकाध् सौ के नोट भी थे। कुछ सिक्के भी।
          उसकी पत्नी बुचनी चारपाई की ओर आयी। चारपाई पर बिखड़े पैसे भूने हुए भुट्टे के दानों की तरह नजर आ रहे थे। वह पैसे समेटने लगी। पैसे देखकर हतोत्साह हो गयी। बोली, ‘‘मेले में आग लग गयी थी या भांग चढ़ाकर पड़े रह गए कहीं? सवारी को देखने-पकड़ने का प्रयास नहीं किया, तब तो इतने कम पैसे हुए। इतने कम पैसे देखकर मन बैठा जा रहा है। इतना खराब नहीं रहा होगा बाजार। दुर्गापूजा के मेले के लिए पूरे वर्ष नजर टिकाए रहते हैं। पर...।’’
          मनभौका भी अपनी आय से निराश था। विजयादशमी थी। मुख्य मेला और आमदनी इतनी कम? वह भी खींझकर ही घर लौटा था। रास्ते भर सोचता आ रहा था कि किस पर गुस्सा उतारे? पोते पर? नहीं। वैसे जब वह रिक्शा लेकर कमाने निकला था, तो पोते ने पीछे से टोक दिया था, ‘‘बाबा! लौटते समय मेले से बैलून लेते आना। अपनी दोनों बाहों से घेरा बनाते हुए दिखाकर कहा था, ‘‘इतना बड़ा।’’
          नहीं, पोते पर वह अपना गुस्सा नहीं उतारेगा। उसका क्या कसूर है? वह अबोध् है। उसे क्या पता कि पीछे से टोकने पर जतरा (शगुन) खराब हो जाता है।
          इस तरह विजयादशमी के दिन ही मनभौका का जतरा खराब हो गया। रिक्शे के पैडल पर पाँव और हैंडल पर दोनों हाथ रखकर मनभौका सोचने लगा कि रात भर मनोयोग से रिक्शा चलाएगा। पैसे बटोरेगा। कुछ ऐसे ग्राहक (दर्शनार्थी) भी मिल जाते हैं जो किराया के अलावे ‘पैरवी’ (टिप्स) भी देते है। इसके अलावे चाय-पान के लिए भी कुछ दे देते हैं। रात भर कमाकर कल सुबह पिछले वर्ष की तरह घर लौटेगा।
          पत्नी, बुचनी, फूस की एकल छत वाले कमरे में बिछावन कर चुकी होगी। उसे आँगन में देखते ही कहेगी, ‘‘जाओ। घर में बिछौना कर दिया है। पहले आराम कर लो। बाद में और कुछ।’’ वह हाथ-मुँह धोएगा। पैर पर पानी डालेगा। कुल्ला करेगा। उसके बाद सीधे घर में घुस जाएगा। गोल गले वाली गंजी की जेब को छुएगा। जेब भरी-भरी और उभरी सी नजर आएगी। होली में दामोदर बाबू के यहाँ बनने वाले मालपूए की तरह लगेगी उसकी जेब। जेब खाली कर पैसे सिरहाने में रखेगा और देह को बिछावन पर छोड़ देगा। नींद भी जल्दी नहीं आएगी। बुचनी कटोरी में सरसों तेल लेकर आएगी और पूरी देह मालिश कर देगी। उसके बाद...
          मनभौका सोच ही रहा था कि पोते ने टोक दिया।
          पत्नी पर गुस्सा उंड़ेलकर क्या करेगा? पत्नी उस पर बीस पड़ती है, यह बात वह कभी नहीं भूलता। पर, यह औरत दिमाग से गर्म भले ही हो, पर है होशियार। यह बात मनभौका भी मानता है। तब तो उसके परिवार को सँभाल कर रखा है बुचनी ने। उसके एकमात्र बेटे को काबिल बनाया। मनभौका को मना करने के बावजूद बेटे को बैटरी वाला रिक्शा खरीद कर दी। बुचनी ने जिद ठान लिया, ‘‘फेकना पैडिल वाला रिक्शा नहीं चलाएगा। सुकुमार है। टिक नहीं पाएगा। और जब देह-समांग ठीक नहीं रह पाएगा, तो कमाएगा क्या? क्यों कमाएगा?’’
          ‘‘मैने कैसे कमाया? मेरे माँ-बाप नहीं थे क्या? अनाथ था क्या?’’ मनभौका ने कहा था, ‘‘तुमने इसे जिस तरह सुकमार बना रखा है, मेरे माँ-बाप ने वैसा नहीं बनाया है मुझे। सुनो। मरद को सुकमार बनने से काम नहीं चलता। लड़के का मन मत बढ़ाओ। अभी जवान-जहान है। अभी मेहनत नहीं करेगा तो कब करेगा? दूसरी बात यह कि बैटरी वाले रिक्शा का दाम इस रिक्शा से बहुत ज्यादा है। उतने पैसे कहाँ से आएँगे?’’
          बुचनी अपनी जिद पर कायम थी, ‘‘सो जहाँ से आवे। पैसों की व्यवस्था तो करनी ही होगी, चाहे कर्जा की क्यों न हो। एक तो उसे ठीक से पढ़ा भी न सके।’’ कुछ रुककर बुचनी बोली, ‘‘वह नहीं कमाएगा क्या? कमाएगा और कर्जा सधाएगा। हमलोग भी मदद करेंगे।’’
          और मनमौका ने कर्ज लेकर बेटे के लिए बैटरी वाला रिक्शा खरीदा।
          बुचनी चारपाई से रुपये समेट चुकी थी। मनभौका ने उसके हाथ की ओर देखा। पैसों को निहारा। सोचा, ‘‘इतने कम पैसों से नहाएगा कितना और निचोड़ेगा कितना?
          उसे पोते की बात याद आयी। हाथ-पाँव धोकर घर में जाने के बदले चारपाई पर पड़े कुछ सिक्कों को समेटा और आँगन से बाहर निकलने लगा।
          बुचनी ने टोका, ‘‘कहाँ चले?’’
          '‘भोलुआ के लिए फुकना (बैलून) लाना भूल ही गया। चौक पर से लेकर आता हूँ।’’
          ‘‘लगता है ठीक ही भाँग खाकर नशे में चूर था।’’ बुचनी बोली, ‘‘काम धंधा नहीं था। गहिंकी (सवारी) नहीं था, तो इतनी बात भी याद नहीं रही। किस आशा से भोलुआ ने फुकना लाने को कहा था। जल्दी जाओ। अभी फेकना आएगा, तो जग जाएगा वह और फुकना नहीं देखेगा तो रोने लगेगा। अपना ही माथा पीटने लगेगा। देह नोचने लगेगा। फेकना भी रात भर का थका-माँदा आएगा। आराम करेगा कि...’’
          मनभौका आँगन से निकल गया। चौक की ओर चल दिया।
          वह चौका पर पहुँचा। दुकानें बन्द थी। थके-मांदे दुकानदार जहाँ-तहाँ सोये थे। एक-दो चायवाले जगे थे। उन्हीं से एक ने मनमौका को पुकारा, ‘‘भैया हो! आइए। चाह बनाते हैं।’’
          ‘‘नहीं रे।’’
          ‘‘दुकानदारी में नहीं कहता हूँ। भैयारी में बुलाता हूँ। आइए न। अभी साथ ही चाय पीएँगे दोनों भाई। बिजनेस अलग और संबंध अलग।’’
          मनभौका थोड़ा ठिठका। चाय पीने की इच्छा हुई। पर बोला, ‘‘नहीं रे। पोते ने फुकना लाने को कहा था, वह मैं लौटते समय भूल गया। संयोग कहो कि लड़का सोया हुआ है, नहीं तो रोने-चिल्लाने लगता। वह जब रोने-चिल्लाने लगता है तो जल्दी संभलता ही नहीं है। इसीलिए तुम्हारी भौजी ने कहा कि पहले उसके लिए फुकना लेते आओ।’’
          ‘‘पर अभी कहाँ मिलेगा? चाह पी लीजिए भैया। दिन थोड़ा और उठने दीजिए। दुकानें खुलेंगी तब तो मिलेगा। और तब भी अगर नहीं मिला तो जगाया जाएगा किसी को। पोता लाल का डिमांड तो पूरा करना ही होगा।’’
         मनभौका रुक गया। चाय पीने की ईच्छा हो गई। चायवाले की बातों में दम था। इस तरह के मेले में बैलून की दुकान कहीं स्थिर तो रहती ही नहीं। घूम-घूमकर बेचे जाते हैं बैलून। जहाँ-जहाँ बच्चों की भीड़ रहती है, वहाँ पहुँच जाते हैं बैलून बेचनेवाले। वैसे दूसरे दुकानदार भी बैलून रखते हैं, पर सामान के मेल के लिए ही। उनके पास वेरायटी नहीं रहती।
          मनभौका बेंच पर बैठ गया।
         पर उसके मन में एक प्रकार की अस्थिरता पैठ गई। मन स्थिर नहीं हो पा रहा था। जब तक बैलून नहीं खरीदेगा, मन स्थिर नहीं होगा। चायवाला चम्मच से चाय के गिलास में चीनी घोल रहा था। उससे जो आवाज निकलती थी, वह मनभौका के दिमाग में टनटना रही थी। रात भर जगने के कारण नींद भी परेशान कर रही थी। बेकार ही जगा। नींद खराब। पर उसी वक्त उसे डाक्टर साहेब याद आये।
          डाक्टर साहेब बूढ़े हो गये हैं। इतना कि खुद से चलने-फिरने में भी कठिनाई होती थी, पर अपने क्लिनिक पर बैठना उन्होंने नहीं छोड़ा। इतना ही नहीं, कहीं से बुलाहट आती, तो चल देते। बेटे या किसी स्टाफ के साथ कार या बाईक से निकल जाते। वे कहा करते थे, ‘‘ऊपरवाले ने सब के लिए मनिआर्डर भेजा है। उनका डाकिया सब के दरवाजे पर जाता है। लोग अगर अपना दरबाजा बन्द कर रखेंगे, तो क्या होगा? डाकिया लौटेगा ही।’’
          मनभौका ने डाक्टर साहेब के इस बात की गाँठ बाँध ली। इसीलिए रात भर अपने रिक्शे पर बैठा टुकुर-टुकुर देखता रहा। एकाध सवारी की कोई गिनती थोड़े ही होती है?
          चायवाले ने चाय देने के लिए उसकी देह हिलायी, तो वह साकांक्ष हुआ। चायवाले ने पूछा,‌ ‘‘कहाँ खो गये थे?’’
          ‘‘खोयेंगे कहाँ? झपकी आ गई थी?’’
          चायवाले ने पूछा, ‘‘अबकी मेला कैसा रहा?’’
          ‘‘वही सोच रहा था, तो आँख लग गई। अबकी मेले की तरह कहाँ लगा?’’ मनभौका बोला, ‘‘अब मेले में रिक्शे की दुकानदारी अच्छी तरह नहीं चलती है।’’
          ‘‘क्यों?’’
          ‘‘इतने फटफटिया (बाईक) आ गये है कि...। क्या बताऊँ? लोगों से कहता था- रिक्शा, रिक्शा। तो किसी ने जवाब भी नहीं दिया। उल्टे कुछ ने कहा-  ‘‘धुर मर्दे। इस भीड़ में रिक्शा से धुकुर-धुकुर जाएँगे, सो टहलते ही नहीं चले जाएँगे?’’
          ‘‘पर आज भीड़ भी बहुत थी।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘इतने लोग थे कि...। दूर से सब का माथा बराबर लग रहा था। एक ही तरह का। पलेन। अगर लोगों के माथे पर दरी बिछा देते, तो जरा भी ऊबड़-खाबड़ नहीं होता।’’
          '‘ठीक ही कहा तुमने।’’ मनभौका बोला, ‘‘उस पर ये फटफटिया वाले तो जहाँ-तहाँ घुस जाते थे। जाम कर देते थे। क्या कमाता? समझो कि इस मेले से अच्छा तो जेनरल दिन में कमा लेते हैं।’’
         चायवाले ने मनभौका की ओर देखा।
         मनभौका बोला, ‘‘पहले लोग रिक्शा से दूर-दूर तक जाते थे। हमलोग भी पूरे टाउन के दुर्गा जी के दर्शन कराने का ठेका ले लेते थे। कम-से कम दस-बीस पैसेंजर तो मिल ही जाते। पर अबकी सब खतम। सारे पैसेंजरों को ठेलेवाले ने समेट लिया।"
          '‘ठेलेवाले?’’
         ‘‘हाँ रे! मोटरवाला ठेला।’’ मनभौका बोला, ‘‘गाँवघर के लेाग साथ-साथ आते हैं। मोटर वाला ठेला में आसानी होती है। बस के छत की तरह बैठ जाते है। रजाई की मगजी की तरह चारों ओर पाँव लटका लेते हैं। कुछ बीच में भी बैठ जाते है। ज्यादे लोग अँट जाते है। ठेलेवाले को भी अच्छा पैसा मिला जाता है और बैठने वाले को भी एक-एक सिर पर कम पैसा आता है। समय भी कम लगता है।’’
          ‘‘यह तो अच्छी बात नहीं हुई।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘उनलोगों का बिजनेस सामान ढोना है। उन्हें आदमी को नहीं ढोना चाहिए। बिजनेस का कायदा होना चाहिए।’’
          मनभौका बोला, ‘‘बाबू। अब आदमी भी सामान ही हो गया है। बिजनेस का भी कोई कायदा रहा अब? तरह-तरह के बिजनेस करते हैं लोग। सबको पैसे कमाने हैं। कहीं से हो, जैसे भी हो, पैसा होना चाहिए। महँगी नहीं देखते हो। तुम ही बताओ। आमदनी कितनी है और जरूरत कितनी?’’
          ‘‘फिर भी। दूसरे का रोजगार नहीं मारना चाहिए।’’ चायवालों ने मनभौका को तुष्ट करना चाहा, ‘‘महँगी तो है ही। अब एक कमाई से काम चलनेवाला नहीं है। आपको तो एक सहारा भी है- फेकना। फेेकना भी कमाने लगा है, तो थोड़ा साँस लेने का समय होगा। मुझे देखिए। इसी दुकान के बल पर सब कुछ। ऊपर से बाल-बच्चों की फुटानी अलग से।’’
          ‘‘फुटानी करने में मेरा फेकना भी कम नहीं है। माई का सहयोग मिलता है, उड़ाता रहता है।’’ मनभौका बोला, ‘‘अब देखो! दो महीने पहले बहुरिया को मोबाइल खरीद दिया। हमको अच्छा नहीं लगा। पूछे कि इसकी क्या जरूरत? तुम्हारे पास तो है ही। पहले बैटरीवाला रिक्शा का लोन समाप्त कर रिक्शा को अपना बना लेते न। इस पर उसकी मैया ने हमीं को डाँट दी। खरीद लिया तो क्या हुआ? शौक हुआ तो खरीद लिया। फुर्सत में दोनों प्राणी बतियाएगा न। इससे इसको क्या होता है? खुद तो सभी शौक और सपना जलाता रहा...।’’
          ‘‘भौजी को बोले नहीं कि पैसे पर ही शौक होता है, सपना पूरा होता है और अच्छा भी लगता है। सुहाता भी है।’’
          '‘धुर बुड़बक। ऐसी औरतों को समझाने का मतलब है चालनी में पानी भरना।’’
          लाउडस्पीकर में फिल्मी धुन पर भगवती गीत आरंभ हो गया। दोनों की बातचीत में व्यवधान होने लगे।
          '‘हे देखिये। जोत दिया। अपने यहाँ एक कहावत है न- ‘भोर भेल बिख पादल कुजरनी, लेब भट्टा-मिरचाइ हे’ (सुबह-सुबह ही सब्जीवाली पादने लगी कि बैगन ले लो, मिर्ची ले लो...) वही शुरू कर दिया। अब दिन भर कान फाड़ता रहेगा। किसी बढ़िया लय-सुर में गाये तो एक बात भी...।
          ‘‘क्या करोगे? लोगों को यही अच्छा लगता है।’’
          ‘‘अच्छा क्या लगेगा? इन गीतों में सब कुछ सिनेमावाला रहता है, केवल नाम-गाँव भगवती का। गीत सुनेंगे तो ध्यान सिनेमा के सीन पर चल जाता है। भगवती पर ध्याने नहीं जाता है।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘और आजकल के सिनेमावाला गीत कैसा होता है, सो जानते ही हैं। बगैर लाज-धाक वाला गीत।’’
          '‘रे बाबू। फटफटिया पर बैठने का ढंग भी बदल गया। अब दोनों टाँगों के एक तरफ रखकर वही औरत बैठती है जो साड़ी पहने रहती है। बाकी सब दोनों टाँगोें को दोनों तरफ रखकर बैठती है। सो केवल जवान-जहान ही नहीं, हर उमेर वाली।’’
          ‘‘लाज-धक तो उठ ही गया बाबू!’’ मनभौका बोला, ‘‘अब रिक्शा को ही लो। पहले दो प्राणी रिक्शा पर बैठते थे तो धीरे-धीरे बतियाते रहते थे। ध्यान रखते थे कि रिक्शावाला सुन न ले। उसी तरह की बात करते थे। रिक्शा का ओहार लगा लेते थे और जैसे मन होता बैठते थे। पर अब देखो। रिक्शा क्या? फटफटिया पर इस तरह सट के बैठते हैं कि समझ पाना कठिन होता है कि दो बैठे हैं या एक।’’
          चायवाला बोला, ‘‘अब साड़ी पहनती ही कितनी है? कम ही न?’’
          '‘नहीं, साड़ी भी पहनती है।’’ मनभौका बोला, ‘‘छोड़ो, जिसे जो मन होता है, करता है। जिसे जो सुभीता होता है, करता है। अब कौन किसकी बात मानता है?’’
          '‘यह तो सही कह रहे हैं।’’
          मनभौका विदा होते हुए बोला, ‘‘अच्छा चलता हूँ।’’
          वह आगे बढ़ गया।

पाँच-सात दुकान के बाद बैलून बेचने वाले लड़के को देखा। वह लड़का सड़क के किनारे पड़ी एक चारपाई पर सो रहा था। बगल में गैस सिलिंडर था, जिसे उसने चारपाई के एक पाँव से बाँधकर आश्वस्त हो सो रहा था।
          मनभौका ने पहले पुकार कर जगाने की कोशिश की। पर लड़के की आँखें नहीं खुलीं। फिर उसकी देह पकड़कर हिलाया। फिर भी उसकी आँखें नहीं खुलीं। वह गहरी नीद में सोया था। पर मनभौका ने हार न मानी। उसे पकड़कर जोर-जोर से हिलाने लगा। पुकारता रहा, ‘‘उठ न रे बाबू! एक बड़ा सा फुकना दो।’’
          प्रायः लड़केे की नींद टूटी। पर उसने अपनी आँखें नहीं खोली। लेटे-लेटे बोला, ‘‘नहीं है।’’
         '‘रे। पहले उठो न। सुबह-सुबह के ग्राहक को लौटाना नहीं चाहिए। ग्राहक लक्ष्मी होता है रे बाबू।’’
          लड़का आँखें मलते हुए जगा। मनभौका की ओर देखकर इस कदर बोला मानों उसे पहचानता हो, ‘‘हो बूढ़ा! भोरे-भोर जगा दिए। बड़ा वाला फुकना गैस से फुलाकर मिलेगा।’’
          ‘‘नहीं रे बाबू। पम्प से फुलाकर दो न। पोता के लिए ले जाऊँगा। गैस वाला ले जाएँगे और अगर हाथ से छूट गया, तो गया भैंस पानी मे। उड़ ही जाएगा।’’
           लड़का हँसा, ‘‘आप भी पिछड़ले हो बूढ़ा। उड़ जाएगा तो हवाई जहाज थोड़े हो जाएगा? जमाना कहाँ से कहाँ गया। अब कोई फुकना वाला पम्प रखता है?’’
          मनभौका को लगा कि वह इस लड़के से बहुत छोटा है। उम्र में और बुद्धि में भी। उसने लड़के से कहा, ‘‘बाबू रे! मुँह से ही फुलाकर दो न।’’
          ‘‘इह! इतना बड़ा फुकना मुँह से फुलाएँगे तो गले में मरोड़ देने लगेगा।’’ लड़का बोला, ‘‘गैस वाला नहीं लेना है, तो ऐसा करिये कि फुकना ले जाइए और घर में फुलाकर पोता को दे दीजिएगा।’’
          पर यह मनभौका को मंजूर नहीं था। मेला से फुला हुआ बैलून ले जाने का ठाठ और आनन्द ही अलग होता है। वह खुद भी बैलून फुलाना नहीं चाहता था। अगर फुला नहीं सका और गले में मरोड़ आ गया तो अलग ही बात हो जाएगी। इस लड़के के समक्ष पोल खुल जाएगी। उसने एक उपाय किया। बैलून गैस से फुलाया और बड़ा सा धागा से बाँध दिया। इतना बड़ा कि अगर भूल से छूट भी जाय तो जब तक बैलून बहुत ऊपर जाय, वह धागा पकड़ सके।
          मनभौका घर की ओर चला। सोचा, भोलू जग गया होगा। उसे ढूंढ़ता होगा। बैलून को भी। नखरा कर रहा होगा। खैर बाप संभाल रहा होगा। आ गया होगा फेकना।
          वह चाय की दुकान पर रुक गया। चायवाले ने रोक लिया था उसे।
          मनभौका पूछा, ‘‘क्या बात है?’’
          चायवाला गंभीर था। उसने एक ओर ईशारा किया। मनभौका उधर देखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ है? किस बात का हल्ला-गुल्ला है?’’
          ‘‘फेकना घर लौटा?’’ चायवाले ने पूछा।
          ‘‘पता नहीं। मैं तो इधर ही हूँ। आया ही होगा।’’ मनभौका बोला, ‘‘पर क्या हुआ है? किस बात की भीड़ है?’’
          ‘‘अनर्थ हो गया।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘कल शाम में रावण को जलाकर निकलते समय भगदड़ मच गई। उसमें पैंतीस लोग मर गये। तैंतीस की लाशों की पहचान हो गई। दो लाशों की पहचान नहीं हो पायी है। सरकार से भी नहीं। उसी दोनों लाश का फोटो राम अशीष के टी.वी. पर दिखा रहा है।’’
          मनभौका आशंकित हुआ। डर गया। बोला, ‘‘चलो न। हम भी देखें। अगर पहचान गये तो...।’’
          चायवाले ने उसे मना किया, ‘‘क्या देखिएगा? जाइए। पोता जग गया होगा।’’
          एक प्रकार जबर्दस्ती ठेलकर चायवाले ने मनभौका को घर की ओर भेजा।
          मनभौका एक प्रबल वेग से घर पहुँचा। उसका मन बेचैन होेने लगा। आशंका से कलेजा उलटने लगा।
          दरवाजे पर पहुँचते ही जोर से बुचनी से पूछा, ‘‘फेकना आया?’’
          बुचनी बोली, ‘‘नहीं। नहीं आया है बौआ? क्या बात है?’’
          ‘‘भोलुआ के माई को कहो कि उसको मोबाइल लगाबे।’’
          तब तक चायवाला भी पहुँच गया। वह हाँफ रहा था। हाँफते ही पूछा, ‘‘फेकना आया?’’
          मनभौका से पहले बुचनी ने ही पूछा, ‘‘सो बात क्या है? बोलो न। क्या हुआ फेकना को? बोलो न। मेरा कलेजा उलट रहा है।’’
          मनभौका और चायवाला चुप। दोनों एक दूसरे को आशंका से देख रहे थे। चायवाले की साँसें लम्बी हो रही थीं।
          बुचनी की साँसों की गति बढ़ गयी। बोली, ‘‘आखिर बात क्या है? तुमलोग कुछ बोलते क्यों नहीं? क्या हुआ है?’’
          मनभौका की ओर देखते हुए चायवाला बोला, ‘‘पूरा-पूरा तो कोई पहचान नहीं पाया। पर, अपरिचित लाश को देखकर चौक के लोगों का कहना है कि कोई अपना ही आदमी है। मुँह थकुचा हुआ है, सो ठीक-ठीक पता ही नहीं चलता। मुझे भी लगा कि कोई अपना ही है।’’ बुचनी से कहा, ‘‘भौजी! चिन्ता मत कीजिए। स्थिर होइए।’’
          ‘‘स्थिर क्या रहें? बात नहीं बोलते हो तुमलोग और कहते हो स्थिर रहिये।’’ बुचनी बोली, ‘‘तुमको मेरी कसम। बोलो न! क्या हुआ है?’’
          मनभौका की देह डोलने लगी। चायवाला बोला, ‘‘जरूरी नहीं है कि अपना ही आदमी हो। अन्दाजा ही लगाते हैं सभी।’’
          बहू बरामदे पर आकर घूंघट की ओट से बोली, ‘‘मोबाइल रात से ही नहीं लग रहा है। पहुँच से बाहर कह रहा है। अभी भी वही कहता है।’’
          बहू के साथ पोता भी निकला था।
          चायवाले मनभौका को खींचते हुए बाहर ले जाने लगा, ‘‘चलिए। टेम्पू पकड़ लेते हैं। चौक के लोग भी गए हैं। अस्पताल में रखा है...।’’
          मनभौका के हाथ से बैलून छूट गया। बैलून उड़ गया।
          बुचनी उसी जगह बैठकर रोनी लगी।
          बहू ने सास को संभाला, ‘‘ऐसा क्यों करती हैं? जरूरी है कि वह भोलुए के पप्पा हों?’’
          लय में रोती हुई बुचनी बोली, ‘‘किसी का भी पप्पा ही होगा न गे रनियाँ। किसी का सोना जैसा बेटा ही होगा न गे रनियाँ...।
         भोलू दादी के कन्धे पर हाथ रखकर अवाक् था। मानों पूछ रहा हो- यह क्या हो गया?

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मैथिली से अनुवाद: अरुणाभ सौरभ

16 comments:

  1. अति सुन्दर कहानी की प्रस्तुति है। आपके निरंतर सफलता के लिए मेरी ढेर सारी शुभकामनाएं

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  2. Bahut badhiya.
    Vastvikta ki aarpar nikal gya.
    Samvad bahut badhiya raha.

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  3. बहुत सुंदर मर्मस्पर्शी कथा , अनुवाद भी बहुत अच्छा ।
    आँखों के आगे सारी घटना चित्रित हो उठी ,,,,

    शेफालिका

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    1. आभार। प्रणाम।

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  4. कथा और अनुवाद दोनों उम्दा।

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    1. प्रदीप बिहारीOctober 8, 2022 at 11:03 PM

      धन्यवाद।

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  5. बहूत सुन्दर कहानी

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  6. Bahut badhiya.
    Bhavnatmak.
    Samvad bahut badhiya raha.

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    1. प्रदीप बिहारीOctober 8, 2022 at 11:04 PM

      धन्यवाद।

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  7. सर बहुत अच्छी कहानी है । अन्य कहानियों का भी इंतजार रहेगा ।

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    1. प्रदीप बिहारीOctober 8, 2022 at 11:00 PM

      आभार। आप जल्दी ही अन्य कहानियां भी पढ़ पाएंगे।

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  8. Sir, Aapne Kahani ke end me apni lekhini ko, syahi ke badle, aansuon me kyon duboya...haalat ke darakht ki pattiyon pe to pahle se hi ..aansu ke os ki manind chaspa the....

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    1. प्रदीप बिहारीOctober 8, 2022 at 10:58 PM

      कहानी आपको अच्छी लगी, यह बात मुझे प्रोत्साहित करती है। कहानी के अंत में रोती हुई दादी के कंधे पर पोते का हाथ रहना एक उम्मीद की बात कहती है।‌

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